मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अहम विधानसभा उपचुनावों में 28 में से 19 सीटें जीतकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। भाजपा के पास 107 विधायक थे और 230 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 116 का है। उपचुनाव के परिणाम चौंकाने वाले नहीं थे क्योंकि भाजपा के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं थी लेकिन अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए ये चुनाव जरूर अहम थे। इस घटना के बाद प्रदेश की कांग्रेस सरकार गिर गई थी और भाजपा की सत्ता में वापसी का रास्ता खुला था। सिंधिया की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी। यही कारण है कि उन्होंने अपने आप को प्रचार में पूरी तरह झोंक दिया था और ग्वालियर-चंबल इलाके में जमकर मेहनत की थी।
सिंधिया का प्रभाव
सिंधिया मतदाताओं से यह कहते सुने गये कि वह स्वयं ये चुनाव लड़ रहे हैं। उनके प्रयासों के बावजूद उनके 16 समर्थकों में से छह चुनाव हार गए। इनमें से तीन पूर्व मंत्री थे। हारने वाले नेता थे इमरती देवी, गिर्राज दांडोतिया, मुन्नालाल गोयल, रणदीप जाटव, जसवंत जाटव और रघुराज सिंह कंसाना (सभी ग्वालियर-चंबल क्षेत्र)। एक अन्य विधानसभा क्षेत्र भांडेर में भाजपा प्रत्याशी रेखा सरोनिया, कांग्रेस प्रत्याशी फूल सिंह बरैया से बमुश्किल 161 वोटों से जीत सकीं। चुनाव नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया कि चंबल क्षेत्र में सिंधिया का उतना प्रभाव नहीं है जितना माना जा रहा था या जितनी भाजपा को आशा थी। मुरैना जिसे उनके अलावा केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता नरेंद्र सिंह तोमर का गढ़ माना जाता है, वहां भाजपा को चार में से तीन सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सिंधिया की तारीफ की लेकिन तथ्य इससे अलग हैं। भाजपा के एक नेता नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहते हैं, ‘जब उपचुनावों का प्रचार शुरू हुआ, सिंधिया को ग्वालियर-चंबल में सीमित कर दिया गया। शायद कांग्रेस के गद्दार के नारे ने भाजपा को मजबूर किया कि वह सिंधिया को अन्य सीटों पर प्रचार न करने दे।’
भाजपा प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी कहते हैं, ‘सिंधिया बड़े कद के नेता हैं। उनकी राजनीतिक क्षमताओं का आकलन महज एक उपचुनाव के नतीजों से नहीं करना चाहिए। वह दो दशक से राजनीति में हैं और उनकी लोकप्रियता पूरे देश में है। जहां तक उनके राजनीतिक भविष्य का प्रश्न है, वह सत्ता नहीं जन सेवा के लिए राजनीति में हैं। पार्टी नेतृत्व उनके लिए जो भी भूमिका तय करेगा वह निभाएंगे।’ चतुर्वेदी ने कहा कि सिंधिया के प्रभाव क्षेत्र में कांग्रेस का मत प्रतिशत गिरा है। उन्होंने कहा कि किसने कितनी सीटें जीतीं या हारीं इससे फर्क नहीं पड़ता। सच यह है कि भाजपा इस बार 2018 के विधानसभा चुनाव की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब रही। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक संदीप पौराणिक कहते हैं कि उपचुनाव के नतीजों के बाद सरकार पर सिंधिया समूह का दबाव कम होगा। उन्होंने कहा, ‘सिंधिया समूह के छह सदस्य हारे हैं और चौहान के नौ करीबियों में से छह चुनाव जीते हैं। इससे सिंधिया का दबाव कम होगा।’
शिवराज का उभार
उपचुनाव नतीजों ने चौहान की काफी सहायता की है। उदाहरण के लिए उनके पास विधानसभा में बहुमत है, उनके अधिकांश प्रत्याशी चुनाव जीत गए हैं और अब वह अपनी पसंद के मंत्री बना सकते हैं। परंतु इसके साथ ही चौहान को एक नए तरह के दबाव का सामना करना पड़ेगा। मंत्रियों की हार के बाद मंत्रिमंडल का पुनर्गठन होगा। भाजपा के बड़े नेता जो उपचुनाव के कारण अब तक खामोश थे अब वे मुखर होंगे। पौराणिक कहते हैं कि हालात बहुत उलझे हुए हैं। अहम मंत्रालयों का आवंटन करते वक्त चौहान को वरिष्ठ भाजपा नेताओं और सिंधिया के वफादारों के बीच संतुलन कायम करना होगा। जुलाई में चौहान ने कैबिनेट का विस्तार करते समय सिंधिया के समर्थकों को अहम मंत्रालय सौंपे थे।
