अहम वित्तीय निर्णय लेने वाले दुनिया के कई प्रमुख व्यक्ति इस सप्ताह अहमदाबाद में बैठक कर रहे हैं। G20 देशों के वित्त मंत्रियों की बैठक जिसकी अध्यक्षता वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कर रही हैं, वह नीति निर्माण के कैलेंडर के लिहाज से सर्वाधिक अहम तारीखों में से एक होगी।
वर्ष के मध्य तक G20 की अध्यक्षता (प्रेसिडेंसी) की प्राथमिकताएं लगभग स्पष्ट हो चुकी हैं और इस बात के लिए पर्याप्त समय है कि वर्ष के अंत में जलवायु परिवर्तन शिखर बैठक से लेकर G20 नेताओं की बैठक के पहले कुछ समझौतों पर पहुंचा जा सके। हालांकि इस वर्ष हमें अपनी अपेक्षाओं को थोड़ा कम ही रखना होगा और इसकी तीन बुनियादी वजह हैं।
पहली, अब बहुत अधिक समय नहीं बचा है। पिछली अध्यक्षताओं में जहां अंतिम शिखर बैठक वर्ष के अंत में होती थी, वहीं इस वर्ष भारत ने सितंबर के आरंभ में नेताओं की बैठक आयोजित करने का निर्णय लिया है। यानी संयुक्त राष्ट्र महासभा के आरंभ होने के कुछ सप्ताह पहले। इस बदलाव की वजह चाहे जो हो लेकिन इसका अर्थ यह है कि अहम नीतिगत मुद्दों पर पहल के संदर्भ में भारत की अध्यक्षता हमेशा से दूसरे देशों की तुलना में मुश्किल काम था।
दूसरा, गत वर्ष नवंबर में बाली में हुई G20 शिखर बैठक में हुए समझौते के बाद से भूराजनीतिक हालात में भी उल्लेखनीय गिरावट आई है। शिखर बैठक के बाद यूरोप में चल रही जंग को लेकर स्वीकार्य भाषा में एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया जा सका। इसका श्रेय भारतीय प्रतिनिधिमंडल के कूटनीतिक प्रयासों को जाता है लेकिन ऐसी वास्तविक आशंकाएं मौजूद हैं कि शायद नई दिल्ली में हम यह कामयाबी भी नहीं हासिल कर पाएं।
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इस वर्ष हुई पिछली कई बैठकों का अंत बिना संयुक्त वक्तव्य के हुआ है। उसकी जगह अध्यक्ष की ओर से वक्तव्य जारी किया गया। भारतीय अधिकारियों को यह एक तरह से ठीक ही लगा क्योंकि वे यह सुनिश्चित कर सकते थे कि भारत की प्राथमिकताएं थोड़ा स्पष्ट रूप से सामने आएं। परंतु रूस द्वारा यूक्रेन में छेड़े गए युद्ध पर सहमति के शब्द तलाश करने में ही पूरी ऊर्जा लग गई और इस बात ने भारतीय नीति निर्माताओं का ध्यान भी बंटाया।
तीसरी बात, विभिन्न अन्य प्रयास भी किए गए ताकि G20 की प्रक्रिया से ध्यान दूर किया जा सके। मिसाल के तौर पर कुछ वित्त मंत्री अहमदाबाद शिखर बैठक में शामिल नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि वे पिछले महीने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों द्वारा बुलाए गए सम्मेलन में एकत्रित हुए थे जिसका लक्ष्य था, ‘अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था में सुधार करना।’
वास्तव में ऐसे सुधार G20 का बुनियादी काम होने चाहिए। बहरहाल जहां G20 और पेरिस प्रक्रिया के मुद्दे समान हैं और इसमें सॉवरिन ऋण से लेकर गरीब देशों को वित्तीय मदद देने और जलवायु परिवर्तन को अपनाने तक की बातें शामिल हैं। इनके प्रतिभागी और उनकी प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। ऐसे में अगर विविध प्रयासों के बावजूद गतिविधियों में तेजी नहीं नजर आती है तो हमें बहुत अधिक चकित होने की आवश्यकता नहीं है।
उदाहरण के लिए सॉवरिन ऋण के मामले में भारत सरकार यह घोषणा कर चुकी है कि यह कई विकासशील देशों में खतरनाक स्तर पर पहुंच रहा है। इसमें हमारे पड़ोसी देश भी शामिल हैं। इस मामले में G20 के प्रयास अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे हैं। कर्जग्रस्त देशों की मदद के लिए विशेष प्रणाली बनी लेकिन कुछ मामलों में उसका इस्तेमाल नहीं हो सका क्योंकि विकासशील देशों को डर है कि यह एक बुरा संकेत हो सकता है जो उन्हें निजी पूंजी बाजार से बाहर कर देगा।
ढांचागत समस्या के कारण ऋण निस्तारण की समस्या गंभीर हो रही है। कोई इस बारे में निश्चित नहीं है कि विकासशील देशों के बड़े कर्जदाता के रूप में चीन के उभार से कैसे निपटा जाए। ऐसा लगता है कि चीन सॉवरिन ऋणदाताओं की तरह पारदर्शी और स्पष्ट प्रणाली अपनाना जानता भी नहीं और वह शायद ऐसा चाहता भी नहीं है। इससे G20 की सुधार प्रक्रिया में भी धीमापन आया है।
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पेरिस सम्मेलन में चीन ने इस बात पर सहमति जताई थी कि वह जांबिया के मामले में ऋण पुनर्गठन के लिए अलग से व्यवस्था बनाएगा। गहन संकट से जूझ रहे इस दक्षिण अफ्रीकी देश की अर्थव्यवस्था को स्पष्ट मदद की आवश्यकता है लेकिन तथ्य यह भी है कि चुनिंदा देशों के मामले में अलग व्यवस्था बनाने से यह दबाव समाप्त होता है कि एक ऐसा उपाय तैयार किया जाए जो दुनिया भर के सारे देशों पर लागू हो सके तथा सॉवरिन ऋण संकट से जुड़ी चिंताओं को हल कर सके।
विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय विकास बैंक भी एक ऐसा मुद्दा है जहां G20 तथा अन्य प्रयास समांतर नहीं हैं। पेरिस सम्मेलन में सीतारमण ने बहुत स्पष्ट तरीके से कहा कि भारत वर्तमान विकास संस्थानों पर और बोझ नहीं डालना चाहता। परंतु पेरिस के कई अन्य भागीदार चाहते थे कि इन्हीं बैंकों की परिसंपत्तियों से वे समस्याएं हल की जाएं जो पारंपरिक रूप से उनके ऋण के केंद्र में नहीं रही हैं।
जाहिर है इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत को G20 अध्यक्षता का इस्तेमाल वैश्विक स्तर पर विकास प्राथमिकताओं के समुचित इस्तेमाल के लिए नहीं करना चाहिए। हाल ही में इन बैंकों की पूंजी के बेहतर इस्तेमाल पर जोर दिया जाना भारत के लिए एक आसान जीत है।
बहरहाल, भारत को यह मांग भी करनी चाहिए कि यह बदलाव इन बैकों में संस्थागत बदलाव के साथ संपूर्णता में हो। खासतौर पर विश्व बैंक के मामले में ऐसा किया जाना चाहिए। इस संस्थान के नए प्रमुख को निजी क्षेत्र और भारत की विकास प्राथमिकताओं दोनों का अनुभव है, इसका फायदा लिया जाना चाहिए।
व्यापक तौर पर देखें तो भारत के नीति निर्माता इस समय व्यापक सहमति पर अपना पूरा ध्यान नहीं लगा सकते। इसके बजाय भारत की विशिष्ट प्राथमिकताओं- निवेश से लेकर वैश्विक वित्तीय सुधारों और डिजिटल सार्वजनिक ढांचे आदि पर ध्यान देने की आवश्यकता है। सरकार को अपने प्रयासों को एकजुट करना होगा और अपनी अध्यक्षता की सफलताओं को दो तीन बातों तक सीमित करना होगा।
यह काफी अहम होगा, खासतौर पर अगर इन्हें इस तरह तैयार किया जाए कि वे अगले मेजबानों ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को भी रुचिकर लगे। वैश्विक निर्धन देशों के नेतृत्वकर्ता के रूप में भारत की भूमिका में शायद उसे अपनी कुछ महत्त्वाकांक्षाएं त्यागनी पड़ें। यह सौदा बुरा नहीं माना जाएगा।
(लेखक सेंटर फॉर द इकॉनमी ऐंड ग्रोथ, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के निदेशक हैं)