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Editorial: मौद्रिक नीति में पारदर्शिता जरूरी, RBI को सार्वजनिक करनी चाहिए रिपोर्ट

आरबीआई अधिनियम कहता है कि जब केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति के लक्ष्य को हासिल करने में विफल रहता है तो उसे केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट सौंपनी होती है

Last Updated- November 03, 2025 | 11:05 PM IST
RBI

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा अगस्त में मौद्रिक नीति ढांचे पर एक चर्चा पत्र प्रकाशित किए जाने के बाद इस विषय पर व्यापक बहस शुरू हो गई है। इस समाचार पत्र में भी उस पर चर्चा हुई। गत सप्ताह आयोजित बिज़नेस स्टैंडर्ड बीएफएसआई इनसाइट समिट में भी इस पर बातचीत हुई जिसमें मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के दो पूर्व बाहरी तथा दो पूर्व आंतरिक सदस्य शामिल थे।

पैनल ने इस बात पर सहमति जताई कि यह ढांचा भारत के लिए प्रभावी रहा है और फिलहाल इसमें बदलाव की आवश्यकता नहीं है। मुद्रास्फीति के लक्ष्य की समीक्षा मार्च 2026 तक होनी तय है। यद्यपि इस ढांचे के कुछ तकनीकी पहलुओं पर मामूली मतभेद हैं लेकिन अधिकांश अर्थशास्त्री मानते हैं कि 4 फीसदी का मुख्य मुद्रास्फीति लक्ष्य (दो फीसदी कम या ज्यादा) को फिलहाल बरकरार रखा जाना चाहिए।

दिलचस्प बात यह है कि इस ढांचे का एक पहलू जिस पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया गया है वह भी इस पैनल परिचर्चा में सामने आया। आरबीआई अधिनियम कहता है कि जब केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति के लक्ष्य को हासिल करने में विफल रहता है तो उसे केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट सौंपनी होती है जिसमें उसे इस विफलता के कारण, उसके द्वारा उठाए जाने वाले उपचारात्मक उपाय और वह समय सीमा बतानी होती है जिसके भीतर केंद्रीय बैंक प्रस्तावित नीतिगत कदमों के साथ उक्त लक्ष्य को हासिल करेगा।

अगर लगातार तीन तिमाहियों तक मुद्रास्फीति की दर तय सहनशील दायरे से बाहर बनी रहती है तो यह माना जाएगा कि रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति का लक्ष्य प्राप्त करने में नाकाम रहा है। बैंक ने 2022 में ऐसी एक रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेजी थी। उस समय लगातार तीन तिमाहियों तक मुद्रास्फीति की दर दायरे के ऊपरी स्तर से ऊपर बनी रही थी।

हालांकि उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया था। कहा यह गया है कि कानून के मुताबिक ऐसा करना आवश्यक नहीं है। कानूनन ऐसा कहना सही हो सकता है लेकिन देश के मुद्रास्फीति को लक्षित करने वाले लचीले ढांचे की भावना के मुताबिक यह सही नहीं है।

यह ढांचा इस तरह तैयार किया गया है कि मौद्रिक नीति में पारदर्शिता रहे। उदाहरण के लिए कानून कहता है कि एमपीसी की बैठक के कैलेंडर का प्रकाशन भी समय रहते किया जाए। एमपीसी का प्रस्ताव सार्वजनिक किया जाता है, जिसमें प्रत्येक सदस्य ने कैसे मतदान किया, इसकी जानकारी भी शामिल होती है और बैठक की कार्यवाही का विवरण भी जारी किया जाता है। कानून के अनुसार, रिजर्व बैंक को हर छह महीने में एक मौद्रिक नीति रिपोर्ट प्रकाशित करनी होती है, जिसमें मुद्रास्फीति के स्रोतों का विवरण और आने वाले तिमाहियों में इसकी संभावित दिशा का पूर्वानुमान दिया जाता है।

इसके अलावा, हर एमपीसी बैठक के बाद रिजर्व बैंक के गवर्नर, डिप्टी गवर्नरों और अन्य अधिकारियों के साथ मीडिया के सवालों का विस्तार से जवाब देते हैं, जो केवल एमपीसी के निर्णयों तक सीमित नहीं होते।

ऐसे में व्यापक तौर पर देखें तो यह उम्मीद करना उचित है कि मुद्रास्फीति के लक्ष्य को हासिल करने में नाकामी से संबंधित रिपोर्ट को रिजर्व बैंक द्वारा सार्वजनिक किया जाना चाहिए। कानून के मुताबिक रिजर्व बैंक को रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपनी होती है। ऐसे में निर्णय केंद्र सरकार को लेना है। बीएफएसआई इनसाइट समिट के पैनल का भी यही मानना था कि रिपोर्ट को सार्वजनिक जरूर किया जाना चाहिए।

इस संबंध में एक आशंका यह हो सकती है कि शायद इसमें ऐसी सूचनाएं हों जो वित्तीय बाजारों को प्रभावित करें। इसका जवाब यह हो सकता है कि रिजर्व बैंक का ढांचा वित्तीय बाजारों को समायोजन में मदद कर सकता है। अगर नीति-निर्माता इस नजरिये से सहमत नहीं हैं तो रिपोर्ट को एक अंतराल के बाद जारी किया जा सकता है। इससे नीतिगत चर्चाओं में मदद मिलेगी और मौद्रिक नीति को पारदर्शी बनाने का विचार मजबूत होगा।

First Published - November 3, 2025 | 10:22 PM IST

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