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राजनीति और सत्ता का स्थानीयकरण जरूरी

भारत और पूरी दुनिया को शासन के निचले स्तर तक सत्ता पहुंचानी चाहिए ताकि जनता राजनीतिक प्रक्रिया से कट न जाए। विस्तार से बता रहे हैं

Last Updated- April 02, 2025 | 10:06 PM IST
राजनीतिक बदलाव की दो कहानियां, Tale of two crossovers

ट्रंप के दौर में मची उथलपुथल ने हर देश को यह देखने का मौका दिया है कि उसकी आर्थिक नीतियां और सुधार अब भी सार्थक हैं या नहीं। कई टीकाकारों ने सरकार से अपनी संरक्षणवादी मानसिकता पर दोबारा विचार करने और कम शुल्क तथा अधिक होड़ के लिए तैयार रहने का आग्रह किया है। इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता मगर एक बुनियादी सवाल खडा होता है: क्या ट्रंप के कहर से पहले दुनिया ठीक काम कर रही थी?

मुझे लगता है कि बिगड़ी हुई वैश्विक अर्थव्यवस्था को केवल आर्थिक सुधारों से ठीक नहीं किया जा सकता। कोई भी देश ऐसी दुनिया में नहीं जीता, जहां केवल अर्थव्यवस्था मायने रखती हो। हम राजनीतिक अर्थव्यवस्था में रहते हैं और राजनीतिक व्यस्थाएं सुधारे बगैर आर्थिक नीतियां सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, जो नई आफत को जन्म देगी।

ट्रंप की जीत को इकलौती घटना समझ लेना खुद को बहलाने जैसा है। वैसी ही आर्थिक और राजनीतिक ताकतें फ्रांस की नैशनल रैली नादानी है। वैसी ही आर्थिक और राजनीतिक ताकतों ने फ्रांस में मरीन ल पेन (जो अब चुनाव नहीं लड़ सकतीं) के नेतृत्व वाली नैशनल रैली, जर्मनी में एलिस वीडेल के नेतृत्व वाल अल्टरनेटिव्स फॉर डायचेलैंड और यूनाइटेड किंगडम में नाइजेल फराज की रिफॉर्म पार्टी को उभारा। अगर राजनीतिक व्यवस्थाएं वाकई लोगों के लिए काम कर रही थीं तो अपनी असहमति जताने के लिए उन्हें अतिवादी स्वरों की जरूरत क्यों पड़ी?
जरूरत है राजनीति, राजनीतिक विचारधारा और व्यवस्था को सुधारने की। उसके बगैर आर्थिक सुधारों का वह फायदा नहीं मिलेगा, जो अर्थशास्त्री चाहते हैं। वजह साफ है – सरकार बदलने पर या संकट आने पर हर बार आर्थिक नीति बदली है, लेकिन ज्यादातर देशों में आधी सदी या उससे भी अधिक समय (भारत में तीन चौथाई सदी) से राजनीतिक व्यवस्थाएं नहीं बदली हैं। जब तकनीक और सूचना (सही या गलत) हमारी जिंदगी का इतना बड़ा हिस्सा हैं और ये बदलाव हफ्तों न सही महीनों में तो हो ही जाते हैं तो हम कैसे मान सकते हैं कि 19वीं या 20वीं सदी में बनी राजनीतिक व्यवस्थाएं आज भी कारगर होंगी? यह बिल्कुल वैसा है, जैसे आज के कंप्यूटर 8088 चिप या एमएस-डॉस पर चलाए जाएं। क्या दूसरे विश्व युद्ध के बाद आईं उदार विचारधाराएं ऐसी दुनिया में टिकेंगी, जहां लोग संस्कृति और पहचान की उतनी ही फिक्र करते हैं, जितनी नौकरियों की? ये फिक्र खत्म नहीं हुईं तो अवैध आप्रवासियों और नागरिकता के खिलाफ बगावत क्यों नहीं होगी?

वाम उदारवाद और अभिजात्यवाद के विरुद्ध जन विद्रोह इसलिए हा है क्योंकि लोग अब नहीं मानते कि उनके जीवन या उसे प्रभावित करने वाली बातों पर उनका नियंत्रण रह गया है। इसलिए पहला और सबसे अहम बदलाव होगा लोगों को वे फैसले स्थानीय स्तर पर करने देना, जो अभी सरकार में उच्च स्तर पर हो रहे हैं।

दुनिया को आज जो राजनीतिक बदलाव चाहिए वह है सत्ता का तगड़ा विकेंद्रीकरण। आर्थिक और राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया यथासंभव निचले स्तरों पर ले जानी चाहिए चाहे उसके बाद कुछ स्थानीय निर्णय कम उदार या कम समावेशी क्यों न लगें। देश के कुछ हिस्से अगर विदेशियों को मनाही कर रहे हैं तो करने दीजिए। दूसरे उनका स्वागत कर रहे हैं तो करने दीजिए। लोग जल्द ही सीख जाते हैं कि क्या कारगर है और क्या नहीं।

देश की राजनीतिक व्यवस्था केंद्रीकरण के पक्ष में लगती है। इसकी वजह यह भी है कि आजादी के समय जब सैकडों रियासतों और ब्रिटिश प्रांतों को देश में मिलाया गया था तब छोटे-छोटे देश बनने का खतरा था। आज वह खतरा नहीं है। मगर यहां सारी ताकत केंद्र के हाथों में आने की बात नहीं है क्योंकि राज्य भी ऐसा ही करते हैं। इसीलिए स्थानीय हित के मुद्दे अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। परिसीमन और भाषा के मुद्दे राज्य के नजरिये से बड़े लगते हैं मगर आम जिले या शहर के लिए उनका कोई मतलब नहीं है। तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में होसुर कस्बे को चेन्नई नहीं बल्कि बेंगलूरु के करीब होने का फायदा मिला है। नोएडा अगला गुरुग्राम और स्टार्टअप का ठिकाना इसलिए नहीं बन रहा कि वह उत्तर प्रदेश में है बल्कि इसलिए बन रहा क्योंकि वह दिल्ली से सटा है और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आता है। तब होसुर और नोएडा के बारे में फैसले वहीं होने चाहिए या चेन्नई और लखनऊ से होने चाहिए?

राजनीतिक और सामाजिक समस्याएं स्थानीय स्तर पर ज्यादा आसानी से हल हो सकती हैं। मसलन भारत में होने वाले हिंदू-मुस्लिम तनाव को राष्ट्रीय स्तर पर सुलझाया नहीं जा सकता मगर स्थानीय स्तर पर समझौता हो सकता है। दोनों समुदायों के लिए वहीं सौहार्द भरा हल निकालकर आर्थिक फायदे उठाना अच्छा होगा या राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर के राजनेताओं को इस बहाने दुश्मनी बढ़ाने का मौका देना?
मुद्दा यह है कि भारत जैसे बड़े और जटिल देश में या अमेरिका अथवा यूरोपीय संघ में एक जैसी नीतियां नहीं चल सकतीं। वे छोटे, एक संस्कृति वाले समाजों में ही चल सकती हैं, जहां आपसी भरोसा बहुत अधिक होता है। इसलिए ज्यादातर निर्णय स्थानीय स्तर पर होने चाहिए, कुछ क्षेत्रीय स्तर पर और कुछेक राष्ट्रीय स्तर पर।

मैं भारत के सबसे बड़े जिले ठाणे में रहता हूं, जिसकी आबादी 2011 में 1.1 करोड़ थी। ठाणे से काटकर नया जिला पालघर बना दिया गया फिर भी उसकी आबादी 1 करोड़ से ज्यादा होगी, जो पुर्तगाल, स्वीडन या चेक गणराज्य से अधिक है। ठाणे में छह नगर निकाय हैं, जिनमें ठाणे सिटी और नवी मुंबई कारोबार के बड़े केंद्र हैं। मुंबई का दूसरा हवाई अड्‌डा इस वर्ष नवी मुंबई में शुरू होने वाला है। ऐसे में ठाणे की ज्यादातर आबादी का प्रशासन केंद्र से हो, राज्य से या स्थानीय स्तर पर? औसत भारतीय जिलों की आबादी करीब 20 लाख है, जो दुनिया के 84 देशों से अधिक है। अलग-अलग संस्कृतियों वाले इन छोटे-छोटे क्षेत्रों का संचालन कैसे होना चाहिए? क्या घनी आबादी वाले उत्तर प्रदेश के लिए बना खाद्य सुरक्षा अधिनियम मणिपुर में भी लागू होना चाहिए?

मैं चार्टर सिटी पर यकीन करता हूं, जो राज्य और शहर के बीच की स्थिति होती है और शहर के पास निवेश एवं रोजगार के अनुकूल नीतियां बनाने की अधिक गुंजाइश होती है। उनके पास मौद्रिक और राजकोषीय नीति, नागरिकता, आंतरिक व्यापार, आंतरिक सुरक्षा आदि पर नीति बनाने का अधिकार नहीं होता क्योंकि यह काम केंद्र और राज्य बेहतर कर सकते हैं।

विकेंद्रीकरण के बगैर, शहर बनाए बगैर, जिला प्रशासन, नगरीय निकायों और ग्रामीण परिषदों को अधिक आत्मनिर्भर और स्वायत्त बनाए बगैर हम वृद्धि और रोजगार नहीं बढ़ा सकते। अधिक रोजगार इसलिए नहीं आ रहा क्योंकि उद्यमशीलता और रोजगार में बाधा डालने वाले कानून- अति नियमन, नौकरशाही और भ्रष्टाचार आदि दिल्ली और राज्यों में बनते हैं मगर उन्हें ग्रामीण राजनेता चलाते हैं। ये कानून मदुरै, दुर्गापुर, ठाणे या नवी मुंबई में नहीं बनते। हमें स्थानीय शासन को निर्णय प्रक्रिया के केंद्र में लाना होगा।

First Published - April 2, 2025 | 10:01 PM IST

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