कुछ समस्याएं आसान होती हैं, कुछ जटिल होती हैं और कुछ ऐसी होती हैं जिन्हें ‘विकट समस्याएं’ कहा जा सकता है। सबसे आसान समस्याएं वे होती हैं जहां हमें पता होता है कि दिक्कत क्या है। हमें समस्या का हल भी पता होता है और जवाबदेही तय करना भी आसान होता है। सबसे विकट समस्याएं वे होती हैं जहां दिक्कत ठीक से परिभाषित नहीं होती और हल भी परिभाषित नहीं होते। परंतु उत्तर भारत में प्रदूषण की समस्या इन दोनों से अलग है। इस मामले में समस्या को मापना और जवाबदेही तय करना दोनों आसान हैं लेकिन कई हितधारक यहां एक दूसरे के विरुद्ध काम कर रहे हैं।
यह हमारी खुशकिस्मती है कि राजनीतिक दल प्रदूषण कम करने के लिए खुलकर एकजुट हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने चुनावी वादे में कहा था कि वह 2030 तक दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई को वर्तमान के आधे स्तर पर ले आएगी। सभी संबंधित लोगों के लिए और भी अच्छी बात यह है कि प्रदूषण के तकनीकी-आर्थिक-नीतिगत समाधान अच्छी तरह से ज्ञात हैं। तो फिर समस्या कहां है? केवल इस बात को लेकर भ्रम कि प्राथमिकता किसे दी जाए और उसे कैसे लागू किया जाए।
समस्या को हल करने के दो तरीके हैं: पहला है कारणों का विश्लेषण करना और नीचे से काम करते हुए हर कारक को पूरी तरह खत्म करना। दूसरा तरीका है तकनीकी हल तलाश करना और यह निर्धारित करना कि कैसे संस्थान और प्रोत्साहनों को सुसंगत बनाकर तकनीकी समाधानों को लागू किया जा सकता है।
सामान्य तौर पर देखें तो प्रदूषण की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार अंजाम लेती है। आर्थिक गतिविधियों से कई तरह का उत्सर्जन होता है। उदाहरण के लिए धूल, नाइट्रस या सल्फर यौगिक और विभिन्न कण। ये उत्सर्जन मौसमी हालात मसलन तापमान, आर्द्रता और हवाओं आदि के संपर्क में आते हैं। इसके चलते वे कभी बढ़ते हैं, कभी कम होते हैं तो कभी एक जैसे बने रहते हैं। कई बार वे हमारे वातावरण से दूर भी हो जाते हैं। सभी शहर और ग्रामीण इलाके प्रदूषण फैलाते हैं।
दिल्ली की हालत कई अन्य शहरों से अधिक खराब है क्योंकि यहां का मौसम अलग है। मजाक में कहें तो ‘मस्क प्रेरित समाधान’ यह होगा कि 500-700 मीटर की ऊंचाई पर बड़े जेट इंजन लगाए जाएं, जो दिल्ली जैसी शहरों के ऊपर से प्रदूषण को खींचकर ऊपर फेंक दें ताकि ऊपरी आकाश की हवाएं उसे उड़ा ले जाएं। लेकिन ऐसा संभव नहीं है। हम प्रदूषण को कहीं दूर नहीं फेंक सकते। हमें उसे नियंत्रित करना होगा। अगर हम ऐसा नहीं कर सके तो ठंड के दिनों में उत्तर भारत के आकाश पर बनने वाला गैस चैंबर और अधिक बिगड़ता जाएगा। हम जितनी देर करेंगे दिक्कत उतनी ही बढ़ेगी।
अध्ययन बताते हैं कि दिल्ली की हवा के प्रदूषण में कई अलग-अलग स्रोतों का योगदान है। ये स्थान, समय, दिन, माह और यहां तक कि वर्ष के अनुसार भिन्न होते हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि प्रदूषण से निपटने के लिए हमें प्रत्येक स्रोत को संबोधित करना होगा। इसे चुनौतियों के छोटे-छोटे समूह के रूप में देखा जाना चाहिए और अलग-अलग तरीके से हल किया जाना चाहिए। इसके अलावा, प्रदूषण राज्य की सीमाओं का सम्मान नहीं करता, और किसी क्षेत्र में प्रदूषण का बड़ा हिस्सा उसके आसपास के क्षेत्रों से आता है। ऐसे में हमारा लक्ष्य है शून्य से कम प्रदूषण वाली अर्थव्यवस्था तैयार करना।
सबसे पहली बात, जहां तक संभव हो हमें प्रयास करना चाहिए सहकारी हल तलाश करने का जहां समाज, सरकार और उद्योग सभी मिलकर एक साझा लक्ष्य को पाने के लिए काम करें। दूसरा, हल क्षेत्रीय होना चाहिए क्योंकि हरियाणा में प्रदूषण पंजाब की गतिविधियों से प्रभावित होता है। इसलिए समाधान को यथासंभव अधिक से अधिक राज्यों में लागू करना होगा।
