भारत में एक और विशाल बुनियादी ढांचा तैयार हो रहा है, जो अर्थव्यवस्था को उसी तरह बदल कर रख देगा जैसे राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना और नवीकरणीय ऊर्जा से संबंधित कार्यक्रमों ने किया है। नि:संदेह यहां बात हाई-स्पीड रेल के बारे में हो रही है। क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के आधार पर भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अब उन देशों के बराबर है, जिन्होंने अपने यहां कई दशक पहले हाई-स्पीड रेल परियोजनाएं शुरू कर दी थीं। इसके मद्देनजर कहा जा सकता है कि भारत के लिए पारंपरिक रेल से हाई-स्पीड में छलांग लगाने का यह सबसे उपयुक्त समय है।
हाई-स्पीड रेल कार्यक्रम बीते 18 अगस्त के बाद से और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है जब प्रधानमंत्री ने आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के मकसद से एक नया एजेंडा तैयार करने के लिए वित्त, वाणिज्य, रेलवे जैसे विभागों के मंत्रियों और प्रमुख अर्थशास्त्रियों के साथ बैठक की थी। भारत ने बार-बार यह साबित किया है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, स्पष्ट नीतियों और प्रमुख संस्थानों के सहयोग के दम पर विशाल ठोस बुनियादी ढांचा खड़ा करने का सपना साकार हो सकता है। हाई-स्पीड रेल को बुलेट ट्रेन जैसी एकल परियोजना से आगे बढ़कर राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में शुरू किया जाना चाहिए। दशकों से पारंपरिक रेलगाडि़यां देश की जीवनरेखा रही हैं। बड़ी मात्रा में माल ढुलाई के साथ-साथ इनसे प्रतिदिन 2.3 करोड़ से ज्यादा लोग एक से दूसरे स्थान के लिए आवाजाही करते हैं। यात्रियों की आवाजाही पर सरकार 60,466 करोड़ रुपये की सब्सिडी झोंकती है, लेकिन यदि अधिक सुविधाओं के साथ आरामदायक सफर के लिए अधिक पैसा चुकाने को तैयार यात्रियों के लिए हाई-स्पीड रेल चलाई जाए तो इससे सब्सिडी का बोझ कुछ कम हो सकता है।
इसके अलावा रेलवे को विभिन्न शहरों के बीच चलने वाली लक्जरी बसों और बेहद किफायती हवाई सेवाओं से प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा करने के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे। लेकिन, हाई-स्पीड रेल परियोजना के लिए कुछ प्राथमिकताएं तय करनी होंगी, ताकि यह यात्रियों की उम्मीदों पर खरी उतर सके। इसके लिए अलग रेल लाइन होनी चाहिए। यदि इस खास ट्रेन को सामान्य रेल और माल गाड़ी वाले ट्रैक पर ही चलाया गया तो इससे यह अपेक्षत गति नहीं पकड़ पाएगी और इसकी विश्वसनीयता को भी धक्का लगेगा।
भारत को अपनी ब्रॉड-गेज रेललाइनों की विरासत से आगे बढ़कर तेज गति ट्रेनों के लिए स्टैंडर्ड गेज अपनाना होगा, जो वैश्विक मानदंडों के अनुरूप तो है ही, यह आसान टेक्नॉलजी ट्रांसफर, मजबूत वेंडर साझेदारी और निर्बाध अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए पूरे सिस्टम को सक्षम बनाता है। इससे भारत के लिए स्वदेशी हाई-स्पीड रेल प्रौद्योगिकी, उपकरण और रेल डिब्बों के निर्यात के रास्ते भी खुलेंगे। इसके लिए दीर्घकालिक स्तर पर सतत रूप से वित्त हासिल करना बड़ी चुनौती होगी। मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन कॉरिडोर की लागत लगभग 250 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर है, जबकि आज मेट्रो-रेल पर एलिवेटेड और भूमिगत दोनों के लिए औसत रूप से लगभग 500 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर खर्च आता है। फिर भी मेट्रो अपने लिए पैसा जुटाने में सक्षम है, क्योंकि इसमें राज्यों की भी निवेश हिस्सेदारी रहती है। इसी तरह हाई-स्पीड रेल परियोजनाओं को भी अकेले केंद्र सरकार के सहारे आगे बढ़ाने के बजाय संबंधित शहरों और राज्यों को भागीदार बनाना चाहिए।
