‘दुनिया की फार्मेसी’ के रूप में भारत की प्रतिष्ठा को उस समय झटका लगा जब खांसी का एक विषाक्त सिरप पीने से 14 बच्चों की मौत हो गई। इस सिरप में ऐसे औद्योगिक रसायन मिले जिन्हें आमतौर पर पेंट, स्याही और ब्रेक फ्लुइड में इस्तेमाल किया जाता है। इस घटना के बाद केंद्र और राज्य सरकारें सक्रिय हुईं और पर्चों पर कफ सिरप लिखने वाले चिकित्सक को गिरफ्तार कर लिया गया। सिरप बनाने वाली कंपनी के खिलाफ पुलिस जांच आरंभ कर दी गई और यह आदेश जारी किया गया कि दो साल से कम उम्र के बच्चों को कप सिरप नहीं दिया जाए। राज्य सरकारों ने भी
आपत्तिजनक दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया। लगातार उठाए जा रहे इन कदमों से यह तथ्य नहीं छिपेगा कि इस हादसे से बचा जा सकता था। अपर्याप्त नियामकीय सतर्कता की कीमत नौनिहालों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
कफ सिरप में डाइएथिलीन ग्लाइकोल (डीईजी) और एथिलीन ग्लाइकोल (ईजी) जैसे जहरीले रसायनों की मौजूदगी बीते जमाने की बात होनी चाहिए थी। वर्ष2022 में गांबिया में करीब 70 और उजबेकिस्तान में करीब 18 बच्चों को भारत में बने कफ सिरप पीकर जान गंवानी पड़ी थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन की जांच में पाया गया था कि इन सिरप में डीईजी और ईजी की मात्रा अस्वीकार्य स्तर तक बढ़ी हुई थी।
डीईजी और ईजी प्रोपीलीन ग्लाइकोल के सस्ते विकल्प हैं जो औषधीय सिरप में प्रयोग में लाया जाता है। यह मिलावट मुनाफा बढ़ाने के लिए की जाती है। वर्ष 2023 में संबंधित दवा निर्माताओं का लाइसेंस रद्द करने के अलावा केंद्र सरकार ने यह अनिवार्य कर दिया था कि कफ सिरप निर्माता अपने नमूनों की जांच कराएं और निर्यात के पहले सरकार द्वारा प्रमाणित प्रयोगशाला से प्रमाणन हासिल करें। देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को प्रभावित करने वाले संकट को लेकर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में यह कदम असाधारण नहीं था।
परंतु उस समय की तरह अब भी औषधि क्षेत्र की विनिर्माण प्रक्रियाओं की निगरानी करने वाले केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) से यह प्रश्न बहुत कम पूछा गया कि ऐसी मिलावट उसकी निगरानी से कैसे बच सकी। हालिया त्रासदी में सीडीएससीओ की प्रारंभिक जांच में खांसी की दवाओं को डीईजी और ईजी से मुक्त पाया गया। परंतु तमिलनाडु की एक प्रयोगशाला ने दोनों रसायनों की मात्रा अनुमति योग्य सीमा से अधिक पाई।
एक बार फिर गलत कारणों से सुर्खियों में आए सीडीएससीओ ने खांसी की दवा और एंटीबायोटिक्स सहित 19 दवाओं की निर्माण इकाइयों में जोखिम-आधारित निरीक्षण शुरू किए हैं। उसने कहा कि इसका उद्देश्य गुणवत्ता में हुई चूक के कारणों की पहचान करना और ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकने के लिए प्रक्रियाओं में सुधार का सुझाव देना है।
देरी से उठाए गए ऐसे कदमों के बाद सरकार से दो सवाल बनते हैं। पहला, वर्ष2022 में गांबिया और उजबेकिस्तान में बच्चों की मौत के बाद ऐसी जांच क्यों नहीं शुरू की गई? दूसरा, सरकार ने केवल निर्यात के लिए बनाए गए खांसी के सिरप पर अधिक कठोर परीक्षण मानकों को लागू करने तक ही खुद को क्यों सीमित रखा, और घरेलू बिक्री के लिए बनाए गए सिरप को इससे बाहर क्यों रखा? आखिरकार, भारत में मिलावटी खांसी की दवा के सेवन से होने वाली मौतें दशकों से चिंताजनक रूप से बार-बार होती रही हैं।
वर्ष 1973 में चेन्नई में 14 बच्चों की मौत हुई थी, 1986 में मुंबई में 14 बच्चों की जान गई थी जबकि दिल्ली में 33 बच्चों की मौत हुई थी। वहीं 2020 में जम्मू में 12 बच्चों की मौत हुई थी। ये सभी मौतें डीईजी की विषाक्तता के कारण हुई थीं। देश में नकली दवाओं के बढ़ते कारोबार के साथ मिलाकर देखें तो ताजा हादसा किसी भी तरह भारत के हित में नहीं है क्योंकि देश औषधि क्षेत्र में अपनी वैश्विक हिस्सेदारी बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। अमेरिका में कुल इस्तेमाल होने वाली जेनरिक दवाओं में भारत की दवाओं की हिस्सेदारी 40 फीसदी है, ब्रिटेन में 25 फीसदी और अफ्रीका में यह 90 फीसदी है। असमान और कमजोर नियमन बेईमान विनिर्माताओं को रोकने के लिए सही उपाय नहीं हैं।