असम में दशकों पहले जो हुआ, उसके बारे में हम आज क्यों लिख रहे हैं? वह भी इस नियमित स्तंभ में दो आलेखों की श्रृंखला के रूप में? अपने अनुभव और दूसरे मसौदे की शैली में यदाकदा लिखने की शुरुआत मैंने 2013 के मध्य में सुजीत सरकार की फिल्म मद्रास कैफे से प्रेरित होकर की थी। फिल्म श्रीलंका में आतंकवाद के दौर पर केंद्रित है जिसकी परिणति राजीव गांधी की हत्या के रूप में सामने आई। उस वर्ष भारत के स्वतंत्रता दिवस पर मुझे सालाना श्रीलंका भारत सोसाइटी लेक्चर के लिए आमंत्रित किया गया था।
मैंने उसी समय यह फिल्म देखी थी और इसने मुझे अवसर दिया कि मैं उन जगहों, लोगों और पलों को दोबारा याद कर सकूं जिनसे मेरा 1984 से 1994 तक के एक दशक के दौरान वास्ता रहा था जब मैंने श्रीलंका संकट की रिपोर्टिंग की थी। इसका परिणाम तीन आलेखों की श्रृंखला के रूप में सामने आया।
उसके बाद अन्य श्रृंखलाएं भी आईं, पंजाब पर भी तीन आलेख आए। भविष्य में किसी किताब में इनके बारे में विस्तार से पढ़ने को मिल सकता है। तब तक मैं समय-समय पर ऐसे आलेखों के माध्यम से कुछ जानकारी सामने लाता रहूंगा, खासतौर पर तब जब कुछ ऐसा होगा जो उन बड़ी खबरों की याद दिलाए जिन्हें मैंने बतौर संवाददाता कवर किया हो। मैं इन खबरों का साक्षी था और अब समय बदलने के साथ मेरे पास अवसर है कि मैं उनका दूसरा मसौदा लिखूं। यही कारण है कि मैं इस आलेख को अपने अनुभव और दूसरे मसौदे के रूप में लिख रहा हूं।
असम के बारे में यह श्रृंखला लिखने का विचार दो सप्ताह पहले नई दिल्ली के लोधी एस्टेट विद्युत शवदाहगृह में मित्रों की एक छोटी सी मुलाकात के बाद आया। हम 1966 बैच के आईएएस अधिकारी विनय कोहली के अंतिम संस्कार के लिए एकत्रित हुए जो असम और मेघालय कैडर के थे। वहां कई अन्य लोग थे जिनसे मैं कई वर्षों और दशकों बाद मिल रहा
था। वहां सन 1964 बैच के मदन पी बेजबरुआ भी थे जो सन 1980 के दशक में असम के गृह सचिव थे। वहां 1979 बैच के अपेक्षाकृत युवा जितेश खोसला और अनूप ठाकुर भी सपत्नीक मौजूद थे। बेजबरुआ की तरह ही ये दोनों अधिकारी भी केंद्र सरकार के सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए थे।
मैं उन्हें युवा इसलिए कहता हूं क्योंकि पूर्वोत्तर के उस दौर में वे और मैं युवा ही थे। जब मैं उनसे पहली बार मिला तो वह दोनों की पहली नियुक्ति थी। वे क्रमश: गोलाघाट और मंगलदोई में सब डिविजनल अधिकारी थे। मैं वहां की समस्याओं की रिपोर्टिंग के लिए गया था। उसी पखवाड़े जब इंदिरा गांधी ने असम में ऐसा चुनाव थोपने की घोषणा की जो कोई नहीं चाहता था। वहां इतनी मुसीबतें थीं कि आपको उनकी तलाश में निकलना नहीं होता था, वे ही हमेशा आपका पीछा करती थीं। फिर चाहे आप पत्रकार हों या अधिकारी। उस सुबह अंतिम संस्कार के समय तमाम यादें मेरे जेहन में ताजा हो गईं।
द प्रिंट के मेरे सहयोगी प्रवीण स्वामी ने याद दिलाया कि इस फरवरी का पहला पखवाड़ा असम के उस सबसे हिंसक दौर की याद दिलाएगा जब करीब 7,000 लोग मारे गए थे। सरकारी अनुमान इसके आधे का था। इस सिलसिले की पहली कड़ी इस बात पर है कि चुनाव प्रचार अभियान के दौरान कैसे हिंसा ने आकार लिया। अगले सप्ताह शनिवार को नेल्ली नरसंहार की 40वीं बरसी होगी।
अगले आलेख में हम बात करेंगे कि कैसे हममें से कुछ लोग जो तब अरुण शौरी के साथ काम करते थे, का सामना अक्षमता, उपेक्षा, लीपापोती और मिलीभगत के ऐसे घटनाक्रम से हुआ जिसकी परिणति उस पखवाड़े हुए हत्याकांड के रूप में सामने आई। इनमें से कुछ घटनाएं सन 1983-84 में आई मेरी पुस्तक असम: अ वैली डिवाइडेड से ली गई हैं जो अब मुद्रण से बाहर हो चुकी है।
