एक पुलिसकर्मी का वायरलेस संदेश 3,000 लोगों की जान बचा सकता था लेकिन उसकी न केवल अनदेखी कर दी गई बल्कि उसे दबा दिया गया। आखिर उस वायरलेस संदेश का सच कैसे सामने आया?
राष्ट्र की बात
असम में 18 फरवरी, 1983 को घटित नेल्ली त्रासदी के करीब तीन महीने बाद ऐसे सबूत उभरे कि राज्य पुलिस के एक अधिकारी ने एक विशिष्ट, लिखित चेतावनी जारी की थी कि लालंग जनजातीय लोगों की सशस्त्र भीड़ मुस्लिम गांवों के आसपास इकठ्ठी हो रही है।
अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में प्रकाशित यह संदेश इंडिया टुडे के 15 मई,1983 के अंक में प्रकाशित हुआ था और इसमें लिखा था: ‘सूचना मिली है कि गत रात आसपास के गांवों के करीब 1,000 असमी घातक हथियारों के साथ नेल्ली में एकत्रित हुए। वे ढोल बजा रहे थे। अल्पसंख्यकों में दहशत है और वे भयभीत हैं कि उन पर किसी भी क्षण हमला हो सकता है। शांति बहाल रखने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।’
इस संदेश पर 15 फरवरी, 1983 की तारीख थी यानी हत्याकांड से तीन दिन पहले। 3,000 लोगों की जान बचा सकने वाली इस चेतावनी की कई जगहों पर सीधी अनदेखी कर दी गई। उनकी बात को तवज्जो ही नहीं दी गई। इसे नगांव पुलिस थाने के स्टेशन हाउस ऑफिसर जहीरुद्दीन अहमद ने कई वरिष्ठ अधिकारियों और नेल्ली के आसपास के थानों को भेजा था।
जैसी कि आपको आशा होगी जब इस मामले को दबाने छिपाने का काम शुरू हुआ तो सबसे पहले इस संचार को ही सात पर्दों में दफन कर दिया गया।
यह ऐसा सबूत था जिसे कभी न कभी सामने आना ही था। हमें इसके बारे में कैसे पता चला और हम इस तक कैसे पहुंचे यह किस्सा मैं बताने जा रहा हूं। हम कुछ ऐसा कर रहे हैं जो पत्रकार प्राय: नहीं करते: दशकों बाद ही सही, सूत्र की पहचान उजागर करना। यहां तक कि वॉटरगेट कांड में बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन के खुलासे में भी तथ्य उजागर करने वाले मार्क फेल्ट का नाम काफी बाद में उजागर हुआ था।
इस मामले में उस व्यक्ति का निधन हुए 38 वर्ष बीत चुके हैं। यह सुराग इसलिए हाथ लगा कि अरुण शौरी के नेतृत्व में इंडिया टुडे ने एक जांच अभियान शुरू किया। मैं इंडियन एक्सप्रेस से विदा लेने की प्रक्रिया में था और अपनी किताब असम: अवैली डिवाइडेड लिख रहा था। अप्रैल के मध्य में शौरी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं ऐसी जांच में शामिल होना चाहूंगा जिसके माध्यम से वह असम के इस हिंसक पखवाड़े की जिम्मेदारी तय करना चाहते थे। इसमें शामिल होने के बदले कुछ नहीं मिलने वाला था, कोई बाइलाइन तक नहीं लेकिन उदार मन के शौरी ने अपने आलेख के आरंभ में मेरे और कूमी कपूर समेत कुछ अन्य लोगों के योगदान को सराहा।
मैंने असम में और खासकर गुवाहाटी में उनके साथ जो तीन सप्ताह बिताए वे इस बात को लेकर एक बड़ा सबक थे कि खोजी पत्रकार के लिए हमारी सरकारी व्यवस्था की प्रक्रियाओं को समझना कितना जरूरी है।
