विकासशील देशों को अगर विशुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है तो कम कार्बन उत्सर्जन वाले तरीके ही बेहतर रणनीति माने जाएंगे। बता रहे हैं विजय केलकर और राहुल पई पाणंदीकर
भविष्य में ऊर्जा को लेकर बनने वाले किसी भी परिदृश्य में भारत प्राथमिक ऊर्जा खासकर तेल एवं गैस का विशुद्ध आयातक बना रहेगा। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुमानों के मुताबिक तेल एवं गैस का आयात निरंतर 50 फीसदी से अधिक बना हुआ है।
यह स्थिति वृहद अर्थव्यवस्था के लिए वांछनीय नहीं है और भारत को गहरी अनिश्चितता का शिकार बनाती है। यह अनिश्चितता न केवल कीमत के संदर्भ में है बल्कि आपूर्ति की सुरक्षा के संबंध में भी है।
हमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातों पर ध्यान देना चाहिए जो कहते हैं, ‘ऊर्जा सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा है।’ आधुनिक संदर्भों में महाशक्ति बनने के लिए ऊर्जा के क्षेत्र में आजादी हमारा अहम नीतिगत लक्ष्य होना चाहिए।
बीते दो दशक के दौरान भारत नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ता रहा है। परंतु सभी प्रमुख क्षेत्रों को लेकर एकतरफा हल पर निर्भर रहने के अपने जोखिम भी हैं।
भारत को अगले कुछ दशकों के दौरान योजनाबद्ध ढंग से विविध तकनीकों तथा ऊर्जा स्रोतों पर दांव लगाना चाहिए। यही वह अवधि होगी जब हमारे पास एक अनूठा जनांकिकीय लाभ होगा। इस लाभ के परिणामस्वरूप हमें जो वृद्धि हासिल होगी वह हमें बदलाव के पथ पर सहजता से ले जाएगी और हमें गरीबी और उसके परिणामस्वरूप सामाजिक उथल-पुथल से बचाने में मदद करेगी।
मोदी ने 2070 तक इस स्थिति में बदलाव लाने का एक समझदारी भरा खाका पेश किया है। हमें इस अवधि का योजनाबद्ध ढंग से और समझदारीपूर्वक इस्तेमाल करना चाहिए।
विकसित देश बिना कार्बन वाले ईंधन को आगे की इकलौती राह मानकर आगे बढ़ रहे हैं। बहरहाल, यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि विकसित देशों द्वारा विशुद्ध शून्य उत्सर्जन की दिशा में बढ़ने के लिए कम कार्बन उत्सर्जन वाले मार्गों को अपनाना बेहतर रणनीति है।
प्राकृतिक गैस इस दिशा में अहम योगदान कर सकती है क्योंकि वह अपेक्षाकृत रूप से पर्यावरण के अधिक अनुकूल तथा कम कार्बन खपत वाला विकल्प है।
विश्व स्तर पर तथा भारत में इस क्षेत्र के उद्भव एवं आकार की कहानी दरअसल दो भिन्न शहरों की कहानी है- एक जहां गैस फली-फूली तथा नवीकरणीय ऊर्जा के केंद्रीय भूमिका में आने तक ईंधन के क्षेत्र में जवाबदेही के साथ पुल की भूमिका निभाती रही। जबकि दूसरा जहां नीतिगत अनिरंतरता तथा बाजार संकेतों ने गैस आधारित अर्थव्यवस्था के विकास को प्रभावित किया।
दुर्भाग्यवश भारत बाद वाली श्रेणी में आता है और इसके परिणामस्वरूप हमारी कुल ऊर्जा खपत में प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी केवल 6-7 फीसदी है जबकि वैश्विक औसत करीब 25 फीसदी का है। हमने खुद इसके लिए 15 फीसदी का तात्कालिक तथा 23-25 फीसदी का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है।
गैस को लेकर भारत के नीतिगत रुख में एक बड़ी कमी संसाधनों की कमी की मानसिकता से उपजी और इसे व्यापार योग्य नहीं माना गया। ऐसे में आवंटन से जुड़े नीतिगत चयन और कीमतों में कमी ने संसाधन की दुर्लभता की धारणा को ही मजबूत किया।
इस प्रकार भारत निरंतर इसकी कमी की स्थिति में बना रहा। यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि प्राकृतिक गैस अब एक कारोबारी जिंस है जिसमें तेज वृद्धि देखने को मिल रही है क्योंकि दुनिया भर में इसका उत्पादन बढ़ रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर बहस और हाइड्रोकार्बन तथा गैस को लेकर मजबूत नीति की सहायता से ही हम अपने प्राकृतिक गैस संसाधनों के जवाबदेह और टिकाऊ उत्खनन से उत्पन्न आर्थिक और सुरक्षा संबंधी लाभ हासिल कर सकते हैं।
