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लोकतंत्र में धैर्य और उसका महत्त्व: श्रीलंका, नेपाल, भारत ने अस्थिरता से कैसे पाई जीत, बांग्लादेश और पाकिस्तान क्यों रहे असफल

श्रीलंका में बदलाव का सहजता से प्रबंधन किया गया। इसका विपरीत परिदृश्य बांग्लादेश में देखा जा सकता है। बांग्लादेश में गैर राजनीतिक लोगों की एक अनिर्वाचित सरकार स्थापित कर दी गई

Last Updated- September 22, 2024 | 9:17 PM IST
Democracy

श्रीलंका में सीमित ढंग से कराए जा रहे चुनाव में वहां के लोग एक नए राष्ट्रपति का चुनाव कर रहे हैं और यह उपयुक्त अवसर है कि हम खुद को यह याद दिलाएं कि महज दो वर्ष पहले वहां जिस तरह की घटनाएं घटी थीं, उसके बाद वहां के लोगों ने कितने परिपक्व और शांतिपूर्ण तरीके से हालात का प्रबंधन किया है। वे अपनी मुख्यधारा की राजनीति के तीन जाने-पहचाने चेहरों के बीच चयन कर रहे हैं और देश में कोई अस्थिरता नहीं है।

यहां एक अत्यंत महत्वपूर्ण सबक निहित है: कई बार देश और समाज उथल-पुथल से गुजरते हैं। इसके परिणामस्वरूप कुछ देश खुद को नष्ट कर लेते हैं तो कुछ और बदलाव, अस्थिरता के चक्र से ही जूझते रहते हैं। जो देश बच जाते हैं और शायद अधिक मजबूत बनकर उभरते हैं उन्हें उनके लोकतांत्रिक धैर्य के लिए सराहा जाना चाहिए जो अक्सर नहीं होता। लोकतांत्रिक धैर्य क्या है और यह कैसे काम करता है?

पहले बात करते हैं श्रीलंका की। जुलाई 2022 में दुनिया ने चकित होकर वे तस्वीरें देखीं जिनमें प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति भवन को लूट रहे थे, वहां से स्मृति चिह्न बटोर रहे थे, स्विमिंग पूल में तैर रहे थे और रील्स बना रहे थे। सरकार हट चुकी थी लेकिन इसके बाद भी ऐसा निर्वात नहीं निर्मित हुआ जहां प्रदर्शनकारी, छात्र नेता, स्वयंसेवी संगठन या दोहरे पासपोर्ट धारक लोग घुसपैठ कर सकें। इसके विपरीत बांग्लादेश के हालात देखिए। उन्होंने अपने शासक को निर्वासित होने पर विवश किया। स्वयंसेवी संगठनों, छात्रों, टेक्नोक्रेट्स और इस्लामिस्ट की एक अनिर्वाचित सरकार ने जगह ले ली। अब वे विदेशों में रह रहे विद्वानों को आमंत्रित कर रहे हैं ताकि देश का नया संविधान लिखा जा सके।

सेना के सभी कमीशंड अधिकारियों को मजिस्ट्रेट की शक्तियां दे दी गई हैं और इस प्रकार औपचारिक रूप से शासन में सेना को शामिल कर लिया गया है। इसे पाकिस्तान का हल्का संस्करण कह सकते हैं।

दोनों पड़ोसियों में एक जैसी उथल-पुथल हुई। कैसे एक देश सहजता से बदलाव का प्रबंधन करने में कामयाब रहा जबकि दूसरे ने ऐसा कोई प्रयास भी नहीं किया। इसमें नेपाल को भी शामिल कर लेते हैं। एक जनांदोलन और सशस्त्र माओवादी उपद्रव की बदौलत वहां राजशाही का अंत हुआ। तब से अब तक 16 वर्ष के लोकतांत्रिक शासन में देश में आठ प्रधानमंत्रियों ने 16 छोटे-छोटे कार्यकाल निभाए हैं। परंतु वे अपने लोकतंत्र को बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं। उनके पास लोकतांत्रिक धैर्य है।

