शांघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक अच्छा अवसर है जब हम इस बात पर नजर डाल सकते हैं कि रणनीतिक हालात किस प्रकार बदले हैं। बीते 10 वर्षों में भारत की ताकत बढ़ी है लेकिन वह चीन और पाकिस्तान के बीच में भी फंसा हुआ है।
यदि शांघाई सहयोग संगठन (SCO) की ताजा मंत्रिस्तरीय बैठक ऐसी बहुपक्षीय बैठकों की तुलना में अधिक तनावपूर्ण नजर आ रही है तो इसकी वजह यह है कि इसके प्रमुख सदस्यों में से दो के रिश्ते तीसरे के साथ ठीक नहीं हैं। या कहें तो मेजबान देश के संबंध अन्य दो देशों के साथ ठीक नहीं हैं।
इस आकर्षण से बचिए कि चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही वे पहले जैसी बनी रहती हैं। ऐसी चीजें हैं जो पहले जैसी बनी रहती हैं- मिसाल के तौर पर चीन और पाकिस्तान के दोहरे दबाव में भारत की धीमी घुटती हुई रणनीति। मनमोहन सिंह ने इसे सीधे-सीधे ऐसा मामला करार दिया था जहां चीन भारत को तंग करने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा था। उनके बाद नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के अलावा ज्यादा कुछ बदला नहीं है।
SCO शिखर बैठक इस बात पर नजर डालने का अच्छा मौका है कि इस बीच क्या बदला है और क्या नहीं? फिलहाल हमें मौजूदा त्रिकोण के तीन पर ध्यान देना चाहिए फिर हम आगे बात करेंगे।
शुरुआत इस आकलन के साथ करनी चाहिए कि 2014 के बाद के दशक में तीनों पड़ोसी देशों की व्यापक राष्ट्रीय शक्ति (CNP) में क्या विकास हुआ है। CNP की अवधारणा का श्रेय हम चीन को दे सकते हैं। इसका मूल चीनी नाम झोंघे गुओली करीब तीन दशक पहले प्रकाशनों में नजर आने लगा था।
आप समझ सकते हैं कि यह कई कारकों के मेल से बनता है इसमें अर्थव्यवस्था का आकार और वृद्धि, समाज की मजबूती और समरसता, सेना की शक्ति और गुणवत्ता, व्यापार तथा सॉफ्ट पावर जैसे कारक शामिल हैं। इन्हें आसानी से आंकड़ों में नहीं बदला जा सकता।
उदाहरण के लिए आज देखें तो अधिकांश मानकों पर पाकिस्तान की स्थिति बहुत खराब है, बहरहाल उसके 200 से अधिक परमाणु हथियार और उसके सशस्त्र बल उसे क्या दर्जा दिला पाएंगे? अब इसे भारत के नजरिये से देखें। अपने परमाणु हथियारों और अपनी मुश्किलें खड़ी करने की क्षमता की बदौलत पाकिस्तान उतना भी नाकाम नहीं है जितना कई ने चाहा होगा। ऐसे में किसी देश का CNP इस बात से भी निर्धारित होता है कि वह अपने मित्रों, शत्रुओं और पड़ोसियों पर कैसा असर डालता है।
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सन 1979 में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर आक्रमण के वक्त से लेकर अब तक की बात करें तो पाकिस्तान सबसे कमजोर स्थिति में है। वहां एक गठबंधन सरकार का शासन है जो जनता द्वारा चुनी जाने का दावा करती है लेकिन उसकी विश्वसनीयता सन 1979 के जनरल जिया उल हक से भी कम है। मैं यह बात बहुत सावधानी से कह रहा हूं क्योंकि जिया के शब्द ही कानून थे। यह बात शाहबाज शरीफ या उनके मंत्रिमंडल के बारे में नहीं कही जा सकती है।
उसकी अर्थव्यवस्था दिवालिया हो चुकी है। वृद्धि दर के बारे में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का कहना है कि वह 0.5 फीसदी है जो अगले वर्ष तक दो फीसदी हो सकती है। भारत समेत उपमहाद्वीप के तमाम देशों के साथ आय का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है।
अफगानिस्तान में उसने 65 वर्षों के अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी को हराकर अहं और विचारधारा आधारित आत्मघाती जीत हासिल की और अब रणनीतिक बातचीत में उसके पास कोई गुंजाइश नहीं है। अगर उसकी भूसामरिक स्थिति पाकिस्तान की सबसे महत्त्वपूर्ण और भुनाने लायक संपत्ति थी तो तालिबान का समर्थन करके उसने उसे गंवा दिया है। खाड़ी के अरब देश अब आगे बढ़ चुके हैं और इस क्षेत्र में उनकी नीतियां सुन्नी इस्लाम से निर्धारित नहीं होतीं। उनके पास पाकिस्तान और उसकी मांगों को लेकर धैर्य नहीं रह गया।
यही वजह है कि आज उसकी स्थिति चीन के अधीन देश की हो गई है। वहां भी उसे एक दिक्कत है। क्योंकि इस दर्जे में भी उसे रूस के रूप में एक ताकतवर देश से मुकाबला करना पड़ रहा है क्योंकि रूस पाकिस्तान की तुलना में बहुत अधिक मूल्यवान है। ऐसे में पाकिस्तान के लिए कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है।
