क्या यह भारत के संकटग्रस्त विद्युत वितरण क्षेत्र के लिए जश्न का समय है? इस महीने के आरंभ में केंद्र सरकार ने विद्युत अधिनियम,2003 के लिए प्रस्तावित संशोधन जारी किए। बिजली वितरण क्षेत्र के विधायी ढांचे में बदलाव के लिए आधिकारिक कारण यह बताया गया है कि यह क्षेत्र भारी घाटे से जूझ रहा है और नियामकीय देरियां इसकी वित्तीय हालत को और खस्ता कर रही हैं। शुल्कों के क्रॉस सब्सिडीकरण (यानी किसी एक वर्ग से ज्यादा शुल्क लेकर दूसरे वर्ग पर कम शुल्क लगाना) के कारण उद्योगों पर उच्च शुल्क लगाया जाता है जिससे औद्योगिक प्रतिस्पर्धा प्रभावित होती है और आर्थिक वृद्धि में अड़चन आती है।
ऐसे में केंद्रीय विद्युत मंत्रालय ने 9 अक्टूबर को मसौदा विद्युत(संशोधन) विधेयक 2025 को हितधारकों के समक्ष पेश किया और उनसे सार्वजनिक टिप्पणियां और सुझाव आमंत्रित किए। आश्चर्य नहीं कि उद्योग जगत के अधिकांश लोगों, विशेषज्ञों और टीकाकारों ने भी इसका स्वागत किया। प्रस्तावित बदलावों पर करीबी नजर डालें तो पता चलेगा कि बिजली वितरण सुधारों के घोषित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सरकार को क्या कुछ करना होगा।
वितरण कंपनियों द्वारा शुल्क वसूली से जुड़े पहले प्रस्ताव को लेते हैं। कागज पर देखें तो 32 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में काम कर रही 63 बिजली वितरण कंपनियों का औसत शुल्क संग्रह 96-97 फीसदी था। समेकित स्तर पर शायद यह आंकड़ा बहुत चिंताजनक नहीं लगे लेकिन मार्च 2024 तक इस क्षेत्र पर करीब 7.53 लाख करोड़ रुपये का कुल कर्ज था और करीब 6.3 लाख करोड़ रुपये का घाटा दर्ज हो चुका था।
असल समस्या यह है कि वितरण एजेंसियों की प्राप्तियां उस स्तर से काफी कम हैं जितनी उन्हें मिलनी चाहिए थी, अगर नियामकों ने समय पर टैरिफ संशोधन के आदेश जारी किए होते। इन संशोधनों के अभाव में बिल संग्रहण की अच्छी दर भी अधिकांश वितरण एजेंसियों के लिए अधिक गंभीर वित्तीय चुनौती को छुपा जाती है।
आदर्श रूप से उन्हें जो शुल्क वसूलना चाहिए तथा नियामकों द्वारा लागू किए गए शुल्कों के स्तर के बीच इतना बड़ा अंतर क्यों है? वर्ष 2024-25 में 32 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल 13 के विद्युत नियामकों ने समय पर शुल्क आदेश जारी किए। दूसरे शब्दों में कहें तो आधे से अधिक राज्य एक या दो साल पहले लिए गए निर्णय के आधार पर शुल्क संग्रहीत कर रहे होंगे। ये शुल्क आदेश कितने विलंब वाले हैं? 63 वितरण इकाइयों में से 57 के शुल्क आदेश वर्ष 2022-23 के हैं। इनमें दिल्ली भी शामिल है।
विद्युत अधिनियम 2003 के प्रस्तावित संशोधनों में इस क्षेत्र में एक साहसी सुधारात्मक उपाय की बात कही गई है। शुल्क दरों में संशोधन में देरी को रोकने के लिए कानून के जरिये राज्य विद्युत नियामक आयोगों को अधिकार संपन्न बनाया जाएगा ताकि शुल्क को स्वत: संशोधित किया जा सके जिससे नए वर्ष के आरंभ से ही नई शुल्क दरें क्रियान्वित की जा सकें।
याद रखें कि टैरिफ आदेशों में देरी केवल इस कारण नहीं होती कि नियामक अपने निर्णयों को अंतिम रूप देने में अत्यधिक समय लेते हैं। यह देरी इसलिए भी होती है क्योंकि वितरण कंपनियां (जिनमें से कई अपने-अपने राज्य सरकारों के प्रशासनिक नियंत्रण में होती हैं) समय पर याचिकाएं प्रस्तुत नहीं करतीं। राज्यों के लिए शुल्क संशोधन अक्सर राजनीतिक रूप से टालने योग्य स्थिति होती है।
अधिक आश्वस्त करने वाली बात है वह प्रस्तावित कानून जिसके तहत नियामकीय आयोगों के लिए ऐसी दरें तय करना अनिवार्य होगा जो उपभोक्ताओं को बिजली खरीदने और आपूर्ति करने की वास्तविक लागत को प्रतिबिंबित करें। इसके बावजूद राज्य सरकारें चुनिंदा उपभोक्ता वर्गों की सहायता कर सकेंगी और उन्हें रियायती बिजली दे सकेंगी। लक्ष्य यह है कि शुल्क दरों में क्रॉस सब्सिडी की नुकसानदेह प्रथा पर रोक लगाई जा सके।
सरकार द्वारा प्रस्तावित एक अन्य संशोधन कहता है कि राज्य के बिजली वितरकों के बीच प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करके उपभोक्ताओं को चयन करने का विकल्प दिया जाएगा। इससे नए बिजली वितरक को क्षेत्र में आने का मौका मिलेगा और वह पहले से मौजूद वितरण नेटवर्क का भी शुल्क चुकाकर इस्तेमाल कर सकेगा। इससे बिजली क्षेत्र में खुली पहुंच तय होगी। लागत कम करने और समर्पित वितरण अधोसंरचना बनाने के अलावा इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उपभोक्ताओं के पास विकल्प बढ़ेंगे। इस बात से इनकार नहीं है कि ये सभी बदलाव आवश्यक हैं लेकिन क्या मोदी सरकार ऐसा कर पाएगी?
इन बदलावों का राजनीतिक प्रतिरोध होगा। खासतौर पर राज्यों और सरकारी बिजली वितरण कंपनियों में काम करने वाले हजारों कर्मचारियों की ओर से। भूमि अधिग्रहण कानून और कृषि कानूनों में सुधारों को वापस लेना पड़ा था क्योंकि कई राज्यों में उनका भारी विरोध किया गया था। यहां तक कि नए श्रम कानून संसद से पारित होने के बाद भी लागू नहीं हो सके हैं क्योंकि सभी राज्य उन्हें लेकर सहमत नहीं हैं।
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हम केवल राजनीतिक दिक्कतों की बात ही क्यों करें? तीन साल पहले जो हुआ उसे भी नहीं भूलना चाहिए। सरकार अब विद्युत अधिनियम 2003 में बदलाव का जो प्रस्ताव रख रही है, पहले उनका सुझाव अगस्त 2022 में दिया गया था। विद्युत संशोधन विधेयक 2022 को लोक सभा में पेश किया गया था। मोदी सरकार तब अपने दूसरे कार्यकाल में थी और तब उसके पास आज से बड़ा बहुमत था। लेकिन उसे श्रम संगठनों और बिजली क्षेत्र के कर्मचारियों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। वर्ष2022 के विधेयक को तत्काल परीक्षण के लिए संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया था। वह बिल दोबारा सामने नहीं आया।
क्या अब ऐसी कोई उम्मीद है कि मोदी सरकार बिजली वितरण क्षेत्र के लिए प्रस्तावित नए संशोधन विधेयक को लेकर राजनीतिक विरोध से निजात पा सकेगी? कुछ हालिया घटनाएं उम्मीद बंधाती हैं। एक उदाहरण तो यह है कि नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में चर्चा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा लगाए गए शुल्क और वीजा नीतियों से उत्पन्न अनिश्चितताओं के मद्देनजर भारत सरकार अब वृद्धि की गति को बनाए रखने के लिए सुधारात्मक कदम उठाने की तैयारी कर रही है। वस्तु एवं सेवा कर की दरों में सुधार, अपीलों के निपटान के लिए संस्थागत ढांचे में सुधार और उलट शुल्क ढांचे को खत्म करने का वादा आदि सब ऐसे ही उदाहरण हैं।
उम्मीद जगाने वाली दूसरी घटना है संशोधन विधेयक के मसौदे में एक कम ध्यान दिया गया प्रावधान। यह विद्युत परिषद के निर्माण से संबंधित है। इस नई संस्था से उम्मीद है कि वह बिजली क्षेत्र में सहमति आधारित सुधारों की इजाजत देगी। याद रहे कि बिजली संविधान की समवर्ती सूची का हिस्सा है। इसलिए राज्यों के विचारों को आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। विद्युत परिषद का ढांचा जीएसटी परिषद के जैसा बनाया गया है। इसकी अध्यक्षता केंद्रीय विद्युत मंत्री करेंगे जबकि राज्यों के बिजली मंत्री इसके सदस्य होंगे और केंद्रीय विद्युत सचिव इसके सदस्य-संयोजक होंगे।
विद्युत परिषद का उद्देश्य केंद्र और राज्यों को बिजली नीति से जुड़े मामलों पर सलाह देना, सुधारों पर सहमति बनाना और उनके प्रभावी एवं दक्षतापूर्ण क्रियान्वयन का समन्वय करना है। उम्मीद की जाती है कि विद्युत परिषद जैसा एक निकाय राज्यों को इस प्रक्रिया में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करेगा, ताकि बिजली क्षेत्र में आवश्यक सुधार लाए जा सकें और बिजली वितरण कंपनियों की बिगड़ती हालत ठीक की जा सके।