हर वर्ष आम बजट के माध्यम से केंद्र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा किए गए निवेश तथा जुटाए गए संसाधनों के आंकड़े जारी करती है। उदाहरण के लिए इस माह के अंतरिम बजट में दिखाया गया कि चालू वर्ष में भारतीय रेल समेत 169 सरकारी उपक्रमों में 8.4 लाख करोड़ रुपये का पूंजी का निवेश किया जाना है।
यह राशि 2022-23 में इस मद में इस्तेमाल की गई राशि से 15 फीसदी अधिक है। दस वर्ष पहले 147 ऐसी कंपनियां थीं जिनके लिए वर्ष 2013-14 में 3.32 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत आवंटन किया गया था।
अगर आप व्यापक नजरिये से इन आंकड़ों को देखें तो आपको अपने पूंजी निवेश के बरअक्स सरकारी कंपनियों के प्रदर्शन, केंद्र से उन्हें मिलने वाली वित्तीय सहायता और अपने दम पर संसाधन जुटाने की उनकी क्षमता को लेकर एक बेहतर समझ हासिल होगी।
अगर आप मनमोहन सिंह सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल के दौरान किए गए पूंजी निवेश की तुलना प्रधानमंत्री मोदी के 10 वर्ष के कार्यकाल से करें तो इस कवायद से आपको इन रुझानों को लेकर एक नई समझ मिलेगी।
दशक भर की यह तुलना क्या दिखाती है? सरकारी कंपनियों के पूंजीगत आवंटन के मामले में मोदी सरकार का प्रदर्शन बेहतर रहा है। वर्ष 2014-15 से 2023-24 के बीच इसमें 65.71 लाख करोड़ रुपये का निवेश हुआ जो 2004-05 से 2013-14 के बीच हुए 19.92 लाख करोड़ रुपये के आवंटन से करीब तीन गुना अधिक है।
परंतु अगर केंद्र सरकार के कुल बजट के प्रतिशत या भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत से तुलना की जाए तो यह बढ़ोतरी अपेक्षाकृत कम नजर आती है। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दस वर्षों में सरकारी उपक्रमों का पूंजीगत आवंटन कुल बजट व्यय का 20.58 फीसदी था और वह 2014-24 के दौरान बढ़कर 23 फीसदी हो गया। इसी प्रकार जीडीपी के प्रतिशत के रूप में सरकारी कंपनियों का पूंजीगत आवंटन समान अवधि में मामूली रूप से बढ़कर 3.05 फीसदी से 3.32 फीसदी हो गया।
इन सरकारी कंपनियों की इक्विटी में सरकार के योगदान में जरूर बड़ा बदलाव आया। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के 3.15 लाख करोड़ रुपये की तुलना में मोदी सरकार के कार्यकाल में यह छह गुना बढ़कर 19.93 लाख करोड़ रुपये हो गया। जीडीपी और सरकारी बजट व्यय दोनों ही तरह से उसकी हिस्सेदारी क्रमश: एक फीसदी और सात फीसदी बढ़ी।
सरकारी कंपनियों के आंतरिक संसाधन तैयार करने और अन्य संसाधन हासिल करने की उनकी क्षमता में परिवर्तन भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल वाले वर्षों में सरकारी उपक्रमों ने 9.67 लाख करोड़ रुपये के आंतरिक संसाधन जुटाए जो केंद्र सरकार के बजट का 10 फीसदी और जीडीपी का 1.5 फीसदी था।
बाद के 10 वर्षों में सरकारी उपक्रमों के आंतरिक संसाधन केवल 84 फीसदी बढ़कर 17.8 लाख करोड़ रुपये हुए। बजट व्यय और जीडीपी में इनकी हिस्सेदारी घटकर क्रमश: 6.25 फीसदी और 0.9 फीसदी रह गई।
ऐसे रुझान उस दौरान भी जारी रहे जब सरकारी उपक्रमों ने अपने निवेश के लिए कुल संसाधन जुटाए, हालांकि मोदी सरकार के कार्यकाल में बॉन्ड और बाहरी वाणिज्यिक उधारी पर निर्भरता बढ़ी। 2004 से 2014 के बीच सरकारी उपक्रमों द्वारा निवेश के लिए चिह्नित संसाधन 17.45 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 41.38 लाख करोड़ रुपये हो गए लेकिन बजट व्यय और जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी क्रमश: 18 फीसदी और 2.67 फीसदी से घटकर 14.5 फीसदी और 2.09 फीसदी रह गई।
इससे क्या निष्कर्ष निकलते हैं? मोदी सरकार ने 10 वर्ष की समान अवधि में मनमोहन सिंह सरकार की तुलना में सरकारी उपक्रमों में अधिक इक्विटी डाली। यह सरकारी क्षेत्र के साथ इन दोनों सरकारों के बारे में आम धारणा से उलट है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को सरकारी उपक्रमों के प्रति अधिक मित्रवत माना जाता है और ऐसी धारणा बनी कि उसने उन्हें समुचित वित्तीय सहायता मुहैया कराई।
यह भी माना जाता है कि वह सरकारी कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने के बारे में अनिर्णय में रही। इसके विपरीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को विनिवेश और निजीकरण पर ध्यान केंद्रित करने वाली माना जाता है और यह भी कि वह सरकारी उपक्रमों को विशेष वित्तीय सहायता मुहैया कराती नहीं दिखती।
हकीकत अलग है। सरकारी उपक्रमों में सरकारी इक्विटी की बात करें तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में इस क्षेत्र के कुल पूंजीगत आवंटन में यह 15.8 फीसदी थी जबकि मोदी सरकार के 10 साल में यह दोगुनी बढ़कर 30.33 फीसदी हो गई। बीते दो दशक में भारतीय रेल, सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण, राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और एयर इंडिया जैसे चार संस्थानों में ही सरकारी इक्विटी का 80 से 90 फीसदी आया।
दिलचस्प बात यह है कि सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण में ही सरकार द्वारा डाली गई इक्विटी का अधिकांश हिस्सा चला गया। 2004-14 के दौरान इस तरह की पूंजी का निवेश कुल पीएसयू की इक्विटी का करीब 14 फीसदी और बाद के 10 वर्षों में करीब 17 फीसदी था।
मोदी सरकार के कार्यकाल में अंतर यह था कि इस अवधि में अधोसंरचना क्षेत्र मसलन भारतीय रेल, राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और भारत संचार निगम लिमिटेड जैसी अधोसंरचना में अधिक इक्विटी डाली गई। दूसरे शब्दों में कोविड के बाद सरकार के पूंजीगत व्यय में तेज इजाफा अधोसंरचना क्षेत्र की कंपनियों में नजर आया। सरकारी उपक्रमों द्वारा गत दस वर्षों में जुटाए गए आंतरिक संसाधनों में कमी जरूर चिंता का विषय है। बॉन्ड और बाह्य वाणिज्यिक उधारी में इजाफे के बावजूद सरकारी उपक्रमों द्वारा जुटाए गए आंतरिक संसाधन 2014 के बाद लगातार कम हुए हैं।
इस द्वंद्व की अनदेखी करना मुश्किल है। मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकारी उपक्रमों में अधिक इक्विटी डाली गई है लेकिन इन उपक्रमों द्वारा अपनी निवेश योजना के लिए संसाधन जुटाना उतनी ही तेजी से कम हुआ है। यह तब हुआ है जब मोदी सरकार की विनिवेश प्राप्तियां 2014 से 2024 के बीच तेजी से बढ़ी हैं और मनमोहन सिंह के कार्यकाल के 1.6 लाख करोड़ रुपये की तुलना में करीब तीन गुना हुई हैं।
बेशक जीडीपी के प्रतिशत के रूप में दोनों सरकारों के कार्यकाल में विनिवेश प्राप्तियां 0.25 फीसदी रही हैं। अब वक्त आ गया है जब सरकारी उपक्रमों को लेकर मोदी सरकार के रुख को चिह्नित किया जाए। इसने सरकारी उपक्रमों में इक्विटी डालने में अधिक व्यय किया है जबकि इन संस्थानों की आंतरिक संसाधन जुटाने की क्षमता में कोई सुधार नहीं नजर आया है।
अब वह समय आ गया है जब सरकार प्राथमिकता के आधार पर सरकारी उपक्रमों के प्रबंधन में सुधार के लिए प्रयासरत है।