अगर किसी जगह पर कुछ घटित हुआ तो वहां किसी न किसी ने उसे दर्ज जरूर किया होगा। कुछ और नहीं तो कम से कम अपने बचाव में ही सही। जल्दी ही हमने वायरलेस संदेशों, गोपनीय नोट, खुफिया जानकारियों आदि को खंगालना शुरू कर दिया जिन्हें दबाया जा रहा था।
हमने कई दिन बल्कि रातें, राज्य प्रशासन, पुलिस और खुफिया एजेंसियों के वरिष्ठ अधिकारियों से लगातार बातचीत की। शौरी ने भावनात्मक तरीका भी अपनाया और कहा कि इतनी बड़ी तादाद में लोग मारे गए हैं। कभी न कभी किसी को दोषी ठहराया जाएगा और वह आप भी हो सकते हैं। यह तरीका कारगर रहा।
हमने कुछ स्रोतों से सुना था कि कुछ वायरलेस संदेश थे जिनमें खासतौर पर नेल्ली को लेकर चेतावनी दी गई थी। हमें पता नहीं था यह क्या चेतावनी थी? कहां से आई थी और अब किसके पास थी? शौरी की कला ने हमें राहत दी। असम पुलिस की विशेष शाखा के प्रमुख तब समरेंद्र कुमार दास थे जो सन 1955 बैच के आईएएस अधिकारी थे।
असम आंदोलन के नेता उनसे नफरत करते थे और उन्हें सरकार का सबसे बड़ा वफादार मानते थे। शौरी ने सुझाव दिया कि हमें उन पर काम करना चाहिए। मुझे लगा कि यह ठीक नहीं है।
आखिर अगर उनके पास ऐसी गोपनीय जानकारी होगी भी तो वह भला हमें क्यों बताएंगे? दास जिन्हें लोग समर दास के नाम से जानते हैं, उन्हें पूछताछ में महारत हासिल थी लेकिन वह शौरी के दबाव में आ गए जो उनसे कह रहे थे कि खुफिया विभाग का मुखिया होने के नाते उन्हें दोषी ठहराया जाएगा। इस आरोप का दबाव इतना हावी हो गया कि एक रात उन्होंने सच कह दिया। उन्होंने कहा कि हां, नगांव के ओसी ने एक वायरलेस भेजा था।
हमने उनसे याचना तक की कि वे हमें उसकी एक प्रति दे दें। उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया लेकिन अंतत: उन्होंने हमें बताया कि हम उसे कहां पा सकते हैं। उन्होंने कहा कि नगांव पुलिस थाने के एसएचओ जहीरुद्दीन अहमद के पास इसकी प्रति है। उन्होंने बताया कि वह बेहद नाराज और क्रोधित थे। दास का 38 वर्ष पहले 1985 में निधन हो गया। नगांव पुलिस थाने से वह वायरलेस संदेश तलाशने का काम मुझे सौंपा गया।
मैं 2014 के आम चुनाव में असम के दौरे पर था। मैंने नेल्ली में भी ठहरने का सोचा। वहां इंडियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संवाददाता समुद्रगुप्त कश्यप ने मुझे याद दिलाया कि जब बाहर से आने वाले पत्रकार नेल्ली जाते हैं तो असम के लोग क्या सोचते हैं? उन्हें लगता है कि वे पत्रकारीय तीर्थ पर आए हैं। मुझे पता था कि यह चुटकुला मुझ पर ही है लेकिन मेरे लिए यह एक अलग तरह का तीर्थ था। क्योंकि मेरी यादें वहां से जुड़ी थीं। मुझे कुछ लोगों और जगहों को तलाशना था।
