भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार ऐसे आंकड़े सामने ला रही है जो ज्यादातर वित्त मंत्रियों में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न कर देंगे। राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान के अनुसार वित्त वर्ष 2026 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 7.4 फीसदी रहने का अनुमान है। आधार आंकड़ा 7.1 फीसदी है जो हालात बेहतर रहने पर 8.8 फीसदी तक पहुंच सकता है। मूडीज रेटिंग्स का अनुमान है कि भारत वित्त वर्ष 2026 और 2027 में क्रमशः 6.4 फीसदी और 6.5 फीसदी की वृद्धि दर से दुनिया की सर्वाधिक तेजी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था में से एक होगी। वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर 2.5 से 2.6 फीसदी पर स्थिर रहने और चीन की आर्थिक गति 4.5 फीसदी तक सिमटने के बीच भारत की गति प्रभावशाली दिखती है।
अब जरा सितंबर तिमाही में कंपनियों के वित्तीय नतीजों पर विचार करते हैं। निफ्टी 50 कंपनियों का राजस्व मात्र 7 फीसदी बढ़ा है। कामकाजी मुनाफा 13 फीसदी और शुद्ध मुनाफा केवल 9 फीसदी बढ़ा। दशकों से एक सहज रुझान यह था कि भारतीय कंपनियों का राजस्व जीडीपी की तुलना में 3-4 फीसदी अंक ज्यादा तेजी से बढ़ता रहा है। अब यह रुझान, जो पश्चिमी देशों की कंपनियों के कारोबारी चक्र से आया था, न केवल गड़बड़ हुआ है बल्कि ढह गया है।
व्यापक एनएसई 500 भी लगभग यही तस्वीर पेश करता है क्योंकि इसकी कंपनियों के राजस्व में 7 फीसदी और कामकाजी मुनाफे में 15 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है। केवल निफ्टी माइक्रो कैप 250 कंपनियां ही बिक्री में दोहरे अंकों की वृद्धि (12 फीसदी) दर्ज कर पाई हैं। हालांकि, इनका भी कामकाजी मुनाफा केवल 6 फीसदी बढ़ा। मंद राजस्व और अस्थिर मुनाफा कई तिमाहियों से चलन बन गए हैं। यह स्थिति लगातार तेज और निरंतर जीडीपी वृद्धि के साथ कैसे मेल खाती है?
क्या आप इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के शुल्कों को दोष देने की सोच रहे हैं? सच तो यह है कि भारत का निर्यात क्षेत्र हमेशा से ही पिछड़ा रहा है। शुद्ध निर्यात जीडीपी वृद्धि दर में कोई योगदान नहीं देते हैं। शीर्ष पांच निर्यात समूहों में रत्न एवं आभूषणों का ज्यादातर निर्यात गैर-सूचीबद्ध और छोटी कंपनियों से होता है। पेट्रोलियम निर्यात ज्यादातर यूरोपीय देशों को होता है न कि अमेरिका को। इलेक्ट्रॉनिक्स और दवा क्षेत्रों को हाल में लगाए गए शुल्कों से बख्श दिया गया। इससे अभियांत्रिकी वस्तुएं बची रहीं जहां सूचीबद्ध कंपनियों में केवल कुछ को ही परेशानी पेश आई।
सॉफ्टवेयर सेवाओं को भी कोई नुकसान नहीं हुआ। कमजोर रुपये (तेजी से उभरते बाजारों में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा जो 3.4 फीसदी फिसल चुकी है) से निर्यात को मदद मिलनी चाहिए थी न कि नुकसान पहुंचाना चाहिए था। सूचीबद्ध क्षेत्रों में केवल कुछ अन्य विविध कंपनियां (जैसे जलीय उत्पाद, क्वार्ट्ज स्टोन या स्पेशियलिटी फिल्म) ही शुल्कों से प्रभावित हुईं। जीडीपी और कंपनियों के प्रदर्शन के आपसी जुड़ाव का तार कहीं और जुड़ा हुआ है।
एक संकेत एशियन पेंट्स से मिला जो भारत की सबसे बड़ी पेंट निर्माता कंपनी है। अक्टूबर में इस कंपनी के प्रबंध निदेशक ने कहा था कि भारत की जीडीपी वृद्धि दर और उनकी कंपनी (या पेंट उद्योग) की वृद्धि के बीच का संबंध ‘वास्तव में बहुत बिगड़ गया है’। उन्होंने कहा कि उन्हें ‘बहुत पता नहीं है कि जीडीपी के आंकड़े कैसे आ रहे हैं’। यह टिप्पणी सार्वजनिक होने के एक दिन के भीतर कंपनी ने एक स्पष्टीकरण दिया कि टिप्पणी पेंट उद्योग को लेकर की गई थी। मगर वास्तव में उनका इशारा एक महत्त्वपूर्ण बिंदु की तरफ इशारा कर रहा था।
