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जलवायु सहयोग में न्याय: फिर से लागू हों साझा लेकिन अलग-अलग दायित्व

जलवायु संबंधी प्रभावी कदम उठाने के लिए आवश्यक है कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दरों के आधार पर साझा जिम्मेदारी तय की जाए। बता रहे हैं नितिन देसाई

Last Updated- September 18, 2025 | 10:33 PM IST
climate

पिछले माह अपने स्तंभ में मैंने जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चुनौती और 2015 के पेरिस समझौते के अंतर्गत जताई गई प्रतिबद्धता में गंभीर कमी जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया था। मैंने कहा था कि पेरिस समझौते पर अमल में तेजी लानी होगी। खासतौर पर विकसित देशों को इसमें बड़ी भूमिका निभानी चाहिए। मैं इस स्तंभ में विस्तार से यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि इस नवंबर में ब्राजील में होने वाली 30वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (कॉप30) उन सिद्धांतों पर सहमति के लिए क्या कर सकती है, जो वैश्विक सहयोग और देशों के स्तर पर कार्रवाई को बढ़ावा देंगे।

मेरी नजर में सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत जिस पर जोर दिया जाना चाहिए, वह है साझा किंतु विभाजित जिम्मेदारी की भावना यानी सीबीडीआर। इस पर 1990 के दशक के आरंभ में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) में सहमति बनी थी और यह 1995 में प्रवर्तन में आया। उस समय प्रतिबद्धताओं का विभाजन एनेक्स 1 देशों और गैर-एनेक्स1 देशों में किया गया था जिनमें क्रमश: आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) तथा पूर्वी और मध्य यूरोप की इकनॉमीज इन ट्रांजिशन (ईआईटी) देश और अन्य देश आते थे। उस समय इन दोनों को विकसित और विकासशील देश माना जाता था और क्योटो प्रोटोकॉल के तहत उत्सर्जन में कमी की प्रतिबद्धता एनेक्स 1 देशों पर लागू की गई थी।

गैर एनेक्स-1 देशों के समूह को अब पूरी तरह विकासशील देशों का समूह नहीं माना जा सकता है, क्योंकि ऐसे 20 देश अब विश्व बैंक की उच्च आय वाले देशों की सूची में शामिल हो गए हैं। बहरहाल, सीबीडीआर के विरुद्ध तर्क में चीन में उत्सर्जन वृद्धि पर अधिक ध्यान दिया गया है। वहां उत्सर्जन 1995 के प्रति व्यक्ति 2.9 टन कार्बन डाइऑक्साइड से बढ़कर 2023 मे 8.4 टन प्रति व्यक्ति हो गया है। इसके चलते विकसित और विकासशील देशों के बीच साझा किंतु बंटी हुई जिम्मेदारी लगभग समाप्त हो गई है।

जलवायु परिवर्तन प्रस्तुतियों में देशों की सार्वजनिक रैंकिंग वर्तमान उत्सर्जन की मात्रा के आधार पर की जाती है, जबकि संचयी उत्सर्जन में अंतर की अनदेखी कर दी जाती है जो वास्तव में जिम्मेदारी तय करने का सही आधार है। विभिन्न देशों के आकार और उनकी नागरिक संख्या में भी भारी अंतर होता है।

यही वजह है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करते समय हर देश के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन का आकलन करना चाहिए न कि कुल मात्रा का। भारत से यह कहना कि वह अपने उत्सर्जन की कटौती की गति बढ़ाए क्योंकि वर्ष 2023 में उसका कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन वैश्विक उत्सर्जन का लगभग 8 फीसदी था, इस तथ्य की अनदेखी करता है कि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से आधे से भी कम था। कुल वार्षिक उत्सर्जन को आधार बनाकर न केवल यूरोपीय सरकारों द्वारा, बल्कि पश्चिमी देशों के कई गैर-सरकारी संगठनों द्वारा भी चिंता जताई जाती है। यह दृष्टिकोण गलत है। किसी भी देश द्वारा उत्सर्जन में कमी की वास्तविक ताकत का मूल्यांकन कुल उत्सर्जन नहीं, बल्कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के आधार पर किया जाना चाहिए।

आंकड़े बताते हैं कि विकसित एनेक्स1 देशों के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में कमी आई है जबकि अधिकांश गैर एनेक्स 1 विकासशील देशों में उत्सजर्न बढ़ा है। परंतु दोनों समूहों के बीच बुनियादी भारी अंतर बरकरार रहा। वर्ष2023 में 100 गैर एनेक्स 1 देशों का प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 3 टन से कम था। एनेक्स 1 देशों में से कोई इस श्रेणी में नहीं आया। इसके अलावा एनेक्स 1 की 41 फीसदी आबादी वाले देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 10 टन कार्बन डाइऑक्साइड से अधिक था जबकि गैर एनेक्स1 आबादी में केवल 2 फीसदी आबादी ऐसी थी।

