करीब 80 वर्ष पहले अंतरराष्ट्रीय संगठन संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की गई। उसके जिस चार्टर पर सहमति बनी उसने राज्यों के बीच संबंधों की वैधता को परिभाषित किया और संयम तथा पारस्परिक सम्मान को बढ़ावा देने वाली कूटनीतिक प्रथाओं की स्थापना की। दुनिया के देशों के व्यवहार का यह वैश्विक मानक कई अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के चार्टर में भी नजर आया। एक स्तर तक यह बात इसके अस्तित्व के साढ़े चार दशकों तक सही भी रही जब अमेरिका और सोवियत संघ यानी यूएसएसआर के बीच तनाव था। बीते तीन दशक में चीन के उभार के साथ दुनिया बहुध्रुवीय हो चुकी है और देशों के बीच लड़ाइयां भी कुछ हद तक कम हो चुकी हैं।
हाल के वर्षों में विभिन्न देशों के बीच रिश्तों का संतुलन डगमगाया है और आधिकारिक जंगों में संयम कम हुआ है बल्कि गायब हो गया है। रूस और यूक्रेन के बीच भारी लड़ाई छिड़ी हुई है। गाजा में इजरायल ने एक तरह से नरसंहार को अंजाम दिया है और ईरान पर हमले किए हैं। एक और पुराना उदाहरण वर्ष 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले का है और जिसे ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और पोलैंड का समर्थन था। 1991 की जंग की तरह इसे संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी भी नहीं थी। जाहिर है बीते दशक में संयुक्त राष्ट्र की परवाह किए बिना जंगें छेड़ी गई हैं और आत्मरक्षा के नाम पर उसे सही ठहराया गया है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र समझौता उसकी इजाजत देता है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में विकास को गति देने के लिए सफलता का एक प्रमुख क्षेत्र राष्ट्रों के बीच व्यापार समझौता भी था। डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका उक्त वैश्विक व्यापार समझौते की परंपरा को नष्ट कर रहा है। परंतु इससे भी बुरी बात यह है कि संयम और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के प्रति सम्मान का सख्त अभाव नजर आ रहा है। यह बात ईरानी राष्ट्रपति की हत्या करने की अमेरिका की क्षमता के बारे में ट्रंप के बयानों और ब्राजील के राष्ट्राध्यक्ष द्वारा पूर्व ब्राजीलियाई राष्ट्रपति जेयर बोलनसारो के साथ व्यवहार को लेकर उनकी आक्रामक टिप्पणियों में साफ नजर आया।
दरअसल ट्रंप दूसरे राष्ट्र प्रमुखों के बारे में खराब टिप्पणियां करने में माहिर हैं। ट्रंप के कदमों पर प्रतिक्रिया देते वक्त अधिकांश देशों ने स्थापित नियमों से इस विचलन की अनदेखी कर दी। उनमें से कई तो कूटनीतिक सौजन्यता को यूं ठुकराए जाने को लेकर भी सहिष्णु बने रहे। अगर कोई मजबूत पड़ोसी अपनी मांगें सामने रखते हुए आपके साथ बुरा व्यवहार करता है और आप बदतमीजी को परे रखकर उसकी मांग पर प्रतिक्रिया देते हैं तो माना जाएगा कि आप उसे बर्दाश्त कर रहे हैं। ट्रंप की आक्रामकता को स्वीकार कर हम इस समय यही कर रहे हैं। अन्य देशों को परेशान करने वाले एक मजबूत और आक्रामक देश का प्रतिरोध करने के लिए क्या किया जा सकता है?
स्कूल में दूसरों को परेशान करने वाले बच्चे का उदाहरण लेते हैं। मेरे स्कूल में एक बच्चा था जो छुट्टी के समय एक जगह खड़ा हो जाता और किसी भी अकेले लड़के को बुलाकर उसके सिर पर चपत लगाता। लेकिन अगर वहां से बच्चों का कोई संगठित समूह गुजरता तो वह उनमें से किसी को बुलाने की हिम्मत नहीं कर पाता था।
इसी तरह आज हमें देशों के ऐसे समूह की आवश्यकता है जो मिलकर काम कर सकें और अमेरिका के विपरीत कदमों का प्रतिरोध कर सकें। विभिन्न देशों के आपसी रिश्तों के स्तर पर हम संयुक्त राष्ट्र या विश्व व्यापार संगठन अथवा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों द्वारा स्वीकृत कदमों पर निर्भर नहीं रह सकते। जवाब इस बात में छिपा है कि किन्हें ‘इच्छुक देशों का गठबंधन’ कहा जाए। यह विभिन्न देशों के एक समूह की पहलकदमी होती है जो ऐसी अंतरराष्ट्रीय पहल का समर्थन करते हैं जिन्हें संयुक्त राष्ट्र का औपचारिक समर्थन नहीं हासिल होता, जो आमतौर पर ऐसा एक या एक से अधिक ताकतवर देश के विरोध के चलते होता है।
नब्बे के दशक से दो उदाहरण लिए जा सकते हैं। लोगों के विरुद्ध इस्तेमाल होने वाले बारूदी सुरंगों पर प्रतिबंध और अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत के गठन की सहमति के लिए समझौते। इन गठबंधनों को कनाडा और इटली ने आगे बढ़ाया था और इनमें अन्य सहमत देश शामिल थे। इससे ऐसे परिणाम निकले जिनका वैश्विक सहयोग पर सकारात्मक प्रभाव था। बहरहाल, भारत इन गठबंधनों में साझेदार नहीं था। ऐसे ही एक कदम को वर्ष2000 में संयुक्त राष्ट्र की सहमति नहीं मिल सकी। यह मामला था कर्ज माफी से संबंधित जुबिली डेट इनीशिएटिव का। इसे एक स्वयंसेवी संगठन ने पेश किया था और इसे ब्रिटेन का समर्थन हासिल था। बहरहाल संयोग से अब 2025 में एक नया जुबिली डेट इनीशिएटिव पेश किया गया है।
अमेरिकी दादागीरी का मुकाबला करने के लिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति या वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने वाला इच्छुक देशों का प्रभावी गठबंधन, सामान्य उद्देश्यों के आधार पर नहीं बन सकता। व्यापार नीति के व्यवधानों के प्रत्युत्तर में इसका निर्माण असंभव है। ऐसे किसी गठबंधन द्वारा युद्ध के जोखिम कम करना भी लगभग असंभव है। अमेरिकी नीति में हालिया बदलावों का जवाब देने के लिए इसे अधिक विशिष्ट सहयोगात्मक कार्रवाइयों पर केंद्रित होना चाहिए।
मेरा पहला सुझाव दो कृषि शोध संस्थानों से संबंधित है जिन्होंने सकारात्मक वैश्विक प्रभाव डाला और अब उन्हें अमेरिका से पहले जैसा वित्तीय आवंटन नहीं मिल रहा है। एक है मेक्सिको स्थित अंतरराष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र तथा दूसरा फिलीपींस स्थित अंतरराष्ट्रीय चावल शोध संस्थान। अमेरिकी की वित्तीय मदद बंद होना एक बड़ी समस्या है और इसका असर उनकी गुणवत्ता पर हो सकता है। वे भारत समेत कई देशों में कृषि में सहयोग के प्रमुख स्रोत रहे हैं। भारत तथा अन्य लाभार्थी देश अमेरिका के प्रतिकूल निर्णय का मुकाबला करने के लिए अपना गठबंधन बना सकते हैं और अमेरिका द्वारा मदद बंद किए जाने की भरपाई कर सकते हैं।
दूसरा और शायद थोड़ा कठिन सुझाव है अमेरिका द्वारा कार्बन उत्सर्जन में कमी के वादे से पीछे हटने की भरपाई। अमेरिका पेरिस समझौते से पीछे हट गया है ऐसे में अमेरिका द्वारा वर्ष2030 के लिए किए गए उत्सर्जन कटौती के वादे को 40 फीसदी से कम करके 3 फीसदी कर दिया जाएगा। यानी 2030 में वादे की तुलना में कार्बन उत्सर्जन में 2 अरब टन की वृद्धि होगी।
इसमें सुधार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक कार्रवाई संभव नहीं। ऐसे में कुछ प्रमुख देशों को एक गठबंधन बनाना होगा ताकि अमेरिका के पीछे हटने की कुछ हद तक भरपाई की जा सके। दो अरब टन की भरपाई करना संभव नहीं होगा लेकिन आंशिक भरपाई भी वैश्विक स्तर पर सहयोग को जारी रखेगी। भारत में यह क्षमता है कि वह 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में कमी की अपनी क्षमता बढ़ाए और अन्य देशों के साथ मिलकर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन जोखिम को लेकर गठबंधन बनाए।
कुछ साझा वैश्विक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इच्छुक देशों के कुछ गठबंधनों का उदय एक आंशिक समाधान होगा जो 80 वर्ष पहले बनी संभावनाओं को जीवित रखेगा। यह एक शक्तिशाली राज्य की दादागीरी खत्म नहीं कर सकता लेकिन उसके असर को कम कर सकता है। उम्मीद है कि यह अमेरिकी जनमत को भी प्रभावित करेगा कि उसकी सरकार को ऐसा व्यवहार करना चाहिए।