समर दास के घर पर हुई बातचीत के अगले दिन मई 1983 की उस शाम मैं नगांव गया था। जब तक मैं पुलिस थाने पहुंचा अंधेरा हो चुका था। ओसी जहीरुद्दीन अहमद वहां नहीं थे लेकिन किसी ने उस बात की पुष्टि कर दी जो दास ने हमसे कही थी। यह भी कि उसी समय वह बहुत धार्मिक हो गए थे और खामोश रहने लगे थे। उन्हें अपराधबोध था कि वह उस भीषण नरसंहार को रोक नहीं पाए।
वह करीब स्थित मस्जिद में ज्यादा पाए जाते थे। मैं वहां गया और पाया कि एक लंबा मौलाना जैसा दिखने वाला व्यक्ति प्रार्थना में झुका हुआ है। मैं बगल में बैठकर प्रतीक्षा करने लगा। नजरें मिलने पर मैंने अपने आने की वजह बताई। मुझे याद नहीं कि उनकी आंखें पहले से नम थीं या मेरी बातें सुनने के बाद वे भर आईं। उन्होंने मुझसे कहा, ‘बेटा, मैं पुलिस की गोपनीयता कभी भंग नहीं करूंगा। लेकिन तुमने मस्जिद में यह सवाल किया है और 3,500 मुसलमानों की मौत के लिए किसी को तो दंडित किया ही जाना चाहिए, इसलिए मेरे साथ आओ।’
वह पुलिस थाने में मेरे पास वापस आए और अपनी लॉग बुक खोली। याद कीजिए वह 1983 था और नगांव में फोटोकॉपी की कोई दुकान नहीं थी। लॉग बुक को बाहर ले जाने देने की कोई संभावना नहीं थी। मैंने साधारण से लेंस वाले अपने मिनोल्टा कैमरे से पूरी दो रील इस्तेमाल करके उसकी तस्वीरें उतारीं। अरुण शौरी की खबर के साथ वही तस्वीरें इंडिया टुडे के कवर पर छपीं। अहमद का करीब दो दशक पहले निधन हो गया। मुझे बताया गया कि उनका बेटा एक कॉलेज में पढ़ाता है। उनकी कहानी नायकत्व की कहानी थी, न कि धोखे की। यह कहा ही जाना चाहिए।
नेल्ली की नई मस्जिद के मौलवी मोहम्मद नूर इस्लाम (59 वर्ष) ने मुझे बताया कि कैसे उन्होंने अपनी मां की हत्या होते हुए देखी थी। उनकी कहानी भी मजबूती और वापसी की कहानी है। उनके छह बच्चों में से दो चेन्नई और केरल में काम करते हैं। उनकी सबसे बड़ी बेटी शिमोगा से इस्लामिक अध्ययन में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही है। अन्य बच्चे भी पढ़ रहे हैं जिनमें दो बेटियां जूनियर कॉलेज में विज्ञान की पढ़ाई कर रही हैं।
उन्होंने कहा कि 1983 में जो हुआ वह राजनीति थी। वह असमी बोलते हैं लेकिन वह मूल रूप से बंगाली हैं। उनके पुरखे बांग्लादेश के मेमनसिंह के रहने वाले थे। मेमनसिंह के लोग लगभग एक सदी तक जमीन को लेकर अपनी भूख और अवैध प्रवासन के लिए बदनाम रहे हैं। सन 1931 में ब्रिटिश जनगणना अधिकारी सी एस मुलेन ने कहा था, ‘कंकाल चाहे किसी का भी हो, गिद्ध वहां इकठ्ठे होंगे ही, अगर कहीं भी खाली जमीन है तो मेमनसिंह वाले वहां जरूर पहुंचेंगे।’ विदेशी विरोधी आंदोलन के लिए यह प्रेरणा बना।
आज नेल्ली में उन्हीं मेमनसिंह वालों ने अपने जीवन को नए सिरे से संवारा है और उनके बच्चे भी उन लालंग जनजातीय लोगों के बच्चों से बेहतर स्थिति में हैं जो उस रात तलवारें लेकर आए थे और ऐसा नरसंहार किया जिसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। इतना ही नहीं उसके लिए किसी को दंडित भी नहीं किया गया।