प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के पहले भारत ने जिन उद्देश्यों को हासिल करने की सूची तैयार की होगी, उनमें राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाले नए अमेरिकी प्रशासन के साथ सार्थक भागीदारी की बात अहम रही होगी। यकीनन ट्रंप जब अमेरिका में मोदी का स्वागत कर रहे थे उसी समय उनके उपराष्ट्रपति म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन में भाषण दे रहे थे। उनके भाषण ने ऐसी कई बातों को प्रभावी रूप से सामने रखा जिनमें नई सरकार यूरोप के अपने सहयोगियों से असहमत थी। मोदी की यात्रा ने यह संदेश देने का प्रयास किया होगा कि दिक्कत कर रहे यूरोपीय देशों के उलट भारत, ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में आकार ले रहे अमेरिका के लिए कहीं अधिक बेहतर साझेदार है। भारतीय अधिकारी जिस सकारात्मक माहौल की उम्मीद कर रहे थे वह यात्रा के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में काफी हद तक नजर आया। वक्तव्य में व्यापारिक मुद्दों को लेकर अधिक सहयोगात्मक रुख नजर आया जो नए राष्ट्रपति के वक्तव्यों से अलग है। इसमें व्यापार समझौते पर भी योजना पेश की गई। इस दिशा में पहली बार 2020 में चर्चा हुई थी। बीते चार सालों में द्विपक्षीय रिश्तों में कारोबारी चिंताओं को जिस तरह कम तरजीह दी गई, इसे एक अहम कदम के रूप में देखा जा सकता है।
इसके बावजूद हमें यह समझना होगा कि एक नेता के रूप में राष्ट्र्रपति ट्रंप के बारे में कुछ भी सुनिश्चित तरीके से नहीं कहा जा सकता है। तथ्य यह है कि यात्रा के दौरान ही ट्रंप ने भारत को व्यापारिक मामलों में दुनिया का सबसे अधिक उल्लंघन करने वाला देश बताया और वादा किया कि अमेरिका का टैरिफ ढांचा ‘प्रत्युत्तर’ वाला होगा। यह स्पष्ट नहीं है कि इस बात से ट्रंप का तात्पर्य क्या था। खास तौर पर यह देखते हुए कि उनके कुछ वक्तव्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि मूल्य वर्धित करों के लिए समान हालात पैदा करने के उद्देश्य से लगाए गए शुल्क पर भी ‘पारस्परिक’ टैरिफ लगाया जाएगा। ऐसे में अधिकारियों के लिए उस स्थिति में समझौते पर पहुंचना मुश्किल होगा क्योंकि जिस राजनीतिक नेतृत्व को वे प्रसन्न करना चाह रहे हैं, व्यापारिक निष्पक्षता पर उसका नजरिया एकदम अलग है।
अन्य संयुक्त वक्तव्यों का परीक्षण भी इसी आधार पर किया जाना चाहिए। यद्यपि स्पष्ट रूप से सहयोग के लिए नए रास्ते बनाने और महत्वपूर्ण खनिजों से लेकर रक्षा तक पुराने क्षेत्रों का विस्तार करने के प्रयास किए गए हैं लेकिन तथ्य यह है कि अमेरिका को अब एक अविश्वसनीय साझेदार के रूप में देखा जाना चाहिए। यह बात किसी भी व्यक्तिगत कदम के महत्व को कम करती है और कुछ मामलों में तो सवाल यह भी है कि भारत कितनी जल्दी अमेरिकी पेशकश का लाभ ले पाने में कामयाब हो सकेगा। उदाहरण के लिए बजट में यह वादा किया गया है देश में परमाणु देनदारी व्यवस्था को बदला जाएगा ताकि इस क्षेत्र में निवेश आ सके। ऐसे संशोधनों की समयसीमा और गुणवत्ता के बारे में कभी कुछ ठीक से पता नहीं होता।
अमेरिका की पांचवी पीढ़ी के लड़ाकू विमानों संबंधी नीति की समीक्षा करने और उनका भारत को निर्यात करने की सुर्खियां बटोरने वाली बात ऐसी ही है। अगर ऐसा बदलाव हो भी जाता है, तो यह तय कर पाना आसान नहीं होगा कि भारत कितनी जल्दी नए हथियार प्लेटफॉर्म के लिए बजट से अरबों की राशि की व्यवस्था कर सकेगा। ट्रंप के नए प्रशासन के साथ सहयोग की सबसे तेज और प्रभावी बात ऊर्जा सुरक्षा के क्षेत्र में होगी जिसके बारे में दोनों नेताओं ने हाइड्रोकार्बन के उत्पादन पर सहमति जताई। यह एक अहम कदम था। भारत को आसान उपायों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिससे अमेरिका के नए प्रशासन को सहज रियायतें दिलाई जा सकें। इससे दोनों देशों के बीच विश्वास मजबूत होगा।