देशभर में शहरी बुनियादी ढांचा लगातार दबाव में है। शहरों को कभी उत्पादकता का वाहक और बेहतर जीवन स्तर सुलभ कराने वाला माना जाता था लेकिन अब वे जलभराव, लंबे ट्रैफिक जाम और प्रदूषण से जूझ रहे हैं जिससे निवासियों के जीवन स्तर और समग्र उत्पादकता, दोनों को खतरा है। ये अंतर्निहित कमियां शहरी नियोजन की कमी की ओर इशारा करती हैं, जिसका दोष हमारे शहरों को संचालित करने वाले स्थानीय निकायों पर मढ़ा जाता है।
शहरी स्थानीय निकाय (यूएलबी), जिन्हें शहरी स्थानीय स्वशासन भी कहा जाता है, प्राथमिक शासी संस्थाएं हैं जो नीतियों को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं और इनकी विफलता शहरी आबादी के लिए सार्वजनिक सुविधाओं की स्थिति को खराब कर सकती है।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने हाल ही में शहरी स्थानीय निकायों का ऑडिट किया जिससे एक अधिक मौलिक प्रश्न उठा है: क्या इन निकायों के पास प्रभावी ढंग से योजना बनाने की शक्ति है?
1992 के 74वें संविधान संशोधन अधिनियम (सीएए) के तहत शहरी स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा दिया गया था। संशोधन की 12वीं अनुसूची के माध्यम से संविधान ने इन निकायों को कुल 18 कार्य सौंपे, जिनमें शहरी नियोजन और भूमि उपयोग विनियमन से लेकर स्वच्छता, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, मलिन बस्तियों में सुधार और गरीबी उन्मूलन जैसी सामाजिक एवं बुनियादी ढांचागत सेवाओं का रखरखाव शामिल है।
हालांकि यह संशोधन 30 साल से भी पहले पेश किया गया था, लेकिन 2024 में 18 राज्यों के शहरी स्थानीय निकायों में सीएजी द्वारा किए गए कामकाज के ऑडिट से यह एक कड़वी सच्चाई सामने आती है कि 74वें संशोधन के प्रावधानों का बड़े पैमाने पर क्रियान्वयन नहीं हुआ है।
ऑडिट के अनुसार, औसतन 12वीं अनुसूची के अंतर्गत 18 में से केवल 4 शक्तियां ही शहरी स्थानीय निकायों के पूर्ण स्वायत्त नियंत्रण में हैं तथा अधिकांश कार्य राज्य सरकारों या अर्द्ध-सरकारी संस्थाओं के नियमित हस्तक्षेप से किए जाते हैं, जिसमें अक्सर स्थानीय निकायों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता है।
इसके अलावा, शहरी स्थानीय निकायों को अपने लिए भर्ती करने के निर्णय लेने से वंचित किया जा रहा है, क्योंकि कर्मचारियों की जरूरत का मूल्यांकन राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर कर्मियों की आवश्यकताओं का कम आकलन होता है। उदाहरण के लिए शिमला नगर निगम जिसे 720 कर्मियों की आवश्यकता थी, उसके लिए राज्य सरकार द्वारा केवल 20 नए पद स्वीकृत किए गए। स्वायत्तता की इस कमी के कारण न केवल स्वीकृत पदों की संख्या कम हो गई है, बल्कि 18 राज्यों में हर तीन में से एक पद रिक्त रह गया है, जिससे शहरी स्थानीय निकाय अपने कार्यों को ठीक से करने के लिए आवश्यक मानव संसाधनों से वंचित हो रहे हैं।
74वें संविधान संशोधन अधिनियम में नए संस्थागत ढांचों के गठन का प्रावधान है, जैसे कि नियमित नगरपालिका चुनाव सुनिश्चित करने के लिए राज्य चुनाव आयोग (एसईसी), और एकीकृत एवं समन्वित क्षेत्रीय नियोजन को सुगम बनाने के लिए जिला नियोजन समितियां (डीपीसी) और महानगर नियोजन समितियां (एमपीसी)। हालांकि, सीएजी ऑडिट से इन प्रावधानों की पूरी तरह उपेक्षा का पता चलता है। रिपोर्ट के अनुसार, जिन 17 राज्यों के 2,625 शहरी स्थानीय निकायों का ऑडिट किया गया उनमें से 61 फीसदी या 1,600 में कोई निर्वाचित परिषद नहीं थी, और केवल पांच राज्यों में ही प्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से महापौर की नियुक्ति हुई।
इस कमी का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि वार्ड परिसीमन का अधिकार राज्य सरकार के पास है, जिससे अक्सर नियमित नगर निगम चुनाव कराने में देरी होती है। निर्वाचित परिषद के अभाव में जनता शहरी स्थानीय निकायों को जवाबदेह नहीं बना पाती। रणनीतिक योजना का अभाव इन नगर निकायों को और कमजोर बनाता है।
ऑडिट में शामिल केवल 10 राज्यों ने ही जिला स्थानीय निकायों (डीपीसी) का गठन किया था, और केवल तीन ने ही वार्षिक जिला योजनाएं तैयार की थीं। एमपीसी में भी यही रुझान देखने को मिलता है। एमपीसी बनाने के लिए अधिकृत नौ राज्यों में से केवल तीन ने ही ऐसा किया था, जिसके परिणामस्वरूप कुल सात महानगरीय स्थानीय निकाय बन गए और केवल तीन ने ही योजनाएं विकसित की थीं।
वित्तीय पक्ष की बात करें तो राज्य वित्त आयोगों (एसएफसी) (राज्य सरकार और शहरी स्थानीय निकाय के बीच राजकोषीय हस्तांतरण के समन्वय के लिए जिम्मेदार) के गठन और एसएफसी की सिफारिशों के कार्यान्वयन, दोनों में ही काफी देरी देखी गई। कई मामलों में, राज्य सरकारों ने एसएफसी द्वारा अनुशंसित पूरी राशि शहरी स्थानीय निकायों को जारी नहीं की, जिसके परिणामस्वरूप 15 राज्यों में शहरी स्थानीय निकायों की प्राप्तियों में औसतन 1,606 करोड़ रुपये की कमी आई।
अनुदानों के अलावा, संपत्ति कर जैसे कर इन निकायों के लिए धन के प्रमुख स्रोतों में से एक हैं। शहरी स्थानीय निकायों को ऐसे कर वसूलने का अधिकार है, लेकिन उनके पास संपत्ति कर की दर तय करने, मूल्यांकन करने या कर दरों में संशोधन करने का अधिकार नहीं है। इसकी वजह से कई संपत्ति कर अभी भी पहले से मौजूद दरों पर ही लगाए जा रहे हैं।
ये सभी कारक स्थानीय निकायों की वित्तीय तंगी की अहम वजह हैं। 11 राज्यों ने व्यय-राजस्व अंतर को 42 फीसदी के चौंका देने वाले स्तर पर पहुंचा दिया है। उपलब्ध धनराशि के बावजूद, स्थानीय निकाय विकास गतिविधियों को पर्याप्त रूप से सहयोग देने में असमर्थ हैं, क्योंकि केवल 29 फीसदी धनराशि ही विकास गतिविधियों के लिए आवंटित की जा रही है। ये सभी कारक शहरी निकायों की वित्तीय स्थिति को काफी हद तक कमजोर कर देते हैं, जिससे महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की जरूरतों का वित्तपोषण नहीं हो पा रहा है।
शहरी स्थानीय निकायों के वास्तविक सशक्तीकरण के बिना शहरी संकट को टाला नहीं जा सकता। राज्यों को इन निकायों को उनके कार्यों पर वास्तविक स्वायत्तता प्रदान करना होगा और राज्य सरकार के हस्तक्षेप से मुक्त कर, 74वें संशोधन का दृढ़ता से पालन करना होगा। इसके लिए नियमित चुनावों के माध्यम से लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के वास्ते राज्य चुनाव आयोगों(एसईसी) को मजबूत करना होगा।
इसके अलावा, डीपीसी और एमपीसी को क्रियाशील बनाया जाना चाहिए, साथ ही राज्य वित्त आयोगों का समय पर गठन किया जाना चाहिए, और शहरी स्थानीय निकायों को कार्यबल भर्ती में स्वायत्तता दी जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि विकास योजनाएं नियमित रूप से बनाई जाएं, समय पर वित्त उपलब्ध हो, और स्थानीय निकायों के पास अपने अधिकार क्षेत्र में विकास परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त मानव संसाधन हो। इन सुधारों के बिना, भारत के शहरी केंद्रों का क्षरण जारी रहेगा, और वे उत्पादकता और गुणवत्तापूर्ण जीवन के केंद्र बनने के अपने वादे से चूक जाएंगे।
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटिटिवनेस के अध्यक्ष हैं। लेख में कार्तिक का भी योगदान है)