धीमी वेतन वृद्धि आर्थिक वृद्धि और समानता के लिए कठिन चुनौतियां उत्पन्न कर सकती है। हाल में जारी वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण (2023-24) इस चिंता को रेखांकित करता है। इस सर्वेक्षण के अनुसार प्रति फैक्टरी लाभ 7 फीसदी बढ़ा है जबकि प्रति कर्मचारी वेतन केवल 5.5 फीसदी बढ़ा है। पिछले कई वर्षों में फैक्टरियों का मुनाफा कर्मचारियों के वेतन की तुलना में काफी तेजी से बढ़ रहा है। 2024-25 की आर्थिक समीक्षा में भी कमजोर वेतन वृद्धि का जिक्र है, दूसरी तरफ 2023-24 में कंपनियों का मुनाफा 15 साल के उच्च स्तर पर पहुंच गया।
आंकड़ों से पता चलता है कि श्रम उत्पादकता लाभ भी कमजोर हो गया है जिसमें प्रति कर्मचारी उत्पादन में पूर्व के वर्षों की तुलना में 2013-14 के बाद कमजोरी देखी गई है। वहीं, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में औपचारिक विनिर्माण की हिस्सेदारी 2010-11 से लगभग आधी हो गई है जिससे स्थिर, उच्च गुणवत्ता वाली नौकरियों तक पहुंच सीमित हो गई है। धीमी उत्पादकता और सिमटते औपचारिक क्षेत्र के कारण वेतन वृद्धि काफी हद तक प्रभावित हुई है जिससे श्रमिक आय और घरेलू मांग दोनों कमजोर हुई हैं।
हालांकि, यह असमानता केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। विश्व स्तर पर भी वेतन और लाभ के बीच संतुलन का झुकाव पूंजी की ओर हो गया है। तेजी से हो रहे तकनीकी बदलाव से यह विभाजन और गहरा सकता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की विश्व रोजगार एवं सामाजिक परिदृश्य, 2025 में आगाह किया गया है कि लगभग एक-चौथाई श्रमिकों की भूमिका जेनेरेटिव आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी जेनएआई टेक्नॉलजी द्वारा काफी हद तक बदल सकती है। यह तर्क दिया जा रहा है कि अब कार्यबल का हिस्सा बनने वाले युवाओं को महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि शुरुआती स्तर की नौकरियों में स्वचालन के बढ़ते इस्तेमाल से कौशल-विकास और धन संचय सीमित हो जाते हैं जिससे वेतन वृद्धि रुक जाती है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में धन का अंतर बढ़ जाता है।
भारत में श्रम संरक्षण मजबूत करने के पीछे उद्देश्य श्रमिकों की स्थितियों में सुधार करना रहा है। हालांकि, अत्यधिक सख्त कानूनों के कभी-कभी अनचाहे परिणाम सामने आए हैं। शोध से पता चलता है कि सख्त श्रम कानूनों से कंपनियां अनुबंध-आधारित रोजगार की ओर कदम बढ़ा रही हैं जिससे सीधे तौर पर नियुक्त किए जाने वाले औपचारिक श्रमिकों की संख्या कम हो गई है। यह बदलाव विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र में अधिक दिख रहा है जहां 2000 के दशक की शुरुआत से अनुबंध आधारित श्रम का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है। इसका सीधा प्रभाव वेतन पर पड़ा है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि भारत के कार्यबल का केवल एक छोटा हिस्सा ही औपचारिक रोजगार में है।
गोल्डमैन सैक्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्षों से भारत के पूंजी-गहन विनिर्माण उप-क्षेत्रों (जैसे मशीनरी, रसायन, इलेक्ट्रॉनिक्स, दवा) ने कई श्रम-गहन क्षेत्रों (वस्त्र, जूते, भोजन और पेय पदार्थ) की तुलना में निर्यात और रोजगार दोनों में मजबूत वृद्धि दर्ज की है। इससे पता चलता है कि निवेश और निर्यात बढ़ाने से जुड़े प्रयास उन उद्योगों की मदद कर रहे हैं जो अधिक मशीनों और पूंजी का उपयोग करते हैं। इन उद्योगों में काम करने के लिए अक्सर अधिक हुनर की आवश्यकता होती है और उन उद्योगों के मुकाबले वेतन भी अधिक मिलता है जिनमें बड़ी संख्या में कम हुनर वाले श्रमिक काम करते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि सख्त श्रम कानून उन सबसे बड़े कारणों में से एक हैं जिनकी वजह से भारत ने पिछले दशकों में श्रम-गहन उद्योगों में खराब प्रदर्शन किया है। इससे रोजगार के अवसर कम हुए हैं और वेतन एवं समग्र आर्थिक विकास पर भी प्रतिकूल असर हुआ है। नई श्रम संहिता (जिसके लागू होने का इंतजार है) से स्थिति में सुधार होने की उम्मीद है। कम हुनर एवं कम श्रम-गहन क्षेत्रों (जो संभावित रूप से भारत के कार्यबल के एक बड़े हिस्से को अच्छा वेतन प्रदान कर सकते हैं) में रोजगार सृजन के बिना दीर्घ अवधि में उच्च समग्र मांग बनाए रखना मुश्किल होगा। वेतन की तुलना में मुनाफे में लगातार अधिक वृद्धि समस्या और बढ़ा सकती है। निकट भविष्य में इसका कोई आसान समाधान नजर नहीं आ रहा है मगर इन विषयों पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए।