इस सप्ताह का हमारा आलेख गौतम अदाणी के बारे में नहीं है। यह भारतीय पूंजीवाद के बारे में है। यह अवसर आजाद भारत के इतिहास में भारतीय पूंजीवाद की सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी है। बल्कि कहें तो सन 1991 के बाद यह पहला मौका है जब उसे इतनी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है। सन 1991 में भारतीय बाजारों का विस्तार और आधुनिकीकरण शुरू होने के बाद समय-समय पर कई चुनौतियां सामने आती रही हैं।
इनमें हर्षद मेहता, केतन पारेख, फेयरग्रोथ तथा अन्य मामले शामिल हैं। इन सभी ने भारतीय बाजारों तथा नए पूंजीवाद के लिए अत्यंत अहम माने जाने वाले आम निवेशकों के सामने खतरा उत्पन्न किया। हर मौके पर संसद में बहस हुई लेकिन उसके बाद निवेशक भी आए और धोखाधड़ी करने वाले जेल भी गए, भले ही कुछ समय के लिए। परंतु उस दौर में और वर्तमान में पांच अहम अंतर हैं:
पांचवीं वजह को सबसे अहम इसलिए मानते हैं कि जब विदेशी हमारी कंपनियों में निवेश करते हैं, जब हमारी कंपनियां विदेशों में सूचीबद्ध होती हैं, जब दुनिया हमारी प्रशंसा करती है, जब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और पोर्टफोलियो विदेशी निवेश के आंकड़े बढ़ते हैं तो हम सब इस बात का जश्न मनाते हैं। लेकिन क्या हम इसके साथ ही नकारात्मक खबरों के लिए भी तैयार रहते हैं?
पहली बात यह कि हमारी सरकार, वित्तीय संस्थान अथवा नियामक बाजार नामक इस शक्तिशाली संस्था को प्रभावित नहीं कर सकते। दूसरा, यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि बाजार में अपेक्षाकृत नए नजर आने वाले खिलाड़ी भी आपके सबसे बड़े समूहों में से एक को पछाड़कर भारी मुनाफा कमा सकते हैं। अच्छी पूंजीवादी व्यवस्था में बाजार का नजरिया राष्ट्रवादी नहीं होता। अगर पैसे का कोई रंग नहीं होता तो उसका कोई देश भी नहीं होता। बाजार के खिलाड़ियों को सबसे अधिक प्यार अपने पैसे से होता है। सारी राष्ट्रीय, राजनीतिक और वैचारिक वफादारियां उसके बाद आती हैं।
इन्हीं वजहों से हम मौजूदा संकट को भारतीय पूंजीवाद की सबसे कठिन परीक्षा कह रहे हैं। इस घटनाक्रम को लेकर बाजार का पहला पूरा सप्ताह बीता है और हम कह सकते हैं कि अब तक तो भारतीय पूंजीवाद इस परीक्षा में सफल रहा है। बल्कि उसे 10 में से 10 अंक मिले हैं।
संकट को करीब दो सप्ताह हो चुके हैं। किसी नियामकीय संस्थान ने बाजार में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया। ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे अदाणी समूह को इस झटके को झेलने में मदद मिले। समूह को उसके हाल पर छोड़ दिया गया। ज्यादा से ज्यादा यही हुआ कि नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) ने समझदारी दिखाते हुए मार्जिन भुगतान बढ़ा दिया ताकि सटोरिया गतिविधियों में इजाफा न हो। भारी अस्थिरता में एनएसई ऐसा ही करता है। अदाणी समूह ने जहां कहा कि यह भारत और उसके संस्थानों को नुकसान पहुंचाने के लिए किया गया विदेशी षडयंत्र है, वहीं सरकार, वित्त मंत्रालय, नियामक तथा सत्ताधारी दल ने इस मामले में मोटे तौर पर खामोशी ही बरती।
अगर देश का सत्ता प्रतिष्ठान जो पांच दशकों का सबसे मजबूत सत्ताधारी दल है वह ऐसी हालत में इस तरह प्रतिक्रिया देता है कि यहां जो भी हो वह बाजार और कॉर्पोरेट के बीच होना चाहिए तो यह भारतीय पूंजीवाद परिपक्व हुआ है। मानो ‘कानून को अपना काम करने दो’ की जगह ‘बाजार को अपना काम करने दो’ नया मंत्र बन गया हो।
