अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने इस सप्ताह संपन्न हुई अपनी बैठक में नीतिगत रुख में बदलाव किया है। फेडरल रिजर्व के दोबारा नियुक्त गवर्नर जेरोम पॉवेल ने कहा कि अमेरिकी केंद्रीय बैंक अब बॉन्ड खरीदारी कम करने की प्रक्रिया में और तेजी लाएगा। पॉवेल ने यह भी संकेत दिया कि बैंक की दर निर्धारण समिति की बैठक में पहली बार इस बात पर भी बहस हुई कि केंद्रीय बैंक कैसे और कब अपने बहीखाते (खरीदे गए बॉन्ड) का आकार छोटा करेगा। यह प्रक्रिया पूरी होने में फिलहाल कुछ समय लग सकता है मगर एक बात तो साफ है कि फेडरल रिजर्व का रुख बदला है। बॉन्ड की खरीदारी समय से पहले संभवत: मार्च के मध्य तक समाप्त हो जाएगी जिसके बाद ब्याज दरें बढऩे का सिलसिला कदाचित शुरू हो जाएगा। फेडरल रिजर्व के अधिकांश नीति निर्धारकों को लगता है कि 2022 में दरें तीन बार बढ़ सकती हैं।
अमेरिका में हुई इस प्रगति पर वैश्विक बाजारों की प्रतिक्रिया तुलनात्मक रूप से शांत रही है। इसका कारण यह है कि फेडरल रिजर्व ने जो चिंताएं जताई थीं उनका असर दिख चुका है और प्रोत्साहन उपाय वापस लिए जाने की रफ्तार बहुत चौंकाने वाली नहीं रही है। कुछ बाजार विशेषज्ञों का मानना है कि 2020 में अमेरिका में वास्तविक ब्याज दरें ऋणात्मक रह सकती हैं इसलिए दुनिया के दूसरे देशों से निवेशक अपनी रकम निकालने में तत्काल जल्दबाजी नहीं दिखाएंगे। मगर भारत सहित दुनिया की तेजी से उभरती अन्य अर्थव्यवस्थाओं को फेडरल रिजर्व के बदले नजरिये का संज्ञान लेना चाहिए। यह स्पष्ट है कि फेडरल रिजर्व का ध्यान अब ऊंची महंगाई पर टिक गया है। अगर अमेरिका एवं दुनिया के अन्य देशों में महंगाई दर ऊंचे स्तर पर बनी रही तो फेडरल रिजर्व मौद्रिक नीति कड़ी करने में अधिक जल्दबाजी दिखा सकता है।
करीब एक दशक पूर्व अमेरिका में ऐसी ही स्थिति बनी थी जिसका असर भारत पर भी हुआ था। मगर भारत तुलनात्मक रूप से अधिक सहज स्थिति में है। कई जिंसों की कीमतें ऊंचे स्तर पर जरूर हैं मगर पहले की तरह परेशान करने वाली नहीं है। कोविड-19 महामारी के दुष्प्रभावों के बावजूद भारत की आर्थिक बुनियाद तेजी से उभरती अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में मजबूत दिख रही है। देश में डॉलर का भंडार भी पर्याप्त है। बॉन्ड पर प्रतिफल भी बहुत चिंता पैदा करने वाले नहीं हैं। मगर यह भी सच है कि सरकार की राजकोषीय जरूरतों का प्रबंधन करने वाला भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) एक नई वास्तविकता का सामना करेगा। विकसित बाजारों में कड़ी मौद्रिक नीति एवं भारत में ब्याज दरें निचले स्तर पर रहने से मुद्रा विनिमय दरों पर असर होगा। इससे भारत में महंगाई बढऩे का जोखिम खड़ा हो सकता है। डॉलर-रुपया विनिमय दर 76 के नीचे रहा और इसी बीच उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार आरबीआई ने हाजिर बाजारों में अक्टूबर में 10 करोड़ डॉलर मूल्य की विदेशी मुद्रा की बिकवाली की। इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्रीय बैंक को नीतिगत दरों में होने वाले बदलावों से उत्पन्न परिस्थितियों से निपटने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करना बेहतर आता है।
केंद्र सरकार के लिए बजट तैयार करने की प्रक्रिया शुरू करने का समय आ गया है। सरकार को भविष्य में वैश्विक स्तर पर नकदी की उपलब्धता कम होने और इसके उधारी दरों पर होने वाले प्रभावों को भी ध्यान में रखना होगा। अमेरिका और दुनिया के शेयर बाजारों ने भी फेडरल रिजर्व के बदले रख पर मोटे तौर पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। फेडरल रिजर्व की घोषणाओं से पहले भारतीय शेयरों में मामूली बिकवाली हुई थी मगर सूचना-प्रौद्योगिकी कंपनियों से अच्छी खबरें आने के बाद गुरुवार को सूचकांक बढ़त के साथ बंद हुए। हालांकि यह भी सच है कि पिछले तीन महीनों से भारतीय बाजारों से विदेशी निवेशक रकम निकाल रहे हैं। अब फेडरल रिजर्व के नए रुख को देखते हुए घरेलू संस्थागत निवेशकों को विदेशी निवेश में कमी की भरपाई करनी होगी।