अगर आपके पास इतना धैर्य नहीं होता है तो आप शॉर्ट कट की तलाश करते हैं। बांग्लादेश को देखिए। श्रीलंका का बदलाव सहज रहा और वहां जाने पहचाने राजनीतिक चेहरे देखने को मिले। उनमें 75 वर्षीय रनिल विक्रमसिंघे भी शामिल थे जो मौजूदा पदधारी और उम्मीदवार हैं। श्रीलंका ने किसी को बाहर से आयात नहीं किया। न तो किसी पड़ोसी को और न ही किसी वैश्विक फाउंडेशन को जिसे उम्मीद हो कि वह तीसरी दुनिया के गरीब देशों को लोकतांत्रिक बना सकता है। यही वजह है कि विक्रमसिंघे जीतें या हारें, हमारी दलील मजबूत ही होगी।

अपनी राजनीति और स्थिति को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने उस समय पद संभाला जब निर्वात का संकट मंडरा रहा था। अब यह लोगों पर है कि वे अपना नया राष्ट्रपति चुनें और वह इसे स्वीकार करेंगे। वह 28 की आयु में मंत्री बन गए थे और कई बार प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रह चुके हैं। 2022 में प्रदर्शनकारी बदलाव चाहते थे। अगर विक्रमसिंघे किसी चीज का प्रतिनिधित्व करते हैं तो वह है निरंतरता। उन्हें एक विश्वसनीय विकल्प माना गया क्योंकि वह लोकतांत्रिक हैं।

अब सवाल पर वापस आते हैं: कुछ देश ऐसी उथल-पुथल का प्रबंधन कैसे कर लेते हैं जबकि अन्य देश नहीं कर पाते? हम दो दशक से भी पहले जाकर पूर्व सोवियत संघ यानी जॉर्जिया, किर्गीजस्तान, युगोस्लाविया और यहां तक कि यूक्रेन की ‘रंग क्रांति’ की बात करते हैं। उसे रंग क्रांति इसलिए कहा गया क्योंकि प्रदर्शनकारी हर देश के हो रहे प्रदर्शनों को रेखांकित करते हुए खास रंग की कमीज पहनते थे। इसके बाद अरब उभार और तहरीर चौक का आंदोलन सामने आया। हर एक का अंत बहुत त्रासद रहा। या तो एक नई तानाशाही का आगमन हुआ या फिर युगोस्लाविया की तरह देश का विभाजन हो गया। गूगल पर नई दिल्ली, 2011, रामलीला मैदान, तहरीर चौक सर्च कीजिए। गूगल आपको बताएगा कि ऐसे भी चतुर लोग हैं जिन्होंने अन्ना आंदोलन को ‘भारत का तहरीर चौक’ करार दिया था।

ऐसा लग रहा था कि हर कोई बदलाव चाहता था, एक नई व्यवस्था और हालांकि कहा नहीं गया लेकिन शायद लोग एक नया संविधान भी चाहते थे। यह कहा जा रहा था कि हमें व्यवस्था को बदलना चाहिए। आखिरकार चुनाव के जरिये सरकार बदली गई। भारत तहरीर चौक जैसी किसी घटना से बच गया। उस आंदोलन का ईंधन था राजनीति यथास्थिति को लेकर लोगों की नाराजगी। अन्ना हजारे के मंच से अभिनेता ओम पुरी ने कहा था कि लोकतंत्र के कारण ‘अनपढ़ और गंवार’ लोग सत्ता में आ गए हैं। इस राजनीति को बदलकर चतुर, शिक्षित लोगों, नोबेल विजेताओं और मैगसेसे विजेताओं को सत्ता में आना चाहिए, ऐसी भावना थी। लग रहा था मानो बस बहुत हो चुका।