सीबीडीआर की आवश्यकता आज भी बनी हुई है। यह केवल एनेक्स 1 और गैर एनेक्स 1 देशों के बीच मूल मांगों के अंतर पर केंद्रित नहीं रह सकती, क्योंकि अब गैर एनेक्स 1 समूह में ऐसे 20 देश शामिल हैं जो विश्व बैंक की उच्च-आय श्रेणी में आते हैं। इसलिए, देशों के बीच अंतर को प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता इस रणनीति पर आधारित है, जिसका उद्देश्य भविष्य के उत्सर्जन को सीमित करना है ताकि औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5-2.0 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके।

आईपीसीसी ने 2021 में अपनी छठी आकलन रिपोर्ट में 2020 से 2050 तक के कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का अनुमान पेश किया जो तापमान में परिवर्तन के लक्ष्य को सीमित रखने के साथ सुसंगत होगा। हर वर्ष की जनसंख्या के योग से विभाजित करने पर वार्षिक औसत उत्सर्जन मिलता है जो है 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के लिए 1.1 टन कार्बन डाइऑक्साइड का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन और 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के लिए 3.3 टन कार्बन डाइऑक्साइड प्रति व्यक्ति उत्सर्जन।

इस आधार पर, सभी देशों के लिए वार्षिक उत्सर्जन लक्ष्य को प्रति व्यक्ति औसतन 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड तक निर्धारित किया जा सकता है जो उनके घोषित विशुद्ध शून्य लक्ष्य वर्ष तक लागू रहेगा। हालांकि यह लक्ष्य 1.5 डिग्री सेल्सियस के लिए पर्याप्त नहीं है, जो वर्तमान में असाध्य प्रतीत होता है। लेकिन यदि 2050 तक का वैश्विक प्रति व्यक्ति औसत तुरंत स्वीकार कर लिया जाए और प्रभावी रूप से लागू किया जाए, तो 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को पुनर्जीवित करने की संभावना बन सकती है और साथ ही स्वीकृत वैश्विक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन लक्ष्य को क्रमशः घटाया जा सकता है।

पेरिस समझौते के आधार पर अपेक्षित राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) में घोषित विशुद्ध शून्य ल​​क्षित वर्ष तक पहुंचने की योजना शामिल होनी चाहिए। इसमें ऐसे उपाय होने चाहिए जिनसे अगले दशकों में औसत उत्सर्जन 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड प्रति व्यक्ति हो। इस बात पर जोर इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि कुछ ही देशों ने विशुद्ध शून्य लक्ष्य तक पहुंचने के लिए समयसीमा निर्धारित की है।

वर्तमान समय में अमेरिका जलवायु परिवर्तन पर वै​श्विक प्रयासों में सहयोग नहीं कर रहा है। वह पेरिस समझौते से अलग हट गया है। इसे ध्यान में रखते हुए अब नेट जीरो लक्ष्यों पर कोई भी समझौता पेरिस समझौते को लागू करने की प्रतिबद्धता के साथ किया जाना चाहिए। इससे वार्ताओं में अमेरिका हस्तक्षेप नहीं कर पाएगा।

संक्षेप में, लक्ष्य इस प्रकार होने चाहिए:

1. उच्च उत्सर्जन दर वाले देशों द्वारा जलवायु शमन कार्रवाई के लिए तत्काल अधिक जिम्मेदारी लेने के लिए सीबीडीआर के सिद्धांत का दृढ़ता से पालन किया जाना चाहिए।

2. पहले की तरह एनेक्स I और गैर-एनेक्स I देशों के बीच के अंतर के समान ही दो समूहों के बीच का अंतर
वार्षिक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन पर आधारित होना चाहिए।

3. देशों को दो समूहों में विभाजित करने का मानक 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष होना चाहिए।

4. सभी देशों को नेट जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए लक्ष्य वर्ष निर्धारित करना होगा और इसके लिए समयसीमा के हिसाब नीति बनानी होगी, जिसका उद्देश्य विशुद्ध शून्य लक्ष्य तक पहुंचने वाले वर्षों में 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड का औसत वार्षिक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन करना हो।

मुझे उम्मीद है कि वर्तमान में प्रति व्यक्ति 2.1 टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन वाले भारत और 2.3 टन वाला ब्राजील इस एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए मिल कर काम करेंगे।

First Published - September 18, 2025 | 10:17 PM IST

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