इसे समझने के लिए आइए यह देखते हैं कि यह जीडीपी वृद्धि में क्या योगदान देता है? भारत में उपभोग-विशेष रूप से अंतिम निजी उपभोग व्यय (पीएफसीई) का आकार काफी बड़ा है, जो जीडीपी का लगभग 61 फीसदी है। अगर पीएफसीई 7 फीसदी बढ़ता है तो जीडीपी वृद्धि में लगभग चार आधार अंक की तेजी तय मानी जाती है। मगर यह घरों की वित्तीय स्थिति को सटीक रूप से दर्शाता है या नहीं यह बहस का विषय है। अधिकांश भारतीयों के लिए वास्तविक वेतन बमुश्किल ही बढ़ा है। फिर भी, पीएफसीई अर्थव्यवस्था का केंद्रीय स्तंभ बना हुआ है।
निवेश अगला बड़ा महत्त्वपूर्ण घटक है। सकल नियत पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) जीडीपी का लगभग 30 फीसदी है। लेकिन हिस्सेदारी काफी अहमियत रखती है। निजी निवेश कुल पूंजीगत व्यय के 33 फीसदी के साथ पिछले एक दशक के निचले स्तर पर बना हुआ है। इस बीच, सरकारी पूंजीगत व्यय कमी की भरपाई करने में जुटा हुआ है। सरकार रक्षा, रेल, राजमार्गों और जल प्रणालियों में स्वयं और सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों द्वारा बड़े स्तर पर निवेश कर रही है। सरकारी खपत जीडीपी में 11-12 फीसदी तक योगदान देती है और मोटे तौर पर व्यापक अर्थव्यवस्था के अनुरूप बढ़ती है। खपत की प्रमुखता वाले जीडीपी, सरकार की अगुवाई में निवेश और सपाट पूंजीगत व्यय को एक साथ लाएं तो तेजी से बढ़ती जीडीपी और कंपनियों की कमजोर आय के बीच विरोधाभास कम होने लगता है।
निवेशक मानते हैं कि तेज जीडीपी वृद्धि स्वतः ही कंपनियों की मजबूत आय के रूप में दिखनी चाहिए। उन्होंने यह नहीं देखा है कि जीडीपी में तेजी कहां से आ रही है। यह निजी उपभोग और सरकारी व्यय के कारण आ रही है। अगर पीएफसीई नॉमिनल रूप से लगभग 6.5 फीसदी बढ़ रहा है तो कंपनियां मोटे तौर पर उसी गति से राजस्व अर्जित करेंगी जैसा कि वे वास्तव में कर रही हैं, खासकर गैर-वित्तीय, उपभोक्ता कंपनियों में। ऐसे में 3-4 फीसदी अधिक राजस्व वृद्धि की उम्मीद करना बिल्कुल अनुचित है। निजी क्षेत्र एक अंक वाली राजस्व वृद्धि से दो अंक में मुनाफा हासिल करने में माहिर है।
जीडीपी वृद्धि दर को निजी क्षेत्र के साथ क्या जोड़ेगा? पहले जीडीपी वृद्धि की संरचना पर बात करते हैं। निजी क्षेत्र से जुड़े जीडीपी के दो सबसे बड़े घटक पीएफसीई और निजी पूंजीगत व्यय हैं। अगर निजी उपभोग तेजी से बढ़ता है और निजी पूंजीगत व्यय में तेजी आती है तो जीडीपी वृद्धि काफी तेज हो जाएगी। निजी उपभोग में तेजी माल एवं सेवा कर (जीएसटी) में कटौती के साथ हो गई। हालांकि, यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा या नहीं यह देखना बाकी है। अफसोस की बात है कि जीडीपी वृद्धि सबसे प्रभावशाली हिस्सा निजी पूंजीगत व्यय टस से मस नहीं हो रहा है। वित्त वर्ष 2022-25 में सरकारी निवेश जीडीपी का औसतन 4.1 फीसदी रहा, जो कोविड पूर्व के 2.8 फीसदी से अधिक है जबकि निजी निवेश की हिस्सेदारी लगभग 2 फीसदी पर अटकी हुई है।
नीति निर्धारक निजी निवेश को एक आपूर्ति पक्ष से जुड़े विषय के रूप में मानते रहते हैं। उनका मानना रहा है कि इस मोर्चे पर चुनौतियों का समाधान सस्ती पूंजी, करों में रियायत और सरकार की अगुवाई में निवेश से किया जा सकता है। इनमें उत्पादन संबंधी प्रोत्साहन (पीएलआई) पर सरकार काफी जोर दे रही है। लेकिन कमजोर मांग असल बाधा है जो दो घरेलू और बाहरी कारकों पर निर्भर करती है। घरेलू मांग कमजोर बनी हुई है क्योंकि ज्यादातर लोगों का वास्तविक वेतन नहीं बढ़ रहा है।
निर्यात मांग बढ़ा सकता है लेकिन भारतीय निर्यात काफी हद तक प्रतिस्पर्द्धी नहीं रह गया है। हमें जीडीपी वृद्धि दर में तेजी पर इतराना बंद कर देना चाहिए। जब तक निजी उपभोग नहीं बढ़ेगा और निजी निवेश में तेजी नहीं आती तब तक बात बनने वाली नहीं है। भारत की जीडीपी वृद्धि दर भले ही प्रभावशाली नजर आए लेकिन कंपनियां और उदयोग, जैसे कि एशियन पेंट्स के प्रबंध निदेशक, इसी बात पर माथापच्ची करते रहेंगे कि आखिर यह तेजी कहां से आ रही है।
(लेखक मनी लाइफ डॉट इन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं)