पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ भारत की प्रतिक्रिया के बारे में दुनिया को बताने के लिए विभिन्न देशों में बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि यह तरीका दूसरे मामलों में भी अपनाया जाना चाहिए। बहुपक्षीयता का यह विचार निस्संदेह काफी प्रेरित करने वाला है। दुर्भाग्य है कि किसी ने भी इसे शासन के दूसरे अहम क्षेत्रों में भी आजमाने के बारे में नहीं सोचा। उदाहरण के लिए आर्थिक नीतियां लागू करने में बहुदलीय सहमति हो तो नतीजे शानदार हो सकते हैं। खासकर उस समय, जब अगली पीढ़ी के अटके हुए सुधार आगे बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार को विपक्षी दलों के शासन वाली राज्य सरकारों का साथ चाहिए।
अभी संसद में बहुमत होने का मतलब है कि सत्तारूढ़ गठबंधन को अपना राजनीतिक एजेंडा लागू करने के लिए किसी भी विपक्षी दल का समर्थन नहीं चाहिए। पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों को नष्ट करने के लिए चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर के बाद सभी दलों की सहमति हासिल करना मोदी के लिए आसान था। मगर आर्थिक सुधारों पर आम सहमति बनाना एक अलग मामला होता है। इसके लिए एक दूसरे के उलट सियासी समीकरण साधने पड़ते हैं। यह कोशिश हमेशा कारगर नहीं होती मगर राजनीतिक आम सहमति नहीं होना नई विनिर्माण परियोजनाओं में निजी निवेश के लिए बड़ी रुकावट साबित हुआ है। रोजगार देने वाली ऐसी परियोजनाओं की भारत को तुरंत जरूरत है।
भूमि अधिग्रहण को ही ले लीजिए। भूमि अधिग्रहण कानून में सख्त प्रावधान होने के कारण सभी निजी कंपनियों को बड़े पैमाने पर जमीन के अधिग्रहण में दिक्कत आती है। कानून कहता है कि प्रभावित परिवारों में 80 फीसदी (निजी-सार्वजनिक भागीदारी परियोजनाओं के मामले में 70 फीसदी) का पहले ही रजामंद होना जरूरी है और परियोजना के सामाजिक प्रभाव का अध्ययन भी करना होगा। इससे बचने के लिए कंपनियां जमीन के एग्रीगेटर्स की मदद लेते हैं, जो उन्हें परियोजनाओं के लिए लंबी-चौड़ी जमीन दिला देते हैं। मगर यह तरीका बहुत बोझिल, महंगा और लंबा खिंचने वाला है। भूमि अधिग्रहण में ऐसी ही कठिनाइयों के कारण भारत की लगभग दो दशक पुरानी विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) नीति कामयाब नहीं हो पाई है। यह नीति चीन की तर्ज पर देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के मकसद से लाई गई थी। उसकी जगह सरकार ने एसईजेड के न्यूनतम आकार के नियम बार-बार बदल दिए, निवेशक फिर भी नहीं आए।
जब मोदी सरकार पहली बार सत्ता में आई, तो अध्यादेश के जरिये भूमि अधिग्रहण के मामले में पहले से रजामंदी की शर्त आसान बनाकर और सामाजिक प्रभाव के अध्ययन की जरूरत खत्म कर उसने अपनी कारोबार समर्थक छवि मजबूत करने की कोशिश की। संशोधन लोक सभा में पारित हो गए मगर बहुमत नहीं होने के कारण राज्य सभा में अटक गए। अध्यादेश तीन बार लाया गया और फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इस पर हुए सियासी शोर के कारण अपने दूसरे और तीसरे कार्यकाल में भारतीय जनता पार्टी ने इसकी सुधि ही नहीं ली।
