दिल्ली में नीति निर्धारकों और विशेषज्ञों ने झट से कह दिया कि अमेरिका और चीन के बीच छिड़ा व्यापार युद्ध भारत के लिए सुनहरा मौका है। आपूर्ति श्रृंखला बिगड़ने और भू-राजनीतिक तनाव गहराने पर क्या भारत निर्यात बाजार में चीन की भारी हिस्सेदारी अपने नाम कर पाएगा? ऊपर से तो ऐसा ही दिख रहा है क्योंकि ऊंचे शुल्कों और पाबंदियों की वजह से अमेरिका को चीन से आयात घटेगा। ऐसे में भारत सस्ते श्रम और तेजी से बढ़ते उद्योगों के दम पर अपनी जगह मजबूत कर सकता है। किंतु इस उम्मीद के पीछे कड़वी हकीकत भी है।
सबसे पहली बात, चीन का निर्यात तंत्र काफी विशाल है। उसने 2024 में अमेरिका को 439 अरब डॉलर का माल सीधे निर्यात किया। इन आंकड़ों में वियतनाम, कंबोडिया और मेक्सिको के रास्ते निर्यात माल जोड़ दें तो आंकड़ा बहुत बढ़ जाएगा। इस भारी भरकम आंकड़े की बराबरी करना आसान नहीं है। भारत और दूसरे देशों के पास इतनी औद्योगिक मजबूती, लॉजिस्टिक्स क्षमता या नीतिगत पारदर्शिता नहीं है कि वे चीनी निर्यात का विकल्प बन सकें।
दूसरा मुद्दा समय से जुड़ा है। अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक संबंध बिगड़ गए हैं मगर यह सोचना बेमानी है कि लड़ाई लंबी चलेगी। कुछ हफ्तों में कई अमेरिकी स्टोरों की दराजें खाली होने लगेंगी। अमेरिका में माल पहुंचाने वाले सबसे बड़े वेंडरों में आधे से ज्यादा चीनी ही हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स, खिलौने, परिधान एवं घरेलू सामग्री का आयात थमा तो कीमतें बढ़ेंगी और महंगाई भी बढ़ सकती है। प्रतिकूल परिस्थितियों में इससे अमेरिका की वित्तीय परिसंपत्तियों में भरोसा घटेगा। इसका समाधान खोजने का दबाव भी बढ़ता जाएगा। इस बीच भारत से निर्यात बढ़ेगा भी तो वह अधिक दिनों तक नहीं टिकेगा।
अमेरिका और चीन में पिछले एक दशक से व्यापार युद्ध चल रहा है, इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि डॉनल्ड ट्रंप के आने से ही ऐसा हुआ है। दोनों देशों के बीच समझौता हुआ तब भी चीनी सामान पर ऊंचा शुल्क ही लगेगा। कुछ लोगों की दलील है कि इससे अमेरिकी बाजार में भारतीय माल बढ़ने लगेगा। हो सकता है बढ़े मगर मुद्दा यह नहीं है कि चीन के कारण भारत के लिए बंद दरवाजे खुल रहे हैं। मुद्दा यह है कि भारत उसमें दाखिल होने लायक है भी या नहीं। भारत का विनिर्माण क्षेत्र बिखरा है, तकनीक के इस्तेमाल में पीछे है और चीन से खाली हुई जगह भरने को पूरी तरह तैयार नहीं है। भारत के पारंपरिक निर्यात जैसे कपड़ा, परिधान एवं आभूषण वैश्विक मांग के अनुरूप नहीं बढ़ पाए हैं। हां, दवा में भारत दमदार है और अमेरिका को आधी जेनेरिक दवा भारत से ही मिलती है। मगर दूसरे क्षेत्रों में वस्तुओं एवं उत्पाद की गुणवत्ता सबसे बड़ी बाधा है। भारतीय उत्पाद अक्सर अंतरराष्ट्रीय पैमानों पर नाकाम रहते हैं और उत्पादन भी नहीं बढ़ पाता।
निर्यातकों के लिए भी चुनौती हैं। एचडीएफसी बैंक के अनुसार भारतीय निर्यातकों को लंबी-चौड़ी कागजी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। संकरी और नाकाफी सड़कें, रेल मार्ग, बंदरगाह एवं हवाई अड्डों के कारण माल की आवाजाही सुस्त तथा खर्चीली बन जाती है, जिससे निर्यातक आपूर्ति से जुड़ी शर्तें पूरी करने में जूझते रहते हैं। सड़क और रेल संपर्क खराब होने के कारण समुद्र से दूर के राज्यों से माल बंदरगाह तक पहुंचना दूभर हो जाता है। दिल्ली के एक गोदाम से बंदरगाह तक माल पहुंचने में तीन से चार दिन लगते हैं, जो अन्य देशों में लगने वाले समय की तुलना में तीन गुना है। कृषि पदार्थों का निर्यात इससे अधिक प्रभावित होता है। भारत में दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा रेल तंत्र है, जो 30 लाख टन माल ढोता है। मगर पुराने उपकरण, लचर सिग्नल प्रणाली और मालगाड़ी के डिब्बों की कमी के कारण लागत बढ़ जाती है तथा देर भी हो जाती है।
भारत निर्यात में आगे बढ़ना चाहता है मगर खास तौर पर चीनी आयात पर निर्भर होता जा रहा है। 2023-24 में भारत में 63 फीसदी सोलर पैनल आयात चीन से हुआ। दुनिया में पॉलिसिलिकन उत्पादन में 97 फीसदी और सोलर-मॉड्यूल उत्पादन में 80 फीसदी हिस्सेदारी चीन की ही है। स्मार्टफोन, लैपटॉप एवं उपकरण बनाने वाली भारतीय कंपनियां भी पुर्जे चीन से ही मंगाती हैं। बड़ी चिंता है कि दवाओं में इस्तेमाल होने वाली लगभग 70 फीसदी एपीआई हम चीन से ही मंगाते हैं। इसमें रुकावट आई तो भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी और निर्यात भी घटेगा। चीन के वाहन पुर्जे भी भारतीय उद्योग के लिए जरूरी हैं।
इसलिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत को मजबूत कड़ी बनते देखने वाले फिर सोचें। दुनिया भर में होड़ करने के लिए लंबे समय तक धैर्य और कड़ी मेहनत की जरूरत होती है। इसलिए विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा में निवेश, व्यावसायिक शिक्षा में सुधार, कारोबार सुगमता के लिए शर्तें घटाना, अप्रत्यक्ष करों में कमी करना, प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देना, निर्यात क्षेत्र में उभरती इकाइयों को समर्थन देना और सार्थक तकनीकी हस्तांतरण के साथ लगातार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के लिए अनुकूल माहौल तैयार करना होगा।
भारत ने पहले ही ऐसा कर लिया होता तो हम होड़ कर जाते। मगर हमने ऐसा नहीं किया, इसीलिए सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 2022 तक 25 फीसदी करने के लिए 2014 में शुरू किया गया ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम कारगर नहीं रहा। अमेरिका और चीन की तनातनी से मौके मिले तो भी भारत उसका फायदा नहीं उठा पाएगा। इसीलिए सवाल यह है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व एवं सरकारी तंत्र इस अवसर का लाभ उठाने के लिए मेहनत कर पाएंगे या नहीं।
यह पूछा जाना भी लाजिमी है कि मेहनत कौन करेगा और क्यों करेगा? इसके लिए हमारे नेताओं एवं अधिकारियों में अलग समर्पण एवं गंभीरता चाहिए और देश के लिए इसे फौरन करने का वह जज्बा होना चाहिए जैसा दक्षिण कोरिया, जापान, ताइवान, सिंगापुर और चीन में दिखा था।
(लेखक डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक एवं मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं)