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इक्विटी सबसे दीर्घावधि ऐसेट क्लास, इसे दीर्घकालिक दृष्टिकोण की जरूरत : देसाई

देसाई ने चेताया कि बुलिश होने का अर्थ यह नहीं है कि बाजार हर साल पॉजिटिव रिटर्न देगा बल्कि निवेशकों को लंबे अरसे का सोचकर ही शेयरों में निवेश करना चाहिए।

Last Updated- October 31, 2025 | 11:20 PM IST
Ridham desai

मॉर्गन स्टैनली के प्रबंध निदेशक व चीफ इंडिया इक्विटी स्ट्रैटजिस्ट रिधम देसाई ने एके भट्टाचार्य के साथ बातचीत में कहा कि भारत की आर्थिक स्थिति बेहतर है। यही वजह है कि भारत को लेकर उनका नजरिया तेजी का है। उन्होंने चेताया कि बुलिश होने का अर्थ यह नहीं है कि बाजार हर साल पॉजिटिव रिटर्न देगा बल्कि निवेशकों को लंबे अरसे का सोचकर ही शेयरों में निवेश करना चाहिए। पेश हैं संपादित अंश : 

आपको ‘इंडिया बुल’ (भारत का तेजड़िया) कहा जाता है। मुझे सवाल को पलट कर पूछने दीजिए: क्या आप कभी भारत पर ‘बेयरिश’ (मंदड़िया) रहे हैं? कब और किन परिस्थितियों में?

मैंने जनवरी 2007 में रिपोर्ट ‘स्केटिंग ऑन थिन आइस’ (बर्फ की पतली चादर पर स्केटिंग करना) रिपोर्ट लिखी थी। इसमें मैंने भविष्यवाणी की थी कि सेंसेक्स लगभग 15,000 से गिरकर 11,000 के आसपास आ जाएगा। मैं समय से काफी आगे था। इस वर्ष में बाजार उछलकर 22,000 तक पहुंच गया था। फिर 2008 के अंत में गिरकर 11,000 पर आ गया था। लिहाजा मेरा अनुमान थोड़ा जल्दी था। मैं वर्ष 2007 में वास्तव में आईपीओ की लगातार भूख, बढ़ी हुई बाजार वैल्यूएशन और बढ़ी हुई आमदनी को लेकर चिंतित था। जीडीपी में लाभ हिस्सेदारी चरम पर थी, यह संकेत देते हुए कि मार्जिन ऊपर जा रहे थे। मेरा मानना था कि आमदनी की वृद्धि धीमी हो जाएगी, आईपीओ की अधिकता तकनीकी चुनौतियां पैदा करेगी और वैल्यूएशन में सुधार होगा। हालांकि, वैश्विक बुल मार्केट ने इसे जनवरी 2008 तक टाल दिया, जब अंततः गिरावट आई। मैं तब बेयरिश (मंदड़िया) था।

तो आप कब बुलिश (तेजड़िया) हुए?

मुझे 2013 में कुछ चिंताएं थीं लेकिन यह संक्षिप्त चक्र था। मैं 2014 से तेजड़िया रहा हूं। यह मेरे बुलिश रहने का 11वां वर्ष है। इसका मतलब यह नहीं है कि बाजार हर साल पॉजिटिव रिटर्न देगा। मैं अक्सर लोगों को याद दिलाता हूं कि इक्विटी सबसे लंबी अवधि की एसेट क्लास है और इसके लिए दीर्घकालिक नजरिये की जरूरत होती है। इक्विटी में फिक्स्ड डिपाजिट या बॉन्ड के विपरीत न्यूनतम पांच साल का नजरिया आवश्यक है। यदि आप इसके लिए प्रतिबद्ध नहीं हो सकते हैं तो तीन साल बिल्कुल कम से कम हैं। इक्विटी 12 महीनों से अधिक? तो मेरी शुभकामनाएं ।

बेयरिश (मंदड़िया) होने से लेकर दीर्घकालिक बुलिश (तेजड़िया) दृष्टिकोण बनाए रखने तक क्या बदला है? कौन से वृहद कारक इस रचनात्मक नजरिये को आधार प्रदान करते हैं?

भारत में एक मौलिक बदलाव हुआ है, जिसे अक्सर गलत समझा जाता है। यह हमारी बचत घाटे या चालू खाते के घाटे से संबंधित है – बचत और निवेश दरों के बीच का अंतर। ऐतिहासिक रूप से भारत में बचत दर की तुलना में निवेश दर अधिक थी, जिसके कारण चालू खाते का घाटा 2.5 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तक था। ऐसा काफी हद तक इसलिए था क्योंकि भारत के पास निर्यात करने के लिए बहुत कम था और यह ऊर्जा, विशेष रूप से तेल के आयात पर बहुत अधिक निर्भर था।

चालू खाते के घाटे को मुख्य रूप से कैपिटल मार्केट के प्रवाह से फंड किया जाता था, मुख्य रूप से इक्विटी से। दरअसल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) सीमित था।

उस समय भारत में विनिर्माण इकाइयों को स्थापित करना जटिल था। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अधिग्रहण को प्राथमिकता दी। इक्विटी मार्केट का प्रवाह उतार-चढ़ाव वाला था और अक्सर वैश्विक मंदी के दौरान उलट जाते थे। इससे भारत में जोखिम बढ़ जाता था।

वर्ष 2008 में उदाहरण के तौर पर भारत सीधे वैश्विक वित्तीय संकट से प्रभावित नहीं था। हमारे बैंक स्थिर थे और भारतीय रिजर्व बैंक ने पहले से ही नीतियों में कड़ा रुख अपना लिया था। फिर भी हम उस वर्ष दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला बाजार थे। इसका कारण यह था कि वैश्विक पूंजी मार्केट के फ्लो प्रवाह तब सूख गए जब भारत को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता थी। इस बीच जुलाई 2008 में तेल की कीमतें 148 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गईं जिससे 140 अरब डॉलर के आयात बिल के साथ दबाव बढ़ गया – यह जीडीपी का 14 प्रतिशत था। यह किसी भी देश को अस्थिर कर सकता है।

इसके बाद भारत में नाटकीय रूप से बदलाव आया है – यह ऐसा तथ्य है जिसे सरकार भी शायद ही कभी उजागर करती है। हमारी तेल निर्भरता लगभग 60 प्रतिशत तक कम हो गई है। भारत ने पिछले 12 महीनों में 4 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था पर 1.7 अरब बैरल तेल का आयात किया। यहां तक कि अगर तेल की कीमतें वापस 140 डॉलर तक बढ़ जाती हैं तो भी आयात बिल जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत होगा, जो बहुत अधिक प्रबंधनीय है।

दूसरी ओर कोविड-19 से अच्छी बात यह है कि ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर ( जीसीसी ) का उदय हुआ है। वैश्विक स्तर पर रिमोट वर्क स्वीकार किए जाने के साथ एमएनसी के सीईओ को लगा कि फ्लोरिडा के बजाय मुंबई से काम करना लागत के नजरिये से बेहतर है। इससे सेवाओं के निर्यात में उछाल आया है। जीसीसी का निर्यात पिछले साल 70 अरब डॉलर तक पहुंच गया और अगले 4-5 वर्षों में दोगुना होने की उम्मीद है।

इन बदलावों से भारत का चालू खाते का घाटा जीडीपी का लगभग 0.5% तक कम हो गया है – लगभग 20 अरब डॉलर, जो वैश्विक स्तर पर बहुत कम है। हम अस्थिर वैश्विक इक्विटी के प्रवाह पर कम निर्भर हो गए हैं और यह स्थिर एफडीआई के लिए अधिक आकर्षक हैं।

2015 से एक और महत्त्वपूर्ण बदलाव भारत का फ्लेक्सिबल इन्फ्लेशन टारगेटिंग में माइग्रेशन है। इसके परिणामस्वरूप वैश्विक स्तर पर सबसे कम इन्फ्लेशन वोलेटिलिटी हुई है। इससे ब्याज दर में उतार-चढ़ाव कम हो जाता है और वृद्धि के मामले में उतार चढ़ाव बढ़ जाती है – जो स्टॉक मार्केट के लिए अच्छा है। इक्विटी के लिए डिस्काउंट रेट कम रियल रेट के कारण गिर सकता है, जिससे भारत का इक्विटी वैल्यूएशन आकर्षक हो जाता है। घरेलू निवेशक जो इन मूल कारकों को बेहतर ढंग से समझते हैं, उन्होंने अपने पोर्टफोलियो में इक्विटी की हिस्सेदारी 2015 में 3 प्रतिशत से बढ़ाकर आज लगभग 7.5 से 8 प्रतिशत कर दी है। यह यूरोप के 15 प्रतिशत और अमेरिका के 40 प्रतिशत की तुलना में 20 प्रतिशत की ओर बढ़ने की संभावना है। यह भारत की इकॉनमी और मार्केट में एक वास्तविक ढांचागत बदलाव को दर्शाता है।
इसने वैश्विक पूंजी मार्केट पर निर्भरता को कम कर दिया है। इस कम निर्भरता ने भारत के मार्केट बीटा को 2013 में 1.3 से घटाकर 0.4 कर दिया है, जिससे यह एक डिफेंसिव मार्केट बन गया है।

First Published - October 31, 2025 | 11:07 PM IST

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