इस समय सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों तथा निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सार्वजनिक विवाद की स्थिति बनी हुई है। सरकार संविधान के प्रासंगिक प्रावधानों के सहारे है और दलील दे रही है कि नियुक्तियों के निर्णय का अधिकार कार्यपालिका के पास है। जबकि इससे अलग नजरिया रखने वालों को संविधान की मूल भावना की चिंता है। औपचारिक रूप से देखा जाए तो ये नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं जो संविधान के मुताबिक प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडल की अनुशंसाओं को मानते हुए ऐसा करते हैं।
ऐसे में देखें तो संवैधानिक प्रावधानों की भाषा आवश्यक तो है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। हमें संविधान निर्माताओं द्वारा अभिव्यक्त भावनाओं और इरादों को भी ध्यान में रखना होगा। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय के 1993 और 1998 के निर्णयों पर आधारित है और यह चयन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का एक कॉलेजियम करता है जिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के पास होती है। कार्यपालिका उनसे पुनर्विचार करने को कह सकती है लेकिन अगर कॉलेजियम अपनी अनुशंसा पर टिका रहता है तो उसे स्वीकार करना होगा। हालांकि सरकार इन अनुशंसाओं को महीनों तक रोककर नियुक्तियों को लंबित रख सकती है।
सरकार इन नियुक्तियों में अपने घटते प्रभाव से चिंतित है और उसने संसद के सामने एक ऐसा प्रस्ताव मंजूर कराया जिसे एक तरह से संविधान संशोधन कहा जा सकता है। इसके साथ ही राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना को लेकर एक कानून भी बना जिसके पास उच्च न्यायालय की नियुक्तियों का अधिकार होता। आयोग की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश के पास होगी और इसमें दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और दो ‘प्रतिष्ठित’ व्यक्ति शामिल होंगे जिनकी सहमति मिलने पर ही नियुक्तियां की जा सकेंगी। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया। दलील दी गई कि यह न्यायिक स्वायत्तता के साथ समझौता करने जैसा है जबकि वह संविधान की विशेषताओं में से एक है जिसमें संसद संशोधन नहीं कर सकती।
इस विषय पर संविधान सभा की बहस साफ संकेत देती है कि उसकी मंशा न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने की है। यही कारण है कि संविधान सभा ने बीच का रास्ता अपनाया जिसके तहत मुख्य न्यायाधीश को मशविरा लेने को कहा गया क्योंकि कहा गया कि बिना किसी नियंत्रण के नियुक्तियों को केवल राष्ट्रपति पर छोड़ देना खतरनाक साबित हो सकता है। डॉ. बी आर आंबेडकर ने उक्त विचार प्रकट करते हुए कहा था कि यह काम केवल कार्यपालिका की अनुशंसा के भरोसे छोड़ना उचित नहीं होगा। एक संशोधन भी प्रस्तावित था जिसके माध्यम से ‘मशविरा’ शब्द को बदलकर ‘सहमति’ करने की बात शामिल थी। इसे स्वीकार नहीं किया गया। एक अन्य संशोधन जिसे नकार दिया गया वह यह था कि संसद को इस प्रक्रिया में शामिल किया जाए। इसे स्वीकार किया जाता तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता, विधायिका के कारण बाधित होती।
हमें पारदर्शी व्यवस्था चाहिए जहां कॉलेजियम की प्रक्रिया जांच के लिए अधिक खुली हो। लेकिन हमें एक नए संस्थान की आवश्यकता नहीं है जो कार्यपालिका को संविधान की इच्छा के परे जाकर अधिकार सौंपे। बुनियादी लक्ष्य यही होना चाहिए कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के पूर्वग्रह से बचाया जाए। संवैधानिक नियुक्तियों को लेकर एक सवाल यह भी किया जा रहा है कि निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया क्या है। संविधान के मुताबिक यह नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिमंडल की अनुशंसा पर की जानी चाहिए। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष है और दो निजी सदस्यों के विधेयक इसमें अहम बदलाव के प्रस्ताव के साथ पेश हैं।
संविधान सभा में बुनियादी अधिकारों को लेकर जो समिति बनाई गई उसने यह अनुशंसा की थी कि चुनावों को स्वतंत्र रहने दिया जाए और कार्यपालिका को चुनावों में किसी तरह का हस्तक्षेप न करने दिया जाए। अनुशंसा की गई कि इस विषय में मूल अधिकारों संबंधी हिस्से में प्रावधान किए जाएं। संविधान सभा की चर्चा में इस बात पर सहमति बनी कि इस विषय को संविधान के किसी अन्य हिस्से में रखा जाए जो निर्वाचन आयोग की स्थापना से जुड़ा हो। परंतु संविधान सभा ने मजबूती के साथ यह कहा कि चुनावों की शुद्धता और स्वायत्तता को ध्यान में रखते हुए यह बात महत्त्वपूर्ण है कि चुनाव प्रबंधन करने वाली संस्था तत्कालीन कार्यपालिका के किसी भी तरह के हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त रहे।
कार्यपालिका के दायरे से बाहर के किसी संगठन जो चुनाव प्रक्रिया के लिए महत्त्वपूर्ण हो, के प्रमुख की नियुक्ति में कार्यपालिका की मजबूत भूमिका की आलोचना उचित ही थी। हमें यह भी याद रखना होगा कि एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने पद छोड़ने के बाद सरकार में मंत्री का पद स्वीकार किया था। कार्यपालिका की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र के बाहर के संस्थान पर दबदबा दिखाने की एक घटना तब हुई थी जब मुख्य निर्वाचन आयुक्त के उस प्रस्ताव को खारिज किया गया था जिसमें उन्होंने ऐसे निर्वाचन आयुक्त को हटाने का अनुरोध किया था जिसकी विश्वसनीयता संदिग्ध थी। इतना ही नहीं बाद में उस आयुक्त को मुख्य निर्वाचन आयुक्त भी बना दिया गया था।
नियुक्ति की प्रक्रिया में निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता सुनिश्चित होनी चाहिए और उसे मतदाताओं तथा राजनीतिक दलों के प्रति अधिक पारदर्शी तथा स्वीकार्य बनाया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। दो निजी सदस्यों के विधेयक जो मुख्य न्यायाधीश और सांसदों के साथ चयन समिति के गठन की बात करता है उसका पास होना मुश्किल है। परंतु ध्यान रखना चाहिए कि लालकृष्ण आडवाणी ने 2012 में यह बात आगे बढ़ाई थी कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा की जाए जिसमें मुख्य न्यायाधीश, कानून मंत्री और दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष शामिल हों।
सच तो यह है कि संविधान को ऐसे समय तैयार किया गया था जब उस वक्त के कार्यपालिक प्रमुख यानी पंडित जवाहरलाल नेहरू की ईमानदारी और लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा को लेकर कोई संशय न था। यह बात संविधान सभा में कई बार सामने भी आई। यही कारण है कि कार्यपालिका द्वारा शक्ति के दुरुपयोग से बचाव के अधिक उपाय देखने को नहीं मिले। अब राजनीतिक माहौल बदल गया है। आज के राजनेताओं में संविधान के आशय को लेकर वैसी प्रतिबद्धता नहीं नजर आती और अब हमें एक ऐसी स्पष्ट प्रक्रिया की आवश्यकता है जो उन संस्थानों की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता बरकरार रखे जो लोकतंत्र और विधि के शासन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।