अब पीछे मुड़कर देखने पर पर जैसा कि मैंने कहा एक बात उभरकर आती है कि उस समय की पुलिस लापरवाह, भटकी हुई, असंवेदनशील और अपराधों मे लिप्त थी। तब मुझे नगांव जिले में शुरुआती हिंसा की याद आती है। नेल्ली भी वहीं स्थित है। नेल्ली के एक सप्ताह पहले एक कनिष्ठ अधिकारी ने कहा था, ‘काश, दारांग की तरह नगांव का गुब्बारा भी जल्दी फट जाता। अब अगर चुनाव के दौरान ऐसा हुआ तो सैकड़ों लाशें गिननी होंगी।’ उनकी बातें भविष्यवाणी साबित हुईं।
भ्रम के उस दौर में अधिकांश लोगों ने नेल्ली से 15 किलोमीटर दूर नगांव जिले के ही जागीरोड में होने वाली घटनाओं की अनदेखी की। नगांव असम का सर्वाधिक जनजातीय पहचान वाला जिला है। कछारियों के खिलाफ जीत के बाद अहोम शासकों ने उनके कुछ वंशजों को नगांव में रहने की इजाजत दी थी। लालंग समुदाय को इसका लाभ मिला जो कछारियों और अहोम दोनों के दास थे। वे ब्रह्मपुत्र घाटी के इस सबसे उर्वरक इलाके में तब तक आजादी से रहे जब तक कि 20वीं सदी के परिवर्तन के समय बंगाली मुसलमानों का आगमन नहीं हुआ। जमीन की लड़ाई में सबसे अधिक नुकसान लालंग समुदाय (2011 की जनगणना के मुताबिक आबादी 3.71 लाख) को उठाना पड़ा।
बाद में ब्रिटिश शासकों ने एक व्यवस्था लाकर आदिवासी भूमि को छिनने से रोकने का प्रयास किया। इसके तहत घुसपैठ की संभावना वाले इलाकों में कई जगह काल्पनिक रेखाएं खींचीं गईं। बंगाल से आकर बसने वालों के लिए उस रेखा का उल्लंघन मना था लेकिन वे हमेशा दूसरी ओर रहने वाले पिछड़े आदिवासियों के शोषण में कामयाब रहते। आदिवासी पीछे हटते गए। नगांव हिंसा का सरसरी विश्लेषण भी बताता है कि आज भी यही रेखा दोनों समूहों को अलग करती है।
इस बीच होजाई कस्बे में और उसके आसपास तनाव बढ़ने लगा। यह कस्बा खुशबूदार अगर के कारोबारियों के लिए जाना जाता था जिसे बर्मा से तस्करी करके लाया जाता था। बदरुद्दीन अजमल, जिन्हें असम का असदुद्दीन ओवैसी कहा जा सकता है, वह यहीं से आते हैं। वह भी खुशबू के कारोबारी हैं। बाद में यह बात नेल्ली नरसंहार की एक वजह बनी क्योंकि प्रशासन का ध्यान संवेदनशील माने जाने वाले होजाई पर केंद्रित था। वहां कर्फ्यू लगा था और पुलिस जिले के पश्चिमी इलाकों की अनदेखी कर बैठी। इस बीच घटनाक्रम तेजी से बढ़ा।
इसके बाद प्रवासी मुस्लिमों ने लालंग परिवार के पांच सदस्यों को अगवा कर लिया। उनके शव अगले दिन मिले और बात फैल गई कि उनमें से दो युवतियों का सामूहिक बलात्कार किया गया। आदिवासियों की बदले की कार्रवाई में पास के नागबंध गांव में 20 मुस्लिम मारे गए। लालंग राजाओं ने एक चाय बागान में बैठक की। इस दरबार में क्या निर्णय लिए गए इसे लेकर अलग-अलग बातें कही जाती हैं। कुछ पढ़े लिखे लालंग ने मुझे बताया कि लालंग राजाओं ने तय किया कि वे हर मारे गए आदिवासी के बदले कम से कम 700 जानें लेंगे।
यह चकित करता है कि हिंदु शैव आदिवासी माने जाने वाले लालंग अचानक खून की प्यासी भीड़ में बदल गए। इससे पहले ऐसा अवसर 1861 में आया था जब उन्होंने एक ब्रिटिश अधिकारी को मार दिया था क्योंकि वह उन्हें अफीम की खेती करने से रोक रहा था। उस समय अफीम ही उनकी आजीविका का मुख्य साधन था।
पुलिस पूरी तरह निष्प्रभावी साबित हुई थी। उसका ध्यान उस पर ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारे पर था जहां वन क्षेत्रों में हत्याएं और दंगे हो रहे थे। वहां तथ्यों को कल्पना से अलग करना मुश्किल था। कई बार मृतक एक दर्जन से 1,290 हो जाते तो कई बार 120 के मारे जाने की खबर में वास्तव में चार भी नहीं मरे होते थे। गोहपुर, चालखोवा चापोरी आदि जगहों ने हमारा ध्यान खोइराबाड़ी से हटा दिया जहां नेल्ली के बाद का दूसरा बड़ा हत्याकांड हुआ।
हत्याओं के दो सप्ताह बाद भी मैंने मैदानों में पड़े शवों पर गिद्धों को मंडराते हुए देखा। जब हम 3 मार्च को उस जगह पहुंचे तो घायल हुए लोग डर के मारे छिपे हुए थे। फरवरी के उस माहौल को और कैसे सामने रखा जाए। हर किसी को, हर किसी से खतरा था। डर और घृणा के इस मिश्रण ने 7,000 जानें ले लीं।