इस सप्ताह की शुरुआत में कर्नाटक की राजनीति में एक निर्णायक मोड़ आया। दो टिप्पणियों ने इसे उजागर किया। मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने सप्ताह की शुरुआत में राज्य का बजट पेश करते हुए कहा, ‘जब मैं पहली बार वित्त मंत्री बना था, तो मुझ पर कटाक्ष किया गया था कि यह कुरुबा भेड़ें भी नहीं गिन सकता। मैंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और 16 बजट पेश किए।’ उन्होंने कहा, ‘मैं 17वां बजट भी पेश करूंगा।’ उनकी टिप्पणी पर राज्य में कांग्रेस नेतृत्व ने सोची-समझी भावशून्यता दिखाने की कोशिश की।
कुछ ही दिन में, उप मुख्यमंत्री और राज्य कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार ने एक रहस्यमयी और चेतावनी भरे अंदाज में एक पहेली पेश कर दी, जब उन्होंने एक पार्टी कार्यक्रम में कहा: ‘मैं (कांग्रेस अध्यक्ष का) पद स्थायी रूप से नहीं संभाल सकता… साढ़े पांच साल हो चुके हैं और मार्च में छह साल हो जाएंगे।’ राज्य सरकार में नेतृत्व परिवर्तन के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने संवाददाताओं को ‘किसी ज्योतिषी से सलाह लेने’ की सलाह दी। और इस तरह, कर्नाटक की तथाकथित ‘नवंबर क्रांति’ की चाह दब गई – धमाके के साथ नहीं, बल्कि एक फुसफुसाहट के साथ।
मामले की पृष्ठभूमि सर्वविदित है। नवंबर में कांग्रेस सरकार ने सत्ता में अपने ढाई साल पूरे किए। बताया गया कि वर्ष 2023 में विधान सभा चुनावों के ठीक बाद राज्य में कांग्रेस के दो सबसे बड़े नेताओं के बीच यह सहमति बनी कि सिद्धरमैया पांच साल के कार्यकाल के पहले आधे समय के लिए मुख्यमंत्री होंगे, उसके बाद डीके शिवकुमार। इस बीच शिवकुमार को उप मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने अनजाने में (हालांकि इसकी संभावना कम ही है) यह कहकर सत्ता-साझाकरण की व्यवस्था को बल प्रदान किया कि शिवकुमार 2024 के लोक सभा चुनावों तक प्रदेश पार्टी अध्यक्ष के रूप में काम करेंगे, जिससे यह संकेत मिला कि उसके बाद उन्हें कोई अन्य पद मिल सकता है।
कर्नाटक में बारी-बारी से मुख्यमंत्री पद की व्यवस्था बहुत कारगर नहीं रही है। वर्ष 2006 में जनता दल-सेक्युलर के नेता एचडी कुमारस्वामी ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने के लिए एक तरह का तख्तापलट कर दिया था, जिसमें भाजपा के 79 विधायकों के मुकाबले उनके पास 45 विधायक थे। उन्होंने 2009 में होने वाले विधान सभा चुनावों से पहले 20-20 महीने के लिए सत्ता साझा करने का एक अनौपचारिक समझौता किया था, लेकिन बाद में वह इस समझौते से मुकर गए। बीएस येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने, लेकिन सिर्फ सात दिन के लिए, क्योंकि कुमारस्वामी ने गठबंधन से समर्थन वापस ले लिया जिससे सरकार गिर गई। यह दो दलों के बीच बारी-बारी से सत्ता परिवर्तन की एक व्यवस्था थी।
नए मामले में शिवकुमार अगर सिद्धरमैया को हटाना भी चाहते, तो वह किसका समर्थन लेते? सिद्धरमैया एक चतुर राजनेता हैं। उन्होंने अनुमान लगाया कि उनके प्रतिद्वंद्वी के पास इसे झेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और दिल्ली में आलाकमान ने इस मामले में यथास्थति ही बनाए रखना बेहतर समझा।
राजस्थान में कांग्रेस के साथ भी यही कहानी दोहराई गई। वर्ष 2018 में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के नेतृत्व में कांग्रेस ने विधान सभा चुनाव जीता, लेकिन अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बन गए। पायलट ने दावा किया था कि चुनाव के समय उन्हें कुछ आश्वासन दिए गए थे। उन्होंने अपनी ही सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर बगावत कर दी और भाजपा की मदद से सरकार बनाकर सत्ता छोड़ने की तैयारी कर ली। पार्टी ने उस संकट को तो टाल दिया, लेकिन वह कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए।
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कर्नाटक में डीके शिवकुमार के लिए दांव ज्यादा अहम हैं। सचिन पायलट अभी 50 साल के नहीं हुए हैं और राजनीति में उनके पास अभी कई साल हैं। शिवकुमार पहले ही 63 साल के हो चुके हैं और अगर कांग्रेस 2028 के विधान सभा चुनावों में सत्ता में वापस नहीं आती है, जैसा कि लगता है, तो उन्हें मुख्यमंत्री बनने के लिए 2033 तक इंतजार करना होगा। तब उनकी उम्र 71 साल होगी। शिवकुमार वोक्कालिगा हैं। वोक्कालिगा मठों के प्रमुखों ने 2023 में मुख्यमंत्री पद के लिए उनका खुलकर समर्थन किया था। लेकिन यह एक अंतहीन इंतजार में बदल गया है और धार्मिक नेता मन ही मन सोच रहे हैं कि उन्होंने शिवकुमार का समर्थन करके कोई गलती तो नहीं की।
सिद्धरमैया की इस घोषणा के साथ कि राज्य का अगला बजट भी वही पेश करेंगे, शिवकुमार ने अपनी चालें चलनी शुरू कर दी हैं। उनके कई वफादार विधायक दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं। शिवकुमार का मानना है कि यही सही समय है क्योंकि बिहार में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी नेतृत्व रक्षात्मक मुद्रा में है। उनके विधायक यह याद दिलाने से कभी नहीं हिचकिचाते कि वह संसाधन के मामले में कांग्रेस के सबसे प्रमुख व्यक्ति हैं। उनके संसाधन जुटाने और संगठनात्मक कौशल के कई उदाहरण हैं। मसलन 2002 में उन्होंने महाराष्ट्र के विधायकों को एक रिसॉर्ट में एकत्र किया ताकि कोई दल-बदल न हो पाए, अन्यथा उस समय कांग्रेस सरकार गिर सकती थी। उसके बाद भी ऐसे कई मौकों पर उनकी भूमिका रही।
इस सप्ताहांत कर्नाटक की कांग्रेस सरकार के राजनीतिक घटनाक्रम में एक नए अध्याय की शुरुआत हो सकती है।