आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) के कारण बड़ी संख्या में रोजगार खत्म होने का खतरा भयावह वास्तविकता लग रहा है, खासकर जब आप बड़ी टेक कंपनियों, बैंकिंग, बीमा, उच्च-स्तरीय विनिर्माण और यहां तक कि पर्यटन एवं होटल उद्योगों में छंटनी और नियुक्तियों में मंदी की रफ्तार पर गौर करते हैं। बदलाव की इस तेज गति ने दुनिया को चौंका दिया है। वैसे दुनियाभर में एआई से रोजगार पर खतरे की चर्चा होने से बहुत पहले ही तकनीकी बदलाव, युद्धोत्तर वैश्विक विनिर्माण में उछाल के बाद से ही रोजगार को कम करता रहा है। अंतर यह था कि पहले बदलाव की गति अपेक्षाकृत धीमी थी। यह आईटी क्षेत्र ही था जिसने परिवर्तन की गति को तेज किया।
जिस उद्योग में यह अखबार काम करता है वह इसका एक उदाहरण है। कम से कम एक सदी तक दुनिया भर में अखबारों के पन्ने हॉट मेटल प्रेस में छापे जाते थे, जिसके लिए मेटल स्लग को उल्टा पढ़ने में एक अनूठे स्तर के उप-संपादकीय कौशल की आवश्यकता होती थी। पश्चिमी देशों में यह तकनीक 1960 और 1980 के दशक के बीच धीरे-धीरे समाप्त हो गई (न्यूयॉर्क टाइम्स ने यह बदलाव 1978 में ही किया)। भारत ने 1980 के दशक की शुरुआत से मध्य तक इस चरण में प्रवेश किया, जब हॉट मेटल की जगह ‘कोल्ड प्रेस’ या ‘फोटो-टाइपसेटिंग’ ने ले ली। कंपोजरों द्वारा संचालित पुराने आयरन मॉन्स्टर्स की खटर-पटर की जगह ग्रीन-स्क्रीन वाले कंप्यूटरों की वातानुकूलित सेटिंग और प्रूफ तैयार करने वाले डॉट मैट्रिक्स प्रिंटरों की हल्की-फुल्की आवाज ने ले ली।
इस बदलाव के साथ कुछ नौकरियां भी गईं क्योंकि जो पेज-सेटर कंप्यूटर टाइपिंग नहीं कर पाए उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया (इसके साथ ही कुछ हद तक औद्योगिक अशांति भी हुई)। लेकिन दैनिक रचना प्रक्रिया की बुनियादी बातें कमोबेश बरकरार रहीं। रिपोर्टर अपनी कॉपी को रिसाइकल किए हुए अखबारी कागज पर बड़े-बड़े टाइपराइटरों में लगाते थे, जिन्हें चलाने के लिए ताकत लगानी होती थी। फिर इन्हें अंग्रेजी के ‘एच’ वर्ण की आकृति के डेस्क पर भेजा जाता था, जहां उप-संपादक, वरिष्ठ उप-संपादक और मुख्य उप-संपादक काम करते थे, जो कॉपी का फिर से उन्हीं विशाल टाइपराइटरों पर संपादन या पुनर्लेखन करते थे। संपादित कॉपी फिर कंपोजर के पास जाती और फिर प्रूफ के रूप में प्रूफ रीडर के पास लौटती, जो कभी-कभी अगर रचना की गुणवत्ता मानक के अनुरूप नहीं होती थी तो दूसरे प्रूफ की मांग करता था।
सही की गई प्रतियों को फिर अंधेरे कमरों में ‘गैली’ या ‘पुल’ में बदल दिया जाता था। पेज लेआइट के लिए प्रोसेसिंग उप-संपादकों के अब के समय रहस्यमय प्रतीत होने वाले निर्देशों पर आधारित होती थी-मसलन ‘एस/सी, 11 ईएमएस’ या ‘डी/सी 22 ईएमएस, बीएलडी’ आदि। पेज लेआउट को पुराने समय के रूलर और पेंसिल से आठ-कॉलम ग्राफ पेपर पर तैयार किया जाता था। अपेक्षाकृत नया पेशा ‘पेस्ट-अप’ कार्मिकों का था, जो पेट्रोलियम पदार्थ मिले हुए गोंद के मिश्रण का उपयोग करके अखबार के आकार के कागज पर गैली को काटते और चिपकाते थे, जिसकी सुगंध हल्की नशीली होती थी। इन विशाल पृष्ठों को एक अंधेरे कमरे में भेजा जाता था जहां सफेद कोट पहने कार्मिक उन पर कुछ रसायन लगाते हुए प्रोसेस करते थे। उसके बाद अगले दिन के संस्करण की प्रिटिंग के लिए उन्हें शोर करती मशीनों में भेजा जाता था।
एक दशक से भी कम समय में इस व्यवस्था को उन बदलावों ने खत्म कर दिया जो ज्यादा गहरे और स्थायी थे, लेकिन कम ध्यान आकृष्ट करने वाले थे। पेज-मेकिंग सॉफ्टवेयर ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया, जिससे समाचार कॉपी को नेटवर्क वाले कंप्यूटरों पर लिखा और संपादित किया जा सकता था और सीधे ऑनलाइन पेज ग्रिड में ‘एक्सपोर्ट’ किया जा सकता था, साथ ही ऑनलाइन सॉफ्टवेयर का उपयोग करके तस्वीरों को भी प्रोसेस किया जा सकता था। इस बदलाव ने एक ही झटके में चार तरह की नौकरियां खत्म कर दीं—कंपोजर, प्रूफ-रीडर, पेस्ट-अप मैन और यहां तक कि डार्क-रूम असिस्टेंट जो पन्नों पर चिपकाई गई तस्वीरों को प्रोसेस करते थे। दिलचस्प यह है कि समाचार पत्र व्यवसाय में यह बदलाव बिना किसी खास औद्योगिक अशांति के हुआ, और वह भी ऐसे समय में जब भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कर्मचारी संघ कंप्यूटरीकरण की शुरुआत का विरोध कर रहे थे।
धीरे-धीरे, सॉफ्टवेयर डेस्क प्रोड्यूसर के जीवन पर हावी होता जा रहा है। अगर आप एमएस वर्ड इस्तेमाल करते हैं, तो सॉफ्टवेयर वर्तनी की गलतियों और व्याकरण संबंधी अशुद्धियों को भी रेखांकित कर देता है, जिससे आपकी संपादन और प्रूफ-रीडिंग क्षमता में सुधार होता है। ईमेल सेवाओं में परिष्कृत प्रूफिंग और संपादन सुविधाएं अंतर्निहित होती हैं। ऐसे ही एक उदाहरण में एक ने तो रामलिंग राजू नाम की गलत वर्तनी भी सुधार दी। अब, एआई कॉपी का संपादन और पुनर्लेखन कर सकता है, हालांकि हमेशा सर्वोत्तम परिणामों के साथ नहीं। उदाहरण के लिए, कुत्तों के आश्रयों के बारे में एक लेख को पाठकों के लिए अधिक अनुकूल बनाने के निर्देश में केवल दो जगह हास्यास्पद बदलाव करने पड़े: डॉग ओनर्स यानी कुत्तों के मालिक ‘पालतू माता-पिता’ बन गए थे और पेट्स यानी पालतू जानवर ‘हमारे प्यारे दोस्त’ बन गए।
पत्रकारिता के पेशे पर सबसे ज्यादा असर गूगल और ऑनलाइन मीडिया के उदय का पड़ा है। क्लिपिंग लाइब्रेरी, जहां से संपादक अपना शोध करते थे, गायब हो गई। गूगल का सर्च इंजन निस्संदेह सूचना उद्योग के लिए एक वरदान साबित हुआ है। लेकिन इसी सर्च इंजन पर आधारित डिजिटल विज्ञापन बाजार में इस तकनीकी दिग्गज के व्यापक प्रभुत्व ने विज्ञापन को प्रिंट मीडिया और टीवी जैसे पारंपरिक माध्यमों से दूर कर दिया है। ऑनलाइन मीडिया के इस समवर्ती विस्फोट के कारण, जिसमें बहुत कम निवेश की आवश्यकता होती है, हजारों अखबार बंद हो गए हैं। अकेले अमेरिका में ही लगभग 3,000 अखबार आईटी के दोहरे हमले के कारण बंद हो गए हैं, और परिणामस्वरूप आधे से ज्यादा पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया है। सौभाग्य से, भारत अभी भी इस चलन से अलग है।
हमें बताया जा रहा है कि पत्रकारों के लिए अगला खतरा एआई की समाचार रिपोर्ट, संपादन और कॉलम लिखने की क्षमता से आ सकता है। इसका अभी पूरी तरह से परीक्षण होना बाकी है और शुरुआती प्रयोगों में सत्यापित तथ्यों के बजाय ढेर सारी कल्पनाएं सामने आई हैं। निकट भविष्य में संपादन और पुनर्लेखन का पेशा, जो कभी अखबारी पत्रकारिता की रीढ़ हुआ करता था, कमजोर पड़ सकता है। लेकिन क्या एआई कभी जमीनी स्तर पर या किसी खबर के लिए सत्ता के गलियारों में इंतजार कर रहे किसी संवाददाता की जगह ले पाएगी? आप सोचेंगे ऐसा नहीं होगा, लेकिन ‘संवेदना’ के साथ एआई एक नई ताकत के रूप में उभर रही है, ऐसे में अभी कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता!