भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने मौद्रिक नीति ढांचे की समीक्षा पर एक परिचर्चा पत्र जारी कर अच्छा कदम उठाया है। इस परिचर्चा पत्र में चार प्रमुख बिंदुओं पर सुझाव मांगे गए हैं। लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्य (एफआईटी) ढांचे को कानूनी शक्ल देने के लिए वर्ष 2016 में आरबीआई अधिनियम में संशोधन किया गया था। ‘आर्थिक वृद्धि के लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करते हुए मूल्य स्थिरता बनाए रखने’ का इस अधिनियम में आरबीआई को स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
इसके अनुसार आरबीआई से यह उम्मीद है कि वह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति दर 4 फीसदी पर नियंत्रित रखेगा। इसमें 2 फीसदी अंक घट-बढ़ हो सकती है। इस कानून के प्रावधानों के अनुसार केंद्र सरकार को आरबीआई के साथ मिलकर हर पांच वर्ष में एक बार मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारित करना है। वर्ष 2021 में इस लक्ष्य की समीक्षा की गई थी जिसमें इसे (4 फीसदी लक्ष्य) अपरिवर्तित छोड़ दिया गया था। यह लक्ष्य मार्च 2026 तक वैध है जिसे देखते हुए आरबीआई ने परिचर्चा पत्र जारी किया है।
एफआईटी हाल के दशकों के सबसे प्रमुख सुधारों में एक रहा है। एफआईटी ने केंद्रीय बैंक को एक स्पष्ट लक्ष्य दिया जिससे नीतिगत स्तर पर पारदर्शिता बढ़ गई और संवाद के आदान-प्रदान की प्रक्रिया भी काफी सुधर गई। इस ढांचे का एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) है। इस छह सदस्यीय समिति में गवर्नर सहित आरबीआई के तीन सदस्य और तीन बाहरी सदस्य होते हैं। एमपीसी मुद्रास्फीति का लक्ष्य हासिल करने एवं इसे स्थिर रखने के लिए नीतिगत रीपो दर का निर्धारण करती है।
यह ढांचा प्रभाव में आने के बाद न केवल नीति निर्धारण प्रक्रिया मजबूत हुई बल्कि इसमें और अधिक पारदर्शिता आ गई। पूर्व में जो व्यवस्था की गई थी उसमें मौद्रिक नीति पर आरबीआई गवर्नर निर्णय लेता था जिसकी अक्सर आलोचना होती थी और केंद्र सरकार के साथ केंद्रीय बैंक का टकराव बढ़ जाता था। अब तक जो आंकड़े सामने आए हैं उनके अनुसार एमपीसी ने आम सहमति के बजाय वैचारिक असहमति वाले फैसले अधिक किए हैं। यह एक स्वस्थ संकेत हैं और इस प्रक्रिया की मजबूती को दर्शाता है। एमपीसी की बैठक में सदस्यों के विचार भी बाद में सार्वजनिक किए जाते हैं। इस तरह, एफआईटी ढांचा पूर्व से चली आ रही व्यवस्था की तुलना में काफी मजबूत है। पहले आरबीआई को अक्सर विभिन्न उद्देश्यों के लिए एक मात्र जरिया यानी नीतिगत दरों का इस्तेमाल करते देखा जाता था।
एफआईटी व्यवस्था पिछले लगभग नौ वर्षों से प्रभाव में है। इस अवधि के दौरान औसत मुद्रास्फीति दर 4.9 फीसदी रही है जबकि पुरानी व्यवस्था (मौजूदा सीपीआई सीरीज) में यह 6.8 फीसदी थी। इस अवधि के दौरान मुद्रास्फीति में उतार-चढ़ाव काफी हद तक कम हो गया है। उल्लेखनीय है कि कोविड महामारी के बाद विभिन्न कारणों से भारत सहित दुनिया में मुद्रास्फीति दर काफी बढ़ गई है। कुल मिलाकर, इस ढांचे को जारी रखने पर कोई बड़ी चर्चा नहीं हो रही है। वास्तव में एक बार अमल में आने के बाद किसी भी बड़े देश ने मुद्रास्फीति नियंत्रण लक्ष्य की व्यवस्था अब तक समाप्त नहीं की है।
परिचर्चा पत्र में चार महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं। पहला, क्या हेडलाइन यानी समग्र या कोर यानी मुख्य मुद्रास्फीति मौद्रिक नीति तय करने का सबसे बड़ा आधार है? दूसरा, क्या 4 फीसदी मुद्रास्फीति दर का लक्ष्य अनुकूल है? तीसरा, क्या 2 फीसदी की घट-बढ़ का दायरा संशोधित किया जाना चाहिए? चौथा, क्या मुद्रास्फीति लक्ष्य एक स्तर न होकर एक दायरे के रूप में निर्धारित किया जाना चाहिए? यह देखना दिलचस्प होगा कि आरबीआई को किस तरह के सुझाव मिलते हैं। तकनीकी तौर पर बात करें तो केवल मुद्रास्फीति लक्ष्य की समीक्षा होनी है। किसी अन्य बदलाव के लिए आरबीआई अधिनियम में बदलाव करना होगा। जो भी हो, परिचर्चा पत्र में उठाए गए प्रश्न विचारणीय हैं।
यह ढांचा अपनाए जाने के बाद मुख्य या समग्र मुद्रास्फीति को आधार बनाए जाने का मुद्दा सिर उठाता रहा है। उदाहरण के लिए वित्त वर्ष 2023-24 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया कि आपूर्ति से जुड़ी बाधाओं के कारण उत्पन्न मुद्रास्फीति से निपटने के लिए लघु अवधि की मौद्रिक नीति का इस्तेमाल करना जोखिम भरा हो सकता है। जैसा कि आरबीआई के शीर्ष अधिकारियों सहित कई लोग कहते रहे हैं कि आम जनता की नजर में वस्तुओं की कीमतों में कुल बढ़ोतरी मायने रखती है और इसे लेकर उनके अनुमान समग्र मुद्रास्फीति दर से जुड़े होते हैं।
उदाहरण के लिए उपभोग बास्केट से खाद्य पदार्थों को हटाने से (जो खपत बास्केट में लगभग 46 फीसदी हिस्सेदारी रखते हैं) नीतिगत विश्वसनीयता का महत्त्व कम हो सकता है। सीपीआई में खाद्य पदार्थों के भार को देखते हुए सरकार भी आपूर्ति से जुड़े व्यवधान दूर करने के लिए अक्सर हस्तक्षेप करती है, हालांकि ऐसे हस्तक्षेपों के दूसरे परिणाम भी सामने आते हैं। इसके अलावा युगांडा के अलावा अन्य सभी देशों में मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाने वाले केंद्रीय बैंक समग्र मुद्रास्फीति दर पर विचार करते हैं। लिहाजा, समग्र मुद्रास्फीति दर के साथ आगे बढ़ने के मजबूत कारण मौजूद हैं।
इसी तरह, 4 फीसदी मुद्रास्फीति लक्ष्य और 2 फीसदी अंक घट-बढ़ की गुंजाइश का चयन सावधानीपूर्वक किए गए विश्लेषण और व्यावहारिक आंकड़ों के आधार पर किया गया था। जब तक अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं में कोई स्पष्ट बदलाव नहीं होता है तब तक लक्ष्य और सहनशीलता दायरा दोनों जारी रखना युक्तिसंगत माना जाएगा। आरबीआई के एक शोध के अनुसार भारत के लिए 4 फीसदी मुद्रास्फीति दर उपयुक्त है। जैसा कि परिचर्चा पत्र में उल्लेख किया गया है, समय के साथ कुछ देशों ने सहनशीलता का दायरा घटा दिया है। भविष्य में उपयुक्त समय पर नीतिगत ढांचे में अधिक निश्चितता लाने के लिए यह दायरा कम करना आवश्यक होगा।
फिलहाल सीपीआई में खाद्य पदार्थों की बड़ी हिस्सेदारी देखते हुए मौजूदा सहनशीलता दायरे को जारी रखना ही बुद्धिमानी होगी। जैसे-जैसे समग्र आर्थिक विकास के साथ उपभोग बास्केट में खाद्य पदार्थों की उपस्थिति कम होती जाएगी मुद्रास्फीति से जुड़े पहलुओं में अस्थिरता कम हो जाएगी। एक नई सीपीआई श्रृंखला अगले साल की शुरुआत में शुरू होने की उम्मीद है। एक निश्चित लक्ष्य के बजाय एक दायरा तय करने से नीति निर्धारण और इसका संचार दोनों से जुड़ी चुनौतियां पैदा हो सकती हैं जिससे विश्वसनीयता को चोट पहुंच सकती है। लिहाजा, इस समय एफआईटी ढांचे में बदलाव के लिए कोई ठोस एवं आवश्यक कारण मौजूद नहीं है। फिलहाल इस व्यवस्था के साथ बने रहने से तेजी से बदल रहे आर्थिक हालात में नीतिगत निश्चितता भी सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।