चीन के लिए भी उसकी कीमत यही है कि वह भारत की सैन्य शक्ति को दबाव में बनाए रखे। यह चीन के लिए लाभदायक है। शेष दुनिया उसकी शिकायतों और मांगों से थक चुकी है। भारत के लिए इसका क्या अर्थ है इस बारे में हम आगे बात करेंगे।
चीन की स्थिति एकदम उलट है। हम जिस दशक की बात कर रहे हैं उसमें शी चिनफिंग ने चीन की ताकत को अपने नाम और अपने तानाशाही विचार के साथ जोड़ा। इस दौरान उन्होंने चार दशक की जबरदस्त आर्थिक वृद्धि का भी फायदा उठाया।
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चीन की तकनीक, व्यापार, सैन्य शक्ति, सामाजिक ताने बाने और उसके बढ़ते वैश्विक कद आदि सभी ने अमेरिका तथा बड़ी पश्चिमी शक्तियों से अंतर कम करने में मदद की और भारत समेत बाकी देशों से वह काफी आगे निकलता गया। हमारे लिए यही बात मायने रखती है।
सामरिक दृष्टि से देखें तो यूक्रेन युद्ध चीन के लिए अच्छा और बुरा दोनों रहा है। संतुलन के स्तर पर देखें तो शायद उसके लिए बुरा ज्यादा हुआ। इसने फिलहाल के लिए बीआरआई की योजना को फिलहाल ठंडे बस्ते में डलवा दिया है। इसने उसके सबसे महत्त्वपूर्ण सहयोगी को कमजोर किया है और पश्चिमी देशों को एकजुट किया है। इसमें अच्छी बात है चीन पर रूस की निर्भरता।
दुख की बात है कि 2014-24 के अनुमानों की बात करें तो CNP के किसी भी मानक पर भारत चीन के करीब पहुंचता नहीं दिखा है। भारत ने कई क्षेत्रों में अच्छी वृद्धि हासिल की है और काफी कुछ अच्छा हो रहा है। उदाहरण के लिए सड़क, बंदरगाह, वायुमार्ग, बिजली आदि क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अधोसंरचना का निर्माण।
महामारी के बावजूद राजकोष और घाटे का प्रबंधन शानदार रहा है और वृद्धि दर की बात करें तो अभी भी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में हम सबसे तेज विकास वाले हैं। चीन के साथ परंतु दोनों देशों के बीच बहुत अंतर था। चीन की वृद्धि धीमी नहीं हो रही है और अगर अब भारत तेजी से वृद्धि हासिल करे तो भी दोनों के बीच अंतर बढ़ेगा। आखिर चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना बड़ी है। कड़वी हकीकत यह है कि अगर चीनी वृद्धि भारत की वृद्धि की आधी भी रह जाती है तो भी अंतर बढ़ेगा।
सैन्य मामलों की बात करें तो हथियारों और बजट में भारी अंतर के अलावा चीन ने जानबूझकर हमें सीमा पर उलझाए रखा है। इस प्रक्रिया में भारत की पूरी सैन्य शक्ति दोनों मोर्चों पर लग गई है। इससे पहले इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ जब हम दोनों मोर्चों पर इस कदर व्यस्त रहे हों। इस समीकरण में भारत के लिए सैन्य स्तर पर करने को कुछ नहीं है। वह केवल सामने वाले पक्ष की प्रतीक्षा कर सकता है। इस बीच ऐसी पहल भूटान में हो रही है।
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यह बात हमें ऐसे मुकाम पर लाती है जो जाना-पहचाना है। क्योंकि हम छह दशकों से ऐसी स्थिति में रहे हैं। बतौर प्रधानमंत्री अपने 10वें वर्ष में और दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में मोदी भारत के CNP और उसकी सामरिक स्थिति को लेकर अपने रिपोर्ट कार्ड में क्या लिखेंगे?
CNP के मामले में तस्वीर उजली है। भारत ने अमीर या निम्न मध्य वर्ग का देश बनने के काफी पहले एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में जबरदस्त कामयाबी हासिल की है। इसमें कुछ भी ईश्वरीय योगदान नहीं रहा है। मोदी और उनकी सरकार ने व्यापक राष्ट्रीय हितों का जिस प्रकार प्रबंधन किया है, उन्हें उसका श्रेय मिलना चाहिए।
स्व आकलन की इस प्रक्रिया में मोदी को सबसे अहम सामरिक चुनौती को लेकर खुद से कुछ प्रश्न पूछने पड़ सकते हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से विरासत में मिला सवाल है चीन और पाकिस्तान की जकड़बंदी में भारत का धीमे-धीमे दम घुटना, उसका इससे निजात पाने में नाकाम रहना, या इसे ढीला नहीं कर पाना ऐसी बातें हैं जो सामने आनी चाहिए। आप यकीन नहीं करेंगे कि सत्ता में एक दशक पूरा करते हुए भी वह सामरिक मोर्चे पर 2014 की यथास्थिति को ही अपनी कामयाबी में गिनेंगे।