निजी निवेश के लिए भूमि अधिग्रहण का विवाद 2000 के दशक में पश्चिम बंगाल की राजनीति में फूटा और उसने दिखाया कि सियासी शह-मात का खेल किस तरह प्रगति की राह में रोड़ा बन सकता है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार और ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस अगर सिंगुर में टाटा नैनो कारखाने के लिए भूमि अधिग्रहण पर रजामंद हो जातीं तो यह समझदारी वाली बात होती। कारखाना बन जाता तो गर्त में जाते राज्य का कायापलट हो जाता। लेकिन वाम मोर्चे के पारंपरिक वोट बैंक – सिंगुर में किसानों और जमीन गंवाने वालों – को लपकने के ममता के फैसले ने बड़े उद्योगों को लाने की कोशिश में जुटी सरकार के साथ बातचीत की संभावना क्षीण कर दी। इसी नीयत के साथ वह नंदीग्राम और नयाचर में रसायन केंद्र के वाम मोर्चा सरकार के प्रस्ताव का विरोध कर रहे लोगों के साथ हो गईं।
भूमि अधिग्रहण के विरोध ने ममता को राज्य की सत्ता तो दिला दी मगर उनके रुख ने कारोबार और उद्योग को दूर कर दिया है। यहां बात नफा-नुकसान की नहीं होनी चाहिए। मुआवजा कितना भी मिल रहा हो, राजनेताओं को बड़ी परियोजनाओं में जमीन गंवाने वालों का हित सोचना ही पड़ता है। इस पैसे का वे क्या करेंगे? यहां से वे कहां जाएंगे? मगर जमीन की कमी के कारण निवेश को नहीं आने देना भी उस राज्य के हित में नहीं है, जहां अच्छे रोजगार की किल्लत है। हमारे सामने चीन का उदाहरण भी है, जहां बड़े कारखानों के लिए अपनी जमीन देने वाले किसानों को कारखानों के पास ही बेहतर सुविधाओं के साथ बसाया जाता है। अध्यादेश के जरिये टकराव करने के बजाय सभी पार्टियां आम सहमति से समाधान पर पहुंचें तो चीन के अलावा निवेश का ठिकाना तलाश रहे वैश्विक निवेशकों के लिए वियतनाम, मेक्सिको या इंडोनेशिया के बजाय भारत पहली पसंद बन जाएगा।
बड़े निवेशकों के लिए बाधा बन रहे श्रम सुधार की किस्मत कुछ ठीक थी। संसद ने कारोबारी सुगमता में देश की रैंकिंग सुधारने के मकसद से 2019-20 में श्रम कानूनों को चार श्रम संहिताओं में समेटा और उन्हें लागू कर दिया। विश्व बैंक ने 2021 में यह रैंकिंग बंद कर दी मगर केंद्र सरकार ने राज्यों को ये कानून लागू करने के लिए मनाना जारी रखा। भाजपा या उसके सहयोगी दल देश के 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सत्ता में हैं, जिस कारण इन संहिताओं को बड़े दायरे में लागू कर दिया गया है मगर नतीजे अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए बिज़नेस स्टैंडर्ड के शोध के अनुसार 20 राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों ने काम पर रखने और निकालने के लिए ऊंची सीमा अपनाई है और 25 राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों ने निश्चित अवधि के रोजगार देने का रास्ता चुना है। 31 राज्य या केंद्र शासित प्रदेश महिलाओं को रात में काम करने की अनुमति देने के लिए कानूनों में ढील देंगे।
सुधारों की बात करें तो उत्पादन के लिए जरूरी भूमि और श्रम जितनी बड़ी अड़चन हैं उतनी ही बड़ी बाधा कारखाना लगाने वाले निवेशकों के लिए बिजली की कीमत और स्थानीय मंजूरी भी हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए पार्टी की विचारधारा से ऊपर उठकर सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक मेधा का इस्तेमाल होना चाहिए ताकि कारोबारी सुगमता बढ़ सके। नेताओं को करदाताओं के पैसे पर विदेश यात्रा कराने से यह बेहतर होगा क्योंकि उन यात्राओं का नतीजा तो अभी सामने ही नहीं आया है।