जिन क्षेत्रों पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है वे हैं देश में जोखिम और पुरस्कार की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए एक स्थिर वित्तीय ढांचा तैयार करना, एक ऐसी कीमत प्रणाली तैयार करना जो बाजारोन्मुखी हो, अपने संसाधनों का उचित मूल्य तैयार करना, एक ऐसा बाजार ढांचा तैयार करना जो स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे, ऐसे संचालन और प्रशासनिक ढांचे जो भरोसा पैदा करें और ऐसी नीतियां जो सहकारी संघवाद के साथ तालमेल वाला माहौल तैयार करें। इन वांछित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हम एक पंचकोणीय रणनीति का प्रस्ताव रखते हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर के श्रेष्ठ व्यवहारों तथा संस्थागत ढांचे में उनकी हमारी व्यवहार्यता के हमारे आकलन पर निर्भर है।
सबसे पहले हमें स्पष्ट रूप से उत्पादन साझेदारी अनुबंध प्रणाली को अपनाना होगा। यह खासतौर पर आवश्यक है क्योंकि हमारे हाइड्रोकार्बन बेसिन के साथ जोखिम जुड़े हुए हैं। ऐसा करने से अत्यावश्यक जोखिम पूंजी आएगी और हमारे बेसिनों को विकसित करने और उत्खनन के लिए जरूरी विशेषज्ञता प्राप्त होगी। इस क्षेत्र में मैक्सिको का अनुभव शिक्षाप्रद है। यहां निजी क्षेत्र ने उत्साहपूर्वक भागीदारी की। बीपी, टोटाल, एक्सॉन मोबिल, ईएनआई जैसी विदेशी कंपनियों ने मैक्सिको की कंपनियों के साथ मिलकर बोलियां लगाईं।
दूसरा, प्रशासनिक मूल्य नियंत्रण को समाप्त करने के लिए समयबद्ध कार्यक्रम की आवश्यकता है। इसमें प्राकृतिक गैस के लिए भिन्न-भिन्न उपभोक्ता मूल्य शामिल हैं और साथ ही उसे एलएनजी के समान बनाना भी। इससे उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को पारदर्शी और बाजार संचालित संकेत जाएगा। दोनों को इस स्पष्टता का लाभ मिलेगा।
तीसरा, परिवहन और विपणन को प्राकृतिक गैस क्षेत्र से अलग करके एक नियम आधारित ‘स्वाभाविक’ ढुलाई व्यवस्था कायम करना जरूरी है ताकि उपभोक्ताओं को उदार विपणन माहौल का लाभ मिल सके। राष्ट्रीय प्राकृतिक गैस पाइपलाइन नेटवर्क का निर्माण व्यवस्था में स्थिरता को बढ़ाएगा और घरेलू स्रोतों तथा अंतरराष्ट्रीय समुद्री पाइपलाइन से आपूर्ति को सुरक्षित बनाएगा।
चौथा, यह सुनिश्चित करना अहम है कि गैस आधारित बिजली को व्यावहारिक बनाए रखा जाए। बिजली बाजारों में नीतिगत सुधारों के दौरान इसका ध्यान रखना होगा। ऐसा इसलिए जरूरी है ताकि बाजार कहीं अधिक लचीली गैस आधारित बिजली की खपत कर सकें।
पांचवा, हमें गैस आधारित माइक्रोग्रिड्स का लाभ लेना चाहिए जो किफायती भी हैं और जलवायु एजेंडे के अनुकूल भी हैं। इसके साथ ही ये नीति निर्माण के विकेंद्रीकरण को भी मजबूती प्रदान करती हैं।
आखिर में अब वक्त आ गया है कि समुद्र की सतह के नीचे एक कॉरिडोर तैयार करने के बारे में बात की जाए जो खाड़ी के प्रमुख गैस उत्पादक देशों को भारत के साथ जोड़े और भविष्य का एक सुसंगत बाजार तैयार किया जा सके।
जटिलताओं से भरे इस क्षेत्र में यह बहुत जरूरी सुसंगत परस्पर निर्भरता लाएगा और राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता में अहम योगदान करेगा। पेरिस समझौते में हमारे वादे को देखते हुए इसके आर्थिक और नैतिक दोनों तरह के निहितार्थ हैं।
(लेखक क्रमश: पुणे इंटरनैशनल सेंटर के वाइस-प्रेसीडेंट और बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, भारत के प्रबंध निदेशक एवं सीनियर पार्टनर हैं)