वित्त वर्ष 28 से 32 के बीच लागू होने जा रहे कॉरपोरेट एवरेज फ्यूल इफीशिएंसी के तीसरे संस्करण (कैफे 3) को लेकर सरकार के मसौदा मानकों ने देश के वाहन उद्योग में बड़ी कारों की तुलना में छोटी कारों को प्रोत्साहन देने की नई बहस छेड़ दी है। मौजूदा विवाद की रूपरेखा ऐसे निहितार्थों से जुड़ी है जो केवल व्यवहार्यता के सवाल से आगे बढ़कर परस्पर विरोधी मुद्दों तक पहुंचती है। मसलन ऑटोमोबाइल बाजार में संरचनात्मक परिवर्तन, शहरी प्रदूषण, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सुरक्षा मानक।
कैफे मानक वित्त वर्ष 2018 से लागू हैं और इनके तहत सभी प्रकार के यात्री वाहन निर्माताओं के लिए बेड़े के आधार पर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया जाता है। इसमें प्रति कार ईंधन खपत में कटौती की बात शामिल होती है। कैफे तीन में इन लक्ष्यों को कठोर बनाया गया है और वाहन निर्माताओं को बेहतर पार्ट और कलपुर्जों के लिए काफी अधिक निवेश करना होगा।
चूंकि बिजली से चलने वाले वाहन यानी ईवी को ‘सुपर क्रेडिट्स’ में गिना जाता है इसलिए ब्यूरो ऑफ एनर्जी इफीशिएंसी, जिसने ये मानक तैयार किए हैं, उसने कार निर्माताओं के लिए एक प्रोत्साहन की व्यवस्था की है ताकि वे कम उत्सर्जन वाले हाइब्रिड वाहनों या शून्य उत्सर्जन वाहनों की ओर बदलाव कर सकें।
विवाद इसलिए पैदा हुआ क्योंकि ये मानक छोटी कारों की तुलना में बड़ी कारों और एसयूवी पर असमान लागत थोपते हैं। विशुद्ध संदर्भों में दोनों प्रकार की कारों के लिए उत्सर्जन मानक में कमी पूर्ण रूप से समान है, लेकिन प्रतिशत के हिसाब से हल्की कारों (900 किलोग्राम तक वजनी) को 27 फीसदी उत्सर्जन घटाना होगा, जबकि 1,500 किलोग्राम वजन वाली कार के लिए यह कमी 22 फीसदी है।
इसे परिणामस्वरूप छोटी कारों, जिनका वजन 909 किलोग्राम से कम है, इंजन अधिकतम 1,200 सीसी क्षमता का है और लंबाई अधिकतम 4,000 मिमी है, उन पर छूट का प्रस्ताव रखा गया है। आश्चर्य नहीं कि इस छूट ने उद्योग को बांट दिया है, क्योंकि एसयूवी और बड़ी कारों के निर्माता इस भेदभाव से असंतुष्ट हैं।
यद्यपि बेहतरीन शहरी यातायात प्रबंधन और अप्रत्यक्ष रूप से शहरी प्रदूषण तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य उद्देश्यों के दृष्टिकोण से यह छूट गलत नहीं मानी जा सकती है। बीते कुछ सालों में करों में कम अंतर और उपभोक्ताओं की बढ़ती समृद्धि के चलते पहली बार कार खरीदने वालों ने कॉम्पैक्ट एसयूवी का रुख किया जिनकी कीमत छोटी कारों के आसपास ही होती है। इसके चलते एक नया उपभोक्ता वर्ग उभरता नजर आ रहा है लेकिन आमतौर पर एसयूवी को सड़कों पर जगह घेरने के लिहाज से भी अधिक अक्षम माना जाता है।
देश की सड़कों पर सीमित संचालन क्षमता वाली और अक्सर केवल एक या दो लोगों द्वारा उपयोग की जाने वाली एसयूवी की बढ़ती भीड़ लगभग हर बड़े और छोटे भारतीय शहर में यातायात जाम का एक प्रमुख कारण रही है। लंबे समय तक ट्रैफिक जाम में फंसी कारों के इंजनों से होने वाला प्रदूषण शहरी वायु गुणवत्ता को खतरनाक रूप से जहरीला बनाने में बड़ा योगदान देता है।
दीवाली से पहले छोटी कारों पर माल एवं सेवा कर (जीएसटी) को 29-31 फीसदी से घटाकर 18 फीसदी कर देने से वर्षों बाद छोटी कारों की बिक्री में मध्यम वृद्धि देखी गई, जो यह संकेत देती है कि उपभोक्ता हैचबैक और सिडान में अनुकूल मूल्य-गुणवत्ता समीकरण देखते हैं। लेकिन ईंधन मानकों को सख्त करने के कारण यदि उनकी कीमतें बढ़ती हैं तो उपभोक्ता फिर से एसयूवी की ओर लौट सकते हैं।
दूसरी ओर, यह आशंका भी है कि वजन-आधारित उत्सर्जन छूट देने से निर्माता उन अतिरिक्त सुरक्षा घटकों से समझौता कर सकते हैं जो वाहन का वजन बढ़ाते हैं। वास्तव में, यह संयोग नहीं है कि भारतीय और वैश्विक सुरक्षा मानकों को पूरा करने वाली कारें अधिकांशतः एसयूवी और उनकी कॉम्पैक्ट श्रेणियां ही होती हैं। भारत के खराब सड़क सुरक्षा रिकॉर्ड को देखते हुए यह निस्संदेह उद्योग नियामकों के लिए विचार करने योग्य बिंदु है।
इसलिए, कैफे 3 के तहत वजन-आधारित छूट देने के बजाय प्रोत्साहनों को इस प्रकार पुनः समायोजित करना चाहिए कि निर्माता इलेक्ट्रिक या हाइब्रिड हैचबैक और सिडान पर ध्यान केंद्रित करें। कई सार्वजनिक नीतिगत उद्देश्यों को हासिल करने का यह बेहतर विकल्प हो सकता है।