वर्ष 2020 में येस बैंक मामले को सफलतापूर्वक निपटाए जाने को भारतीय रिजर्व बैंक के कुशल संकट प्रबंधन का बेहतरीन उदाहरण माना जाता है जहां केंद्रीय बैंक के नेतृत्व में तेजी से सार्वजनिक और निजी पूंजी जुटाई गई। वास्तव में संक्रमण को जल्दी नियंत्रित करना भी परिचालन की एक कामयाबी थी जिसने व्यवस्थागत झटके को रोक दिया।
बहरहाल, इस घटना को भविष्य की वित्तीय स्थिरता का मॉडल मानना भी एक खतरनाक संस्थागत भ्रम को अपनाने जैसा है। येस बैंक का समाधान प्रणालीगत ढांचे के बजाय तात्कालिक सुविधा की जीत थी। इसने सुशासन, कानून के शासन और वित्तीय विनियमन के सभी प्रसिद्ध सिद्धांतों का उल्लंघन किया। इसने भारत की नियामक संरचना में मौजूद गंभीर और महत्त्वपूर्ण कमी को उजागर किया जो थी विफल वित्तीय संस्थानों के समाधान के लिए एक गैर-विवेकाधीन, पूर्वानुमान योग्य ढांचे की निरंतर अनुपस्थिति।
यह ध्यान देने योग्य और गंभीर तथ्य है कि भारत जी20 का इकलौता ऐसा देश है जो बेसल-स्थित वित्तीय स्थिरता बोर्ड द्वारा जारी ‘वित्तीय संस्थानों के लिए प्रभावी समाधान व्यवस्थाओं के प्रमुख गुण’ का अनुपालन नहीं करता है। आइए पूरी तस्वीर को समझते हैं।
भारत में धीरे-धीरे कंपनियों की विफलता से निपटने की एक संस्थागत क्षमता आकार ले रही है जिसका नाम है ऋणशोधन अक्षमता और दिवालिया संहिता (आईबीसी)। यह धीरे-धीरे कुछ लक्ष्यों की दिशा में बढ़ रही है: (क) कर्जदार द्वारा मामूली चूक पर भी बिना किसी ढिलाई के प्रक्रिया की शुरुआत करना (ख) हानि के आवंटन या वितरण के बारे में स्पष्टता (ग) एक वाणिज्यिक प्रेरणा वाली कर्जदाता समिति जो समाधान और नकदीकरण के बीच निर्णय ले और (घ) गति।
यह ध्यान देने योग्य है कि आईबीसी प्रक्रिया में राज्य की कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं है। यही एक सफल बाजार अर्थव्यवस्था की पहचान है। राष्ट्रीय कंपनी विधि पंचाट (एनसीएलटी) की केवल यही भूमिका है कि वह यह सत्यापित करे कि कोई निर्विवाद चूक हुई है, और यह कि ऋणदाताओं की समिति (सीओसी) का गठन हुआ है तथा उसने सही ढंग से मतदान किया है। इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्या होगा और हानियों का आवंटन कैसे किया जाएगा, क्योंकि यह कानून में लिखा हुआ है।
येस बैंक समाधान की सबसे हानिकारक बात इक्विटी और ऋण के बीच सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत वित्तीय क्रमबद्धता के उल्लंघन में निहित है। सीमित जवाबदेही कंपनी की नींव में यह अवधारणा है कि इक्विटी धारक हानि वहन करने की पहली पंक्ति में होते हैं। वे सबसे अधिक जोखिम उठाते हैं और इसीलिए उन्हें सबसे अधिक संभावित रिटर्न मिलता है। जब कोई बैंक विफल होता है, तो किसी भी ऋण धारक को कोई नुकसान उठाने से पहले इक्विटी मालिक को अपना सारा पैसा गंवाना चाहिए।
येस बैंक मामले में, आरबीआई द्वारा नियुक्त प्रशासक ने एक कदम उठाते हुए, जो अब भी न्यायालय में विचाराधीन है, लगभग 8,415 करोड़ रुपये के एटी1 बॉन्ड्स को शून्य कर दिया। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह राइट डाउन, सामान्य इक्विटी को एक साथ समाप्त किए बिना किया गया। इन घटनाओं ने जो जोखिम पदानुक्रम को उलट दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि ऋण धारक, जो परिभाषा के अनुसार इक्विटी धारकों से ऊंचे क्रम में होते हैं, पूरी तरह नुकसान में रहे जबकि शेयरधारकों ने दावा बनाए रखा।
बाजार को दिया गया संदेश काफी परेशान करने वाला था: भारत में एक समाधान के तहत, वित्त के बुनियादी सिद्धांत बदले जा सकते हैं, और नियामक के पास देनदारी ढांचे को अपनी मर्जी से बदलने का अधिकार है।
वित्तीय बाजारों के लिए स्पष्टता और पहले अनुमान लगा सकने की क्षमता ऑक्सीजन की तरह है। परंतु सुझाया गया हल स्पष्ट नहीं था। येस बैंक के प्रकरण ने एक गहराई से जड़ जमाए संस्थागत संघर्ष को उजागर किया। वह यह कि आरबीआई बैंकिंग क्षेत्र के पर्यवेक्षक और समाधान प्राधिकरण दोनों की भूमिका निभाता है।
आधुनिक नियामकीय शासन का एक मूल सिद्धांत सुझाता है कि नाकामी रोकने के लिए जिम्मेदार संस्था उस विफलता के प्रबंधन के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा सुनिश्चित नहीं किया गया तो विनियमित संस्थानों की कमियों को छिपाने को लेकर हमेशा पूर्वग्रह बना रहेगा।
येस बैंक की विफलता, कम से कम आंशिक रूप से, पर्यवेक्षण की विफलता थी। जब वही संस्था बचाव योजना तैयार करने का कार्य करती है, तो यह प्रक्रिया पूरी तरह निष्पक्ष नहीं रहती और गैर-विवेकाधीन या पर्यवेक्षणीय चूक के लिए पारदर्शी रूप से जवाबदेह होने की संभावना नहीं रहती। जवाबदेही का तकाजा है कि विफलता का प्रबंधन उस एजेंसी से अलग किसी तंत्र के माध्यम से किया जाए जो इसे रोकने में विफल रही है। वित्तीय आर्थिक नीति की इस रणनीतिक समझ को वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) के काम के पूरा होने के बाद से लागू किया गया है।
भविष्य का परिदृश्य इस प्रकार तैयार किया जाना चाहिए: पहला हमें एक अलग वित्तीय समाधान निकाय चाहिए जो बैंकों और बीमा कंपनियों जैसी वित्तीय संस्थाओं की पूर्व नियोजित बंदी पर काम करेगा, जहां असंगठित परिवारों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति होती है। यह निकाय सूक्ष्म-विवेकपूर्ण नियामकों से स्वतंत्र रूप से कार्य करेगा। यह निर्माण खंड वित्तीय समाधान और जमा बीमा (एफआरडीआई) विधेयक, 2017 का सार है। यह नया संगठन जमा सुरक्षा भी प्रदान करेगा, प्रति जमाकर्ता लगभग 5 लाख रुपये तक, ताकि असंगठित परिवारों को वित्तीय संस्था की विफलता से सुरक्षित किया जा सके।
दूसरा घटक है आईबीसी। वित्तीय संस्थाओं की अन्य सभी नाकामियां आईबीसी समाधान का सरल मामला हैं। जैसे ही कोई चूक होती है, कोई भी परिचालन या वित्तीय ऋणदाता आईबीसी प्रक्रिया को आरंभ कर सकेगा। एनसीएलटी यह सत्यापित करे कि कोई चूक हुई है या नहीं, और फिर एक सीओसी यह तय करेगी कि क्या करना है।
(लेखक आइजैक सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी में मानद वरिष्ठ फेलो हैं और पूर्व अफसरशाह हैं। ये उनके निजी विचार हैं)