फिर सवाल आता है रेलवे के नवाचार विकास का, जो रेलवे बोर्ड द्वारा प्रबंधित पदानुक्रम की रूढ़िवादिता के कारण अवरुद्ध किया गया है। इस रूढि़वादिता को पीछे छोड़ते हुए हाई-स्पीड रेल परियोजना को एक हाई-स्पीड रेल कॉरपोरेशन बनाकर अकेले दम खड़ा होने के लिए तैयार करना चाहिए, ताकि इसके आधुनिकीकरण और रेलवे प्रशासन सुधार में कोई अड़चन पैदा न हो। यह तरीका वैसा ही है जैसे नैशनल हाईवे अथॉरिटी ने लोक निर्माण विभाग को किनारे कर दिया है। इसके अलावा, हाई-स्पीड रेल परियोजना को आत्मनिर्भर और विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी उद्यम बनाने के लिए इसका स्वदेशीकरण बहुत जरूरी है। रेल डिब्बों और उपकरणों को स्थानीय स्तर पर बनाने से आयात निर्भरता कम होगी। साथ ही एक मजबूत आपूर्तिकर्ता आधार तैयार होगा। कुल मिलाकर इस महत्त्वपूर्ण रेल परियोजना को औद्योगिक नीति का अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए। साथ ही नया विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र भी विकसित करना होगा, ताकि इसकी लागत कम हो। इंटीग्रल कोच फैक्ट्री और बीईएमएल पहले से ही वंदे भारत डिजाइन पर आधारित स्वदेशी हाई-स्पीड रेल डिब्बे तैयार कर रहे हैं।
हाई-स्पीड रेल की प्रति किलोमीटर क्षमता पारंपरिक रेल की तुलना में पांच गुना अधिक होती है। इस तरह यह नेटवर्क मझोले और छोटे शहरों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और मेट्रो पर भी दबाव कम होगा। इससे न केवल ट्रेन ढांचे में परिवर्तन होता है बल्कि इसके स्टेशन वाले शहरों को भी फायदा होता है। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स और हैम्बर्ग विश्वविद्यालय के शोध में पाया गया कि हाई-स्पीड रेल नेटवर्क से जुड़े शहरों को अन्य शहरों की तुलना में कम से कम 2.7 प्रतिशत अधिक सकल घरेलू उत्पाद का लाभ हुआ है। इसके अलावा यह नए जमाने के हिसाब से कुशल कार्यबल क्षमता बढ़ाने में भी कारगर साबित हो रहा है। नैशनल हाई-स्पीड रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड (एचएसआरसी) ने बुलेट ट्रेन पटरी निर्माण और संचालन एवं रखरखाव में लगे 1,153 कर्मियों को अपनी सूरत इकाई में प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया है।
बताया जा रहा है कि यह अकेली परियोजना निर्माण के दौरान 90,000 नौकरियां, 4,000 प्रत्यक्ष संचालन एवं रखरखाव संबंधी रोजगार तथा 20,000 अप्रत्यक्ष नौकरियां पैदा कर रही है। इसी की तर्ज पर वडोदरा स्थित हाई-स्पीड रेल प्रशिक्षण संस्थान रोलिंग स्टॉक, सिविल वर्क्स, इलेक्ट्रिकल, सिग्नलिंग, टेलीकॉम और ट्रेन ऑपरेशंस जैसे कार्यों के लिए 3,500 कर्मचारियों को प्रशिक्षित कर सकता है। विकास की इन संभावनाओं को पहचानते हुए द इन्फ्राविजन फाउंडेशन ने भारतीय उद्योग परिसंघ के रेल परिवहन एवं उपकरण प्रभाग (सीआईआई-आरटीईडी) के साथ साझेदारी में हाई-स्पीड रेल के भविष्य पर विचार-विमर्श करने के लिए 18 अगस्त को नई दिल्ली में उच्च-स्तरीय गोलमेज सम्मेलन किया। इस मौके पर ‘भारत में हाई-स्पीड रेल कॉरिडोर विकास का मामला’ विषय पर शोध पत्र भी जारी किया गया।
ऐसे कई अध्ययन हैं, जो राजमार्ग विकास कार्यक्रम और नवीकरणीय परियोजना के बल पर नौकरियों समेत अन्य प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ के संदर्भ में आर्थिक विकास को गति देने के प्रयासों का दस्तावेजीकरण करते हैं। देश में अगले 15 वर्ष में औसतन 700 किलोमीटर के 10 कॉरिडोर वाली हाई-स्पीड रेल परियोजना पर आज की लागत के हिसाब से लगभग 20 लाख करोड़ रुपये के निवेश की आवश्यकता होगी। लेकिन इससे अगले डेढ़ दशक में अर्थव्यवस्था को सीधे 60 लाख करोड़ रुपये का फायदा होगा। इससे न केवल आवाजाही तेज होगी बल्कि देश के आर्थिक परिदृश्य को भी नया आकार मिलेगा। यदि राजमार्गों ने सन 2000 के दशक में भारत को एक साथ जोड़ने का काम किया और नवीकरणीय ऊर्जा ने 2010 के दशक में इसे नई उड़ान दी तो हाई-स्पीड रेल विकास गाथा में एक नया और बड़ा अध्याय जोड़ेगी। आखिरकार, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में बढ़ रहे राष्ट्र को गर्व करने के लिए एक आधुनिक रेल प्रणाली तो होनी ही चाहिए।
(लेखक बुनियादी ढांचा विशेषज्ञ हैं। वह द इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक और प्रबंध ट्रस्टी भी हैं। आलेख में वृन्दा सिंह का शोध सहयोग है)