कोई नहीं बता सकता कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप कब क्या करेंगे या कहेंगे। मगर दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद से उन्होंने जो कदम उठाए हैं उनसे कट्टर नीति निर्माता, कारोबारी, व्यापारी, निवेशक, राजनेता और अफसरशाह हैरत में पड़ गए हैं। अभी तो उन्हें व्हाइट हाउस में 46 महीने और रहना है। जो कुछ हो रहा है उसका अंदेशा मुझे पहले से ही था। पिछले साल अक्टूबर के अंत और नवंबर के शुरू में अपने तीन आलेखों में मैंने भारत में आर्थिक सुस्ती होने और शेयर बाजार में कमजोरी आने का साफ संकेत दिया था।
नवंबर मध्य में मैंने चौथा आलेख ‘शेयर बाजार में आशंका के गहराते घने बादल’ भी लिखा था। ट्रंप तब चुनाव जीत चुके थे और मैंने कहा था, ‘यह मानना आत्मघाती होगा कि ट्रंप के वादे सियासत में फंस जाएंगे या वाशिंगटन में बैठी लॉबियों तथा डीप स्टेट के सामने बौने साबित हो जाएंगे। ट्रंप ने जितनी बातें (ट्रंपोनॉमिक्स) कही हैं उनका एक हिस्सा भी लागू हो गया तो दुनिया में भारी उथल-पुथल मच जाएगी और कोई भी बड़ी अर्थव्यवस्था इससे बच नहीं पाएगी।’ अब तक तो ऐसा ही हुआ है। अमेरिका के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार कनाडा, मेक्सिको और चीन पर शुल्क थोप चुके ट्रंप के निशाने पर अब यूरोपीय संघ, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और भारत हैं।
लगता तो यही है कि ट्रंप की नीति आक्रामक, सीधी, अस्थिर, देश के हित साधने वाली और पहले से अलग है। जिस देश का अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष है वह ट्रंप की नजर में ‘अमेरिका को धोखा दे रहा है’। उनका कहना है कि ऐसे देशों को अमेरिकी बाजार में माल बेचने के लिए ज्यादा शुल्क देना होगा। उसके बाद बराबरी के शुल्क हैं – अमेरिकी निर्यातकों से जिस सामान पर कोई देश जितना शुल्क लेता है, उसके निर्यातकों से भी उस सामान पर उतना ही शुल्क वसूला जाएगा।
अनुमान है कि इससे 23 लाख वस्तुओं और सामान पर शुल्क की सूची तैयार हो जाएगी। ट्रंप की धमकी कितनी गंभीर है और हम पर कितना असर डाल सकती है? ट्रंप की इन हरकतों की वजह आर्थिक सलाहकार परिषद के मुखिया स्टीफन मिरान हैं। पिछले साल नवंबर में एक शोध पत्र में उन्होंने सलाह दी थी कि ट्रंप प्रशासन निर्यात बढ़ाने के लिए डॉलर को कमजोर होने दे, देसी विनिर्माण बढ़ाने के लिए ऊंचे शुल्क लगाए और दूसरे देशों से अमेरिकी बॉन्ड के लिए भुगतान कराए या उन्हें 100 साल के बॉन्ड के बजाय छोटी अवधि के बॉन्ड लेने के लिए कहे।
ट्रंप विश्व व्यापार को तहस-नहस करने में लगे हैं, जिसके असर बहुत घातक होंगे। वैश्वीकरण, वृद्धि एवं विकास में माहिर अर्थशास्त्री डानी रॉड्रिक ने लिखा, ‘दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में अभूतपूर्व वृद्धि आई है। इसकी बराबरी न तो औद्योगिक क्रांति कर सकती है और न ही 19वीं सदी में शुरू हुआ वैश्वीकरण।’ यह शानदार वृद्धि एशिया, अमेरिका और यूरोप के बीच बढ़ते विश्व व्यापार तथा यूरोपीय एवं अमेरिकी देशों के बीच क्षेत्रीय व्यापार के कारण आई, जिसे सौदों की कम लागत और कम शुल्क ने मुमकिन किया।
पूर्वी एशिया के देश जैसे जापान, ताइवान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर कम लागत का फायदा उठाने में जुटे तो विकसित देशों को उनका निर्यात बढ़ता गया। निर्यातक देशों की इस टोली में चीन 1990 के दशक के अंत में शामिल हुआ मगर 2001 में विश्व व्यापार संगठन में जाने के बाद वह पूरी दुनिया का कारखाना ही बन गया। इसके बाद निर्यातकों ने उनके बाजारों के निकट (चीन ने अमेरिकी बाजार के लिए मेक्सिको में) अपने केंद्र स्थापित किए। कम लागत का फायदा उठाने के लिए भी उन्होंने (चीन ने वियतनाम या थाईलैंड में, दक्षिण कोरिया और जापान ने मलेशिया में) कोई कसर नहीं छोड़ी।
विश्व व्यापार में तेजी आई और उसी समय युद्ध के बाद के काल में अमेरिकी डॉलर दुनिया की आरक्षित मुद्रा बनता गया। दुनिया में लगभग आधा व्यापार डॉलर में होता है। चूंकि ज्यादातर एशियाई निर्यात अमेरिका को ही जाता था, इसलिए वहां से हुए फायदे या व्यापार अधिशेष को ये देश अमेरिकी सरकारी बॉन्डों में ही निवेश कर देते थे। इससे अमेरिका और बॉन्ड जारी करता रहा तथा विनिमय दर बिगाड़े बगैर इन देशों से आयात के लिए रकम जुटती गई। इसीलिए ट्रंप यदि विश्व व्यापार की कड़ियां खत्म करेंगे तो डॉलर में बहुत उठापटक होगी। शुल्क उसे ऊपर ले जाएंगे और उन शुल्कों की वजह से धीमी पड़ी वृद्धि उसे नीचे गिराएगी। इसके अलावा कई और वजहों से भी उठेगा या गिरेगा।
उठापटक इसलिए भी होगी क्योंकि ट्रंप अमेरिका के लगभग सभी सहयोगियों के साथ झगड़ रहे हैं। डॉलर दुनिया की आरक्षित संपत्ति है, जिससे अमेरिका को अपनी ताकत जाहिर करने में मदद मिलती है। दुनिया भर में उसके सैन्य ठिकाने और अड़ियल सरकारों पर सख्त वित्तीय प्रतिबंध लगाने की उसकी क्षमता इसका सबूत है। ट्रंप ने जापान से यूरोप तक के देशों को अमेरिकी सुरक्षा खत्म कर दी है और खुल्लमखुल्ला रूस के साथ खड़े हो गए हैं, जो चीन, उत्तर कोरिया और ईरान वाली धुरी का हिस्सा है। दूसरे शब्दों में कहें तो ट्रंप वैश्विक व्यापार, वैश्विक निवेश, डॉलर और अमेरिकी सुरक्षा गारंटी को एक साथ उलट देना चाहते हैं।
इसके नतीजे बरबादी से कम नहीं होंगे। भारत जैसे कमजोर और छोटे देशों के लिए तो और भी मुश्किल हो जाएगी। तमाम विकासशील देशों की तरह भारत के लिए भी अमेरिका सबसे महत्त्वपूर्ण बाजार है। भारत के कुल निर्यात में अमेरिका की 9 फीसदी हिस्सेदारी है वस्तु निर्यात में 18 फीसदी। ट्रंप की नई व्यापार नीति से राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला भी जुड़ा है। वह कई जरूरी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर होना चाहते हैं और दवा भी इनमें से एक है।
भारत ने 2023 में अमेरिका को 10 अरब डॉलर से ज्यादा कीमत की दवा निर्यात की थीं। भारत ने 2023 में अमेरिका को 23 अरब डॉलर मूल्य की सॉफ्टवेयर सेवा भी निर्यात की थीं। हालांकि ट्रंप की टीम में मौजूद तकनीकी लोग एच1बी वीजा (जिसके जरिये भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर अमेरिका में काम करते हैं) के हिमायती हैं मगर आव्रजन विरोधी ट्रंप समर्थक इसके सख्त खिलाफ हैं। ये दोनों भारत के लिए सबसे ज्यादा रोजगार तैयार करने वाले निर्यात क्षेत्र हैं। इसके अलावा भारत की सबसे अच्छी कंपनियों में ज्यादातर अमेरिका को निर्यात करती हैं। उन सभी को खतरा होगा। जब तक कुछ बदलता नहीं तब तक ट्रंप बड़ा खतरा हैं, जिसका अंदाजा शायद अभी हमें पूरी तरह लगा नहीं है।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक एवं मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं)