अब जबकि बीते कई दशकों के सबसे भीषण रेल हादसे की स्मृतियां धुंधली पड़ रही हैं, लगभग उसी समय समारोहपूर्वक शुरू की जा रही नई वंदे भारत ट्रेनें एक बार फिर सुर्खियों में नजर आ रही हैं। इस बीच एक सवाल जिसे गुम नहीं होने देना चाहिए वह यह है कि भारतीय रेलवे की वित्तीय प्रतिबद्धताएं क्या और कैसी होनी चाहिए?
वर्तमान सरकार ने स्वतंत्र रेलवे बजट की व्यवस्था समाप्त करके रेलवे का राजनीतिकरण समाप्त करने की दिशा में अहम पहल की। इस कदम के बाद अगले कदम के रूप में रेलवे के वित्तीय निर्णयों और प्राथमिकताओं को लेकर ज्यादा पारदर्शिता सुनिश्चित करनी चाहिए। यह आरोप बहुत पुराना है कि रेलवे को अहम बुनियादी क्षेत्र के बजाय वोट बटोरने का माध्यम समझा जा रहा है। इस धारणा को नए सिरे से जोर नहीं पकड़ने देना चाहिए।
इसमें दोराय नहीं कि वंदे भारत ट्रेनें कुछ मायनों में अहम कदम हैं। उदाहरण के लिए इनकी बदौलत स्थानीय स्तर पर विनिर्माण को गति मिली है। उनकी उन्नत आंतरिक सज्जा भी यह बताता है कि भविष्य में भारतीय रेल की सेवा लेने वालों को कैसा बेहतर अनुभव मिलने वाला है। ये प्राथमिकताएं अहम हैं और अगर इनकी मदद से कुछ और वोट मिल जाते हैं तो हम जानते ही हैं कि लोकतंत्र ऐसे ही काम करता है।
परंतु कम से कम दो बुनियादी बिंदुओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। पहला, कागज पर उनकी तकनीकी क्षमताएं चाहे जैसी हों लेकिन हकीकत में वंदे भारत ट्रेन गति के मामले में कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं अर्जित कर सकी है। कम यात्रियों के कारण इनकी वित्तीय व्यवहार्यता भी सवालों के घेरे में है। दूसरी बात, अन्य सामान्य ट्रेनों को यात्रियों के लिए बेहतर बनाना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है, बजाय कि चुनिंदा एक्सप्रेस ट्रेनों का प्रदर्शन करने के।
भारतीय रेल जितने बड़े पैमाने पर संचालन करता है और जितने लोग रोज उसमें सफर करते हैं उसे देखते हुए समग्र अनुभव में सुधार लाना बहुत बड़ा काम है। इसके बावजूद यह संभव है। एक जमाने में रेल मंत्री रहे मधु दंडवते को इतिहासकार इस बात के लिए याद करते हैं कि उन्होंने दूसरे दर्जे के डिब्बों की सीटों में ‘दो इंच फोम’ लगवाया था जिससे लंबी दूरी की यात्रा करने वालों को बहुत आराम मिला था। 21वीं सदी के लिए किए जाने वाले ऐसे सुधारों को चिह्नित करके पेश करने की आवश्यकता है। यात्रियों के आराम में सबसे अधिक सुधार क्षमता के साथ ही आएगा।
रेलगाड़ियों में भीड़ के दृश्य आम हैं, खासतौर पर लंबी दूरी की ट्रेनों में। ज्यादा भीड़ वाले मार्गों की पहचान करना और बिना आरक्षण वाली सीटों को बढ़ाकर इस मांग को पूरा करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
क्षमता में निवेश के साथ-साथ सुरक्षा और ट्रैक में सुधार में भी निवेश किया जाना चाहिए। अगर वंदे भारत एक्सप्रेसों को उनकी उल्लिखित गति से नहीं चलाया जा पा रहा है तो ऐसा इसलिए कि इससे संबंधित अधोसंरचना में सुधार नहीं हुआ है। उच्च गति वाले ट्रेन परिवहन को यदाकदा वाली बुलेट ट्रेन नहीं बल्कि वंदे भारत जैसी ट्रेन चाहिए जो शताब्दी या राजधानी की तुलना में 50 फीसदी तेजी से चले।
अलग-अलग मार्गों पर जल्दी से जल्दी लोगों को वंदे भारत का अनुभव कराने की आकांक्षा को समझा जा सकता है लेकिन जिन मार्गों पर 110 या 120 किलोमीटर प्रति घंटे के बजाय 160 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से ट्रेन चलाई जा सकती है तो उन पर नई ट्रेनों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो नई ट्रेनों में निवेश का वांछित प्रतिफल नहीं हासिल होगा। सरकार के पास अब रेल बजट नहीं है जहां वह ऐसी घोषणाएं कर सके लेकिन उसे भारतीय रेल के बारे में पारदर्शी, रणनीतिक निर्णय प्रक्रिया अपनाने से नहीं चूकना चाहिए।