अगर आप वादा करें कि जवाब तलाशने में गूगल की मदद नहीं लेंगे तो मैं आपसे एक प्रश्न करूंगा। कृपया मुझे बताइए कि बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के संदर्भ में आपने नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के अलावा और कौन सा नाम सुना है? पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र महा सभा से इतर अमेरिका से लेकर यूरोप तक तमाम पश्चिमी देशों के उदारवादी नेताओं ने यूनुस की सराहना की।
अब दूसरा सवाल। ऐसा क्यों है कि उपमहाद्वीप के अन्य पड़ोसी देशों में लोकतंत्र इतना कमजोर रहा है? इसका स्वत: स्फूर्त जवाब होगा- इस्लाम। कहा जाएगा कि इस्लाम और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते। हालांकि आज के माहौल में इसी जवाब की उम्मीद की जा सकती है लेकिन यह तथ्यों की जांच में सही साबित नहीं होता।
सुदूर पूर्व की ओर देखें तो इंडोनेशिया में ही यह दलील विफल हो जाती है जो दुनिया का सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला देश है। मलेशिया में भी शांतिपूर्ण ढंग से चुनावी परिवर्तन हुए, भले ही चुनावों में महातिर मोहम्मद को चुना गया। पश्चिम की ओर देखें तो तुर्किये में रेचेप तैय्यप एर्दोआन उदार लोकतांत्रिक नेता नहीं हैं। उन्हें महातिर का कई गुना बड़ा संस्करण ही माना जा सकता है। परंतु उन्हें भी चुनावों का सामना करना पड़ता है और हमने कभी नहीं कहा कि लोकतंत्र कमियों से रहित होता है।
इंडोनेशिया और तुर्किये आबादी के मिश्रण के हिसाब से उतने ही इस्लामिक हैं जितने कि पाकिस्तान और बांग्लादेश। इससे यह विचार ध्वस्त हो जाता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश की यह स्थिति इसलिए है कि इस्लाम और लोकतंत्र में तालमेल नहीं है।
मैं बात करता हूं एक और देश म्यांमार की। वहां इस्लाम नहीं है। अगर वहां कुछ हुआ है तो यह कि अधिकांश मुस्लिम आबादी यानी रोहिंग्या का दमन किया है और उन्हें निकाल बाहर किया है। वह पूरी तरह बौद्ध देश है। वहां ज्यादातर तानाशाहों का शासन रहा है और मिलिट्री जुंटा यानी सैन्य शासन है। फरवरी 2021 में उन्होंने एक हद तक लोकतांत्रिक मानी जाने वाली और नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू ची को भी गिरफ्तार कर लिया। म्यांमार में लोकतंत्र नहीं होने के लिए इस्लाम को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। तब किसे दोषी ठहराया जाए, बौद्ध मत को?
परंतु हम अपने पड़ोस पर नजर रखते हुए इस तर्क को भी खारिज कर सकते हैं। श्रीलंका मुख्य रूप से बौद्ध बहुल देश है। परंतु उसका धार्मिक समुदाय प्राय: हिंसक, नस्लवादी और कम उदारवादी रहा है।
भारतीय उपमहाद्वीप में हम यह भूल गए हैं कि जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के मूल आतंकी अवतार के दौरान श्रीलंका में क्या हुआ। इसी पार्टी के नेता अब नए नाम के साये में सत्ता में आए हैं। हिंसक दौर में बौद्ध भिक्षुओं ने न केवल संप्रदाय आधारित और निशाना बनाकर की गई हत्याओं को स्वीकार किया, बल्कि उन्हें प्रोत्साहन भी दिया। ऐसे में यह विचार भी सही नहीं है कि लोकतंत्र के लिए बौद्ध धर्म अच्छा है लेकिन इस्लाम बुरा। इस्लाम या किसी अन्य आस्था से इतर इस्लाम के लिए कुछ और चीजें हैं जो बुरी हैं।
यहां मैं आपको पहले प्रश्न का उत्तर देना चाहूंगा: बांग्लादेश में बदलाव के बाद आपने यूनुस के अलावा कौन सा नाम सबसे अधिक सुना? वह नाम है जनरल वकार उज्जमां। उन्हें हसीना ने निर्वासित होने से कुछ सप्ताह पहले यानी 23 जून को सेना प्रमुख बनाया था।
उन्होंने इस सप्ताह के आरंभ में रॉयटर्स से बातचीत में हमें वह बताया जो यूनुस ने नहीं बताया यानी अगले चुनाव की समय-सीमा और वह अवधि जब नया अंतरिम प्रशासन सत्ता संभाल लेगा। यह अवधि 12 से 18 महीने की है। याद रहे कि वर्तमान व्यवस्था अनिर्वाचित है और वह बिना संविधान के शासन कर रही है। इसका नेतृत्व एक ऐसा व्यक्ति कर रहा है जिसके पास कोई राजनीतिक या कार्यपालिक पद नहीं है। यूनुस को मुख्य सलाहकार कहा जा रहा है। कम से कम हाल फिलहाल में तो यह नहीं सुना गया कि 17 करोड़ की आबादी वाला कोई देश मुख्य सलाहकार द्वारा चलाया जा रहा हो।