इसके उलट सोचिए अगर भारतीय सत्ता तंत्र इतना मजबूत नहीं होता और वह आज वही करता जो वह तब करता जब हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था इतनी विकसित न होती तो क्या होता। तब कारोबार निरस्त किया जाता और लालची तथा अनैतिक शॉर्ट सेलर्स के खिलाफ जांच शुरू की जाती।
ऐसे किसी कदम की आहट भी भारतीय बाजारों और वैश्विक भरोसे को भारी क्षति पहुंचाती जबकि हमारी अर्थव्यवस्था और पूंजीवाद उसी के भरोसे पर आगे बढ़ रहे हैं। कृपया ऐसी बातों को यह कहकर मूर्खतापूर्ण न करार दें कि ऐसा कुछ नहीं होगा। वोडाफोन पर अतीत से प्रभावी कर लगाने के कारण वैश्विक भरोसे को जो नुकसान पहुंचा, उसके जख्म अभी ताजा है।
पूंजीवाद को अपनाने के साथ ही यह सच भी स्वीकारना जरूरी है कि घाटे भी मुनाफे के समान ही कारोबार का हिस्सा हैं। कोई ऐसा कानून नहीं बना सकता कि बाजार सिर्फ मुनाफा ही कमा कर दे। यही वजह है कि म्युचुअल फंड विक्रेता बार-बार चेतावनी दोहराते हैं कि ये उत्पाद बाजार जोखिमों के अधीन हैं। यह भी एक वजह है कि सरकार इक्विटी और इक्विटी म्युचुअल फंड पर सामान्य से कम पूंजीगत लाभ कर वसूलती है।
ऐसे में आम लोगों के लिए सबक यही है कि आपके टी-20 मैच के सीधे प्रसारण के बीच बार-बार यह चेतावनी प्रसारित हो तो चिढ़ें नहीं। घाटा भी मुनाफे की तरह ही बाजार का हिस्सा है। हिंडनबर्ग ने केवल यह बात रेखांकित की है कि अगर आप शॉर्ट सेलर हैं और आपके पास सही जानकारियां हैं तो आप किसी के नुकसान से मुनाफा कमा सकते हैं।
बाजार के इतना ताकतवर होने की वजह यह है, खासकर भारत जैसे विशाल देश में इसके शक्तिशाली होने की वजह यह है कि इसे किसी व्यक्ति से नहीं पहचाना जा सकता बल्कि यह एक विशाल समूह है। जरा विचार कीजिए गोपनीय लोगों की एक भीड़ की जिसने करोड़ों रुपये का निवेश किया हो। आंकड़ों में सुरक्षा है और अपने पैसों से प्यार करने की प्रवृत्ति जो बाजार को संचालित करती है वह इसे और मजबूत बनाती है।
लोग किसी भी ईश्वर को पसंद करें, किसी राजनीतिक दल को वोट दें और दूसरे को नकारें, फुटबॉल को प्यार करें या आईपीएल को लेकिन वे इनमें से किसी भी बात का असर बाजार को लेकर अपने चयन पर नहीं पड़ने देंगे।
यहां इकलौती चीज जो मायने रखती है वह है पैसा। निश्चित रूप से मैं गलत चयन कर सकता हूं लेकिन ऐसा कभी मेरी राजनीति, धर्म या निष्ठाओं की वजह से नहीं होगा। यही वजह है कि पैसा या अर्थ सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष ईश्वर के समान है और बाजार को सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बनाता है।
कम से कम पूंजीवादी दुनिया में तो ऐसा ही है। अगर आप बाजार में हैं, भले ही आप कॉर्पोरेट हैं, कारोबारी समूह हैं, ब्रोकर हैं, बैंकर हैं या सामान्य कारोबारी अथवा निवेशक, और बाजार के बुनियादी कायदों को बहुत अच्छी तरह जानते हैं तो आपको पता होना चाहिए कि आपका कद चाहे जितना हो, बाजार हमेशा आपसे ऊपर रहेगा।
इस दौर में बाजार जीता है लेकिन अभी भी गौतम अदाणी को तय करना है कि वह हारे हैं अथवा नहीं। हार स्वीकार करने का अर्थ होगा बाजार के साथ लड़ाई जारी रहेगी। दूसरा तरीका यह है कि इस झटके को विनम्रता से स्वीकार किया जाए और बाजार में एक बुरा दिन मान लिया जाए। अच्छे और मुनाफा तथा संपत्ति अर्जन वाले कारोबारों पर ध्यान देना चाहिए तथा टूटी-बिखरी चीजों को संवारना चाहिए। इन सबके बीच उम्मीद करनी चाहिए कि बाजार एक बार फिर आपको प्यार करेगा। यही अच्छा पूंजीवाद होगा।