दरभंगा (भारत) और जनकपुर (नेपाल) के बीच की दूरी मुश्किल से 80 किलोमीटर है। नेपाल में जेनरेशन-ज़ी (जेनज़ी) के नेतृत्व में काफी उथल-पुथल दिखी, मगर दरभंगा में उसकी छवि बेहद धुंधली है। ध्यान देने की बात यह है कि जिन घटनाओं का नेपाल के कई राजनेताओं और उनकी पार्टियों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है, उनका मात्र 100 किलोमीटर दूर दरभंगा की शांति और यहां तक कि निराशा पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
सूरज राय सड़क के किनारे तिरपाल से ढकी अपनी दुकान में धुआंदार तवे पर आलू के परांठे बेलते और पलटते हुए बात करते हैं। वह खुद को ‘कैटरर’ बताते हैं जो 30 वर्षों से दरभंगा के उमा सिनेमा के पास उसी जगह पर काम करते हैं। उन्होंने कहा, ‘जब लोग ढाई रुपये में पिक्चर देखते थे, तब हम आठ आने का सिंघाड़ा (समोसा) बेचते थे।’ उनकी दुकान के पास में ही तरह-तरह की चीजें बहाकर ले जाने वाला एक नाला बजबजा रहा था। स्वच्छता के अभाव के बावजूद उन्हें 20 गुणा 20 फुट की अपनी दुकान पर गर्व है और राजनीति के बारे में उनकी राय बिल्कुल स्पष्ट है।
उन्होंने कहा, ‘मैं मोदीजी को वोट दूंगा।’ उन्होंने कहा, ‘मैं नीतीशजी को केवल इसलिए वोट दूंगा क्योंकि इससे मैं मोदीजी को वोट दे पाता हूं।’ उन्होंने बिना पूछे लगभग चुनौती भरे अंदाज में कहा, ‘मैं जसवाल कुर्मी हूं।’ उन्होंने यह संदेश देना चाहा कि वह बिहार के मुख्यमंत्री के साथ अपनी जातिगत एकजुटता को तोड़ रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘मोदीजी ने देश के लिए बहुत कुछ किया है।’ मगर आजीविका, रोजगार और चारों ओर फैली बदहाली का क्या? वह कंधे उचकाते हैं। उनका मन पक्का हो चुका है। व्यापक राष्ट्रीय हित में मिथिलांचल में ये मसले उथल-पुथल नहीं लाते।
मगर 100 किलोमीटर दूर नेपाल में क्रांति जारी है। नेपाली में एक कहावत है कि ‘कुक्कुर मारने गए थियो, बाघ मारेरा आयो’। यानी कुत्ते को मारने निकला था, लेकिन बाघ को मार डाला। वहां आंदोलन से जुड़े नेताओं के साथ-साथ किसी को भी इस तरह के नतीजे की उम्मीद नहीं थी कि प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ेगा। सभी स्थापित राजनीतिक दलों के पदानुक्रम का पतन हो जाएगा। मगर अब उन पर खुद को एक नया रूप देने और नए सिरे से ढलने का दबाव है।
वहां ऐसा ही हो रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड को नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएन माओवादी) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर उसका समन्वयक बनना पड़ा और आगजनी में नष्ट हुए पार्टी कार्यालय के पुनर्निर्माण के लिए आधारशिला रखनी पड़ी। एक अन्य माओवादी प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने पूरी तरह से राजनीति छोड़ दी है। नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन एमाले) के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा (नेपाली कांग्रेस) को अपनी-अपनी पार्टियों के नेतृत्व से इस्तीफा देने के लिए कहा जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के रवि लामिछाने दोबारा जेल में हैं। पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल के अनुसार, पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह से कुछ जेनज़ी प्रतिनिधियों ने राष्ट्रपति आरसी पौडेल के इस्तीफे के बाद संवैधानिक सम्राट बनने के लिए संपर्क किया था। मगर पौडेल ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया जिससे पद खाली नहीं हो पाया। वैसे भी शाह चाहते थे कि सभी राजनीतिक दल उनकी वापसी के लिए सहमत हों। उनके समर्थक दुर्गा प्रसाई राजा के आशीर्वाद से एक राजनीतिक पार्टी शुरू करने का प्रस्ताव कर रहे हैं। प्रसाई बैंक धोखाधड़ी के आरोपों में फिलहाल जमानत पर बाहर हैं।
दरभंगा के लोगों ने अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लिया है और वे किसी भी चीज के लिए मौजूदा सरकार को दोषी नहीं ठहराते हैं। मगर वहां से करीब 80 किलोमीटर दूर जेनज़ी कोई समझौता करने के लिए तैयार नहीं है। आंदोलन के एक नेता मिराज ढुंगाना ने पिछले सप्ताह कहा कि अगर आंदोलन की बुनियादी मांगों- सीधे तौर पर निर्वाचित कार्यपालिका और विदेश में रहने वाले नेपाली नागरिकों के लिए मतदान का अधिकार और भ्रष्टाचार पर कार्रवाई- को पूरा नहीं किया गया तो वह एक नई राजनीतिक पार्टी बनाएंगे।
फिलहाल यह आकलन करना मुश्किल है कि अगले साल मार्च में होने वाले चुनावों से पहले इन मुद्दों को कैसे निपटाया जा सकता है। इसके लिए साल 2015 के संविधान- विशेष रूप से चुनावी प्रणाली से संबंधित भागों- में संशोधन करने की आवश्यकता होगी। नेपाल में 275 सदस्यों के सदन में 165 सीधे तौर पर निर्वाचित होते हैं। बाकी आनुपातिक प्रतिनिधित्व के जरिये चुने जाते हैं। इससे कोई भी पार्टी सरकार बनाने के लिए बहुमत हासिल नहीं कर सकती है। इसलिए संविधान में संशोधन करना आसान नहीं है।
भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया गया है। मगर उसे अपना काम पूरा करने में कई साल लगेंगे। इस बीच, पारंपरिक पार्टियां हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी हैं। प्रचंड ने तुरंत कहा था कि जेनज़ी ने जो कुछ भी कहा है उससे वह सहमत हैं। नेपाली कांग्रेस में देउबा की जगह किसी अन्य को, संभवतः शेखर कोइराला, को लाने के लिए अभियान चल रहा है। कोइराला भी जेनज़ी से सहमत हैं। जेनज़ी का कोई स्पष्ट समूह या नेता न होने के कारण मतदाताओं को यह पता लगाने में काफी मुश्किल होगी कि असली जेनज़ी कौन है। राजनीतिक पार्टियों की रीब्रांडिंग उसी ओर इशारा करती है। वास्तव में चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही वैसी रहती हैं।
बहरहाल दरभंगा में लोग अपनी स्थिति से खुश नहीं हैं, लेकिन उन्होंने इससे समझौता कर लिया है। नेपाल में भी ढांचागत बदलाव बहुत दूर की कौड़ी लगता है। कहानी किसी धमाके के साथ नहीं, बल्कि एक घिसी-पिटी बात के साथ खत्म होती है।