तीसरा, सरकार को स्पष्ट रूप से एक समयसीमा घोषित करनी होगी। केवल चुनावी वादा पर्याप्त नहीं होगा। पांच वर्ष की अवधि में पूर्ण बदलाव एक अच्छा लक्ष्य होगा और इससे सरकार, नागरिक समाज और उद्योग सभी को एक साझा उद्देश्य के लिए एकजुट करने में मदद मिलेगी। चौथा, हमें इसके लिए अतिरिक्त फंड की आवश्यकता होगी। उसके लिए राज्य सरकारों को जीवाश्म ईंधन पर कर लगाना होगा क्योंकि वह प्रदूषण का बड़ा स्रोत है। प्रदूषण फैलाने वाले अन्य उद्योगों मसलन ईंट भट्ठों पर भी शुल्क लगाना होगा। पांचवीं केंद्र सरकार नई शून्य से लेकर कम प्रदूषण वाली परिसंपत्तियों की पूंजीगत लागत की क्षतिपूर्ति के लिए मूल्यह्रास को अपना सकती है।
वाहनों के एग्जाॅस्ट, औद्योगिक चिमनी, निर्माण से उड़ने वाली धूल, सड़क की धूल, बायोमास को जलाना और खराब कचरा प्रबंधन आदि उत्तर भारत के प्रदूषण के लिए अधिक जिम्मेदार हैं। स्पष्ट आदेशों के साथ वित्तीय सहयोग और तकनीकी हस्तक्षेपों का संयोजन, जो निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में फैला हो, इन अधिकांश समस्याओं का समाधान कर सकता है।
वाहन प्रदूषण की बात करें तो दोपहिया-चारपहिया और यहां तक कि बसों के मामले में भी बिजली से चलने वाले तथा हाइब्रिड वाहन एक अच्छा विकल्प हैं। लेकिन कौन सी बात बड़ी वाहन कंपनियों को पांच वर्षों में पूरे उत्तर भारत में जीवाश्म-ईंधन वाहनों की बिक्री रोकने पर मजबूर करेगी? आदेशों और त्वरित मूल्यह्रास का मिश्रण इसमें मदद कर सकता है। सड़कों पर अभी भी बड़ी संख्या में पेट्रोल-डीजल वाहन हैं। उन्हें ईवी में बदलने के लिए कर राहत की मदद ली जा सकती है।
निर्माण क्षेत्र की धूल की बात करें तो ऐसे कई स्थानों के ढकने के लिए अब प्लास्टिक या कपड़े का इस्तेमाल शुरू हो गया है। पानी का छिड़काव भी कम लागत वाला अच्छा उपाय है। इतना ही नहीं चूंकि सरकारी परियोजनाएं बड़े पैमाने पर इनका हिस्सा हैं इसलिए सभी निर्माण ठेकों या निजी-सार्वजनिक भागीदारियों में इसे पूर्व शत बना दिया जाना चाहिए।
तीसरी समस्या सड़क की धूल है। इसमें धूल के छोटे-छोटे कण, टायरों से निकलने वाला कार्बन ब्लैक और रबर, तथा वाहनों के धुएं से निकलने वाले कण शामिल हैं। यद्यपि कम-कार्बन या शून्य-कार्बन वाहनों की ओर बढ़ने से बाद वाले कण कम हो सकते हैं, लेकिन टायर और धूल के कण कभी समाप्त नहीं होंगे। यानी सभी प्रमुख सड़कों और मार्गों की दैनिक धुलाई या वैक्यूमिंग के लिए एक तंत्र की आवश्यकता है। इससे स्थानीय सरकारों की लागत बढ़ेगी, जिसे वे आसानी से संपत्ति कर को तर्कसंगत बनाकर वसूल सकते हैं, कम से कम सभी नई संपत्तियों के लिए। खुले में पड़ा कचरा एक और उदाहरण हैं जहां स्थानीय सरकारों को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।
चौथा, कई छोटे, मध्यम और बड़े उद्योग बायोमास या जीवाश्म ईंधन जलाते हैं। इनमें ताप विद्युत संयंत्र, ईंट भट्ठे और रासायनिक कारखाने शामिल हैं। इनमें से कई को बिजली-आधारित बनाया जा सकता है।
कुल मिलाकर एक बड़ा प्रदूषक अनौपचारिक क्षेत्र है। उदाहरण के लिए, गर्मी और तंदूर के लिए बायोमास जलाना। इन्हें बदलना सबसे कठिन है। हालांकि अर्थव्यवस्था के अन्य सभी हिस्सों की तरह, अनौपचारिक व्यवसाय भी उस वातावरण के अनुरूप होते हैं जिसमें वे काम करते हैं। हमें यह विश्वास करना शुरू करना होगा कि हम इसे ठीक कर सकते हैं।
(लेखक सीएसईपी रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख हैं। ये उनके निजी विचार हैं)