सेवा क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख वाहक है। इस क्षेत्र में करीब 18.8 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है और यह सकल मूल्यवर्धन (जीवीए) में करीब 55 फीसदी का योगदान करता है। इस क्षेत्र के रोजगार के रुझानों और जीवीए से संबंधित नीति आयोग की दो रिपोर्ट बताती हैं कि सेवा क्षेत्र के सुर्खियों वाले आंकड़ों से परे इसमें विरोधाभास की एक कहानी भी छिपी हुई है। बीते छह साल में इस क्षेत्र में 4 करोड़ रोजगार जुड़े और यह निर्माण क्षेत्र के साथ देश में सबसे अधिक कामगारों की खपत वाला क्षेत्र बनकर उभरा।
हालांकि कोविड के बाद इस क्षेत्र की रोजगार प्रत्यास्थता (जो दर्शाती है कि आर्थिक वृद्धि किस हद तक नौकरियों में परिवर्तित होती है) तेजी से बढ़कर 0.63 हो गई है। इसके बावजूद यह पुनरुद्धार विरोधाभासी वास्तविकताओं को छिपाए हुए है। सूचना प्रौद्योगिकी (प्रत्यास्थता 0.88), वित्त (प्रत्यास्थता 0.95), स्वास्थ्य देखभाल (प्रत्यास्थता 0.94) और परिवहन (प्रत्यास्थता 0.89) जैसे उच्च-मूल्य वाले क्षेत्र डिजिटलीकरण, प्लेटफॉर्म आधारित अर्थव्यवस्थाओं और वैश्विक मांग के कारण फल-फूल रहे हैं। लेकिन ये उप-क्षेत्र कामकाजी वर्ग के केवल एक छोटे हिस्से को ही रोजगार प्रदान करते हैं।
इसके विपरीत, व्यापार, शिक्षा और व्यक्तिगत सेवाएं जो पारंपरिक रूप से रोजगार की स्तंभ रही हैं, श्रम-प्रधान तो बनी हुई हैं, लेकिन इनमें नौकरियां देने की क्षमता कमजोर होती जा रही है। दूरसंचार (0.79 ऋणात्मक) और बीमा (1.31 ऋणात्मक) जैसे उप-क्षेत्रों में लगातार ऋणात्मक प्रत्यास्थता दर्ज की गई है, जो यह दर्शाता है कि इन क्षेत्रों में पूंजी-प्रधान विकास हो रहा है, जो नौकरियां उत्पन्न करने के बजाय उन्हें प्रतिस्थापित कर रहा है।
वृद्धि और रोजगार की यह असंगति ही भारतीय सेवा उद्योग की कहानी को परिभाषित करती नजर आ रही है। आधुनिक सेवाएं पूंजी गहनता वाली हैं। इनकी उत्पादकता अधिक है लेकिन इनमें सीमित रोजगार तैयार होते हैं। पारंपरिक सेवाएं श्रम-प्रधान हैं लेकिन कम मूल्य वाली हैं और आजीविका को बनाए रखती हैं। इसका नतीजा एक विशाल नदारद ‘मध्यम वर्ग’ के रूप में निकलता है। यानी उच्च वर्ग की वैश्विक रूप से जुड़ी नौकरियों और करोड़ों अनौपचारिक सेवा आधारित आजीविकाओं के बीच एक अंतर जिनमें स्थिरता या सामाजिक सुरक्षा का अभाव है।
सेवा क्षेत्र के लगभग 87 फीसदी कामगार औपचारिक सुरक्षा तंत्र से बाहर हैं, और शिक्षित लोगों में भी अनौपचारिकता बनी हुई है। लैंगिक यानी स्त्री-पुरुष का अंतर भी उतना ही चौंकाने वाला है। ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 10.5 फीसदी महिलाएं सेवा क्षेत्र में कार्यरत हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 60 फीसदी है। ग्रामीण महिलाएं प्रतिदिन केवल लगभग 213 रुपये कमाती हैं, जो पुरुषों के पगार का आधा भी नहीं है।
हालांकि, सूचना प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसे कुछ क्षेत्रों में महिलाएं आमतौर पर पुरुषों से अधिक कमाती हैं। यह भारत के श्रम बाजार में समानता का एक दुर्लभ उदाहरण है। भू-राजनीतिक रूप से भारत का सेवा क्षेत्र देश की व्यापक आर्थिक असमानता को ही दर्शाता है। कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और तमिलनाडु उच्च मूल्य वाली सेवाओं मसलन सूचना प्रौद्योगिकी, वित्त और अचल संपत्ति में दबदबा रखते हैं। बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश पारंपरिक कम उत्पादकता वाली गतिविधियों मसलन खुदरा और व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय हैं। शोध से यह पता चलता है कि किसी राज्य की सेवा क्षेत्र की गहनता और प्रति व्यक्ति आय के बीच एक मजबूत संबंध है। यानी जितना अधिक कोई राज्य आधुनिक सेवाओं पर निर्भर करता है, वह उतना ही समृद्ध होता है। सकारात्मक बात यह है कि पिछड़ते राज्यों में अब सेवा क्षेत्र में तेजी से वृद्धि के शुरुआती संकेत दिख रहे हैं, भले ही यह समानता पूरी तरह नहीं आई हो।
ये आंकड़े स्पष्ट रूप से इस बात पर जोर देते हैं कि इस क्षेत्र में अगले चरण का ढांचागत बदलाव रोजगार आधारित होना चाहिए। इस संबंध में कई नीतियां प्रस्तावित हैं। इनमें सेवा क्षेत्र के उपक्रमों को संगठित स्वरूप प्रदान करना और गिग कर्मियों तथा छोटे एवं मझोले उपक्रमों से जुड़े लोगों का संरक्षण आवश्यक है। इतना ही नहीं महिलाओं और ग्रामीण क्षेत्रों के डिजिटल कौशल में निवेश करना, तकनीक और हरित कौशल को प्रशिक्षण में शामिल करना और छोटे एवं मझोले शहरों को नए सेवा क्षेत्र केंद्रों के रूप में विकसित करना आदि भी अहम कदम हैं।
सरकार द्वारा अगले वर्ष की शुरुआत में सेवा क्षेत्र उद्यमों का वार्षिक सर्वेक्षण शुरू करने की योजना भी एक महत्त्वपूर्ण मोड़ को दर्शाती है। आतिथ्य उद्योग, लॉजिस्टिक्स से लेकर फिनटेक तक सभी क्षेत्रों को कवर करने वाले सूक्ष्म स्तर के उद्यम डेटा तक पहुंच इस क्षेत्र की ओर बढ़ते ध्यान तथा बड़े पैमाने पर रोजगार तैयार करने में इसकी भूमिका को बढ़ाने का संकेत देते हैं।