जनरल परवेज मुशर्रफ ने 1999 में नवाज शरीफ को सत्ता से बाहर करने के बाद यह कोशिश की थी खुद को राष्ट्रपति कहलाने से बचने के लिए उन्होंने ‘मुख्य कार्यकारी’ का पदनाम चुना था। वह पद भी कम से कम मुख्य सलाहकार से तो ठीक ही था। हालांकि वह ज्यादा समय तक सैन्य वर्दी में नहीं रहे। आगरा शिखर बैठक के बहाने उन्होंने खुद को राष्ट्रपति बना लिया। आखिर कोई मुख्य कार्यकारी भारत के प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में पाकिस्तान का प्रतिनिधि कैसे हो सकता था।
मेरा कहने का आशय यह नहीं है कि यूनुस भी अपना पद बदल लेंगे या फिर यह जनरल सत्ता हथिया लेंगे। अब सैन्य अधिकारियों के लिए सत्ता संभालना बहुत असहज करने वाला बन चुका है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में उन्होंने यह दिखाया है कि पर्दे के पीछे से कैसे नेतृत्व किया जाता है।
अब तक तो जनरल जमां आश्वस्त करने वाली बातें कर रहे हैं। उन्होंने रॉयटर्स के देवज्योत घोषाल और रूमा पाल से कहा, ‘मैं हर हाल में यूनुस के पीछे खड़ा रहूंगा। ताकि वे अपना मिशन पूरा कर सकें।’ उन्होंने न्यायपालिका, पुलिस और वित्तीय संस्थानों में जरूरी सुधार का वादा किया ताकि निष्पक्ष चुनाव कराए जा सकें। उन्होंने कहा, ‘अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा कि 12 से 18 महीने की समय सीमा होनी चाहिए। इस अवधि में हमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में प्रवेश कर लेना चाहिए।’ उनकी कही बातें महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि ये सब कौन कह रहा है?
अब हम वापस शुरुआत की बात करते हैं। इंडोनेशिया, मलेशिया, तुर्किये और श्रीलंका क्रमश: इस्लाम और बौद्ध धर्म के बावजूद संवैधानिक, लोकतांत्रिक और स्थिर कैसे बने रहे जबकि पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार नहीं बने रह सके? किसी देश में लोकतंत्र को खतरा केवल आस्था से नहीं होता है बल्कि आस्था और सेना का मेल खतरा पैदा करता है। अगर सेना को एक ऐसे संस्थान के रूप में महत्ता दी जाएगी जिसका सम्मान होना चाहिए और धर्म उसे पवित्र बनाएगा तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे नतीजे होंगे। अगर सेना की मंजूरी नहीं होती तो ढाका में यह बदलाव नहीं होता। जब तक सेना हां न कहे वहां संविधान और चुनाव के जरिये लोकतांत्रिक व्यवस्था की वापसी नहीं होगी।
इस माह के आरंभ में बांग्लादेश में मोहम्मद अली जिन्ना की बरसी मनाई गई। यह एक दुर्लभ अवसर था। ढाका नैशनल प्रेस क्लब में आयोजित इस समारोह में पाकिस्तान के उप उच्चायुक्त भी शामिल हुए। वक्ताओं ने बताया कि क्यों बांग्लादेश में जिन्ना को याद किया जाना चाहिए। अगर उन्होंने द्विराष्ट्र सिद्धांत नहीं दिया होता तो बांग्लादेश कैसे बनता?
बीते तमाम दशकों में दलील यह रहती आई है कि पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों ने अलग होकर जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को ही ध्वस्त कर दिया। अब जिन्ना को नए ढंग से स्थापित किया जा रहा है। बड़ी बात यह है कि अगर धर्म आपकी राष्ट्रीय विचारधारा के इतना करीब है और सेना को सीमााओं की रक्षा करने वाला इकलौता संस्थान माना जा रहा है तो संविधान का दर्जा खुद कमजोर हो जाता है। म्यांमार में बौद्ध सेना की अतियों को वैधता दे रहे हैं।
1971 के बाद अब तक के 53 साल के इतिहास में बांग्लदेश ने उतनी ही नई संवैधानिक व्यवस्थाएं और सैन्य शासक देख लिए जितने कि पाकिस्तान ने। सैन्य-असैन्य सभी सरकारों ने संविधान से छेड़खानी की। अब सड़कों पर चुनी गई अनौपचारिक शासन व्यवस्था नया संविधान बनाएगी। चुनौतियां सभी लोकतंत्रों के सामने आती हैं।
भारत में भी ऐसा हुआ जब आपातकाल में इंदिरा गांधी ने लगभग संविधान का पुनर्लेखन कर दिया। परंतु जब उनके उत्तराधिकारियों ने खराब बदलावों को हटाया तो इंदिरा की पार्टी ने उनका साथ दिया। आज भारत को समाजवादी और पंथनिरपेक्ष बताने वाली प्रस्तावना को प्रगतिशील माना जाएगा। यह इसलिए हो सका क्योंकि किसी धार्मिक शक्ति ने इन बदलावों को वैधता नहीं दी और न ही किसी सेना ने इसका समर्थन किया।
यही वजह है कि मेरे पीछे आप भी दोहरा सकते हैं: अपने आप में कोई धर्म लोकतंत्र का शत्रु नहीं है। जब हम धर्म को अपने राष्ट्रीय विचार के केंद्र में रखते हैं और सेना को अपनी शक्ति के केंद्र में, तब समस्या पैदा हो सकती है।