मध्य वर्ग और उच्च वर्ग दोनों साथ थे और उनके साथ तमाम उदारवादी, वामपंथी, दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी, अराजक वर्ग और मीडिया का अधिकांश वर्ग उनके साथ था। खासतौर पर समाचार प्रसारित करने वाले टेलीविजन चैनल। ऐसे टीआरपी प्रदान करने वाले अवसर का लाभ तो उन्हें उठाना ही था। मीडिया जगत के कुछ सितारों ने अन्ना के मंच से भी अपनी बात कही। कुछ ने सेना के नेतृत्व से साथ देने का आह्वान किया। 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने के लिए जयप्रकाश नारायण के अपेक्षाकृत निरापद आह्वान का सहारा लिया था जिसमें उन्होंने सैन्य और पुलिस बलों से कहा था कि वे ‘विधि विरुद्ध’ आदेशों को न मानें।

मनमोहन सिंह इंदिरा नहीं थे। हम उस तबाही से बच सके, इसके तीन कारण थे। उस समय चाहे जैसी भी हवा रही हो लेकिन हर व्यक्ति बदलाव नहीं चाहता था। टीवी चैनल, स्वयंसेवी संगठन, फिल्मी कलाकार और सितारा एंकर आदि पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते। भारत की व्यवस्था उन करीब डेढ़ अरब लोगों पर निर्भर है जो उस पर यकीन रखते हैं। यही कारण है कि सैन्य या असैन्य प्रतिष्ठान के किसी व्यक्ति ने आंदोलन में शिरकत नहीं की।

दूसरी वजह यह रही कि राजनीतिक वर्ग ने संघर्ष किया। अगर इसे समझना हो तो 25 अगस्त 2011 को जन लोकपाल विधेयक पर लोक सभा के सत्र की वीडियो रिकॉर्डिंग देखिए। जैसा कि मैंने उस वक्त दर्ज किया था, स्वर्गीय शरद यादव ने कहा था ‘इससे पहले कि आप इस व्यवस्था को खारिज करें, याद रखिए कि गांधी और आम्बेडकर की समझदारी नहीं होती तो मेरे जैसे लोगों को तो दिल्ली में अपने पालतू पशु चराने तक का मौका भी नहीं मिलता।’

उन्होंने कहा कि यह सदन इकलौती ऐसी जगह है जहां आप पूरे देश के चेहरे देख सकते हैं। जहां दलितों को समान अवसर है और घुरऊ राम, गरीब राम और पकौड़ी लाल जैसे नामों वाले लोग सांसद हैं। एक पकौड़ी लाल या गरीब राम देश की जनता का प्रतिनिधत्व करने के मामले में किसी भी नोबेल विजेता से कहीं अधिक सक्षम हैं। भारत में तहरीर चौक जैसी स्थिति न बनने की यह तीसरी वजह थी।

भारत इससे मजबूत होकर उभरा क्योंकि उसके सबसे गरीब लोगों में भी लोकतांत्रिक धैर्य था। ठीक वैसे ही जैसे नेपाल और श्रीलंका के लोगों में। अमेरिका में कैपिटल हिल पर कब्जे की कोशिश के साथ 2020 के चुनाव परिणामों को बदलने की डॉनल्ड ट्रंप की कोशिशों को जिस प्रकार खारिज किया गया वह भी इसका उदाहरण है।

बांग्लादेश के लोगों ने इसके विपरीत काम किया। वहां अनिर्वाचित केयरटेकर बिना राजनेताओं के एक नया संविधान बनाना चाहते हैं और उसके बाद चुनाव करवाना चाहते हैं। यह ठीक पाकिस्तान की शैली है। लगता तो यही है परिणाम बहुत अच्छे नहीं होंगे। अगर आप शोर शराबा और अराजकता नहीं झेल सकते तो आप लोकतंत्र के लायक नहीं हैं।

First Published - September 22, 2024 | 9:16 PM IST

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