सूचना प्रौद्योगिकी सेवा क्षेत्र (IT Services Sector) मुश्किल दौर से गुजर रहा है क्योंकि पश्चिमी देशों में आर्थिक मंदी का दौर है और, शायद तकनीकी क्षेत्र की नई घटनाएं भी इसके लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्होंने इंसान और मशीन के बीच के संतुलन को असंतुलित कर दिया है।
इस मंदी का जवाब तलाशने के लिए हमें इन्फोटेक उद्योग की शानदार वृद्धि के गणित को समझना होगा और साथ ही बीते तीन चार दशक में इसके निर्यात पर भी नजर डालनी होगी कि आने वाले वर्षों में इस गणित को किस प्रकार बदलना होगा।
भारत में इन्फोटेक उद्योग का इतिहास एक ऐसी कहानी है जो आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों से ही सार्वजनिक नीति के कारण सफलताओं और झटकों से दो-चार होती रही:
• नेहरू के युग की योजना में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकास को लेकर दीर्घकालिक दृष्टिकोण शामिल था जिसके तहत तकनीकी विकास पर नजर रखने की क्षमता विकसित की गई।
• इंजीनियरिंग शिक्षा के तीव्र विस्तार ने मध्यम कौशल वाली सेवा आपूर्ति में भारत को तुलनात्मक बढ़त प्रदान की।
• सन 1970 के दशक में ध्यान में परिवर्तन के साथ सरकारी क्षेत्र के इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर निर्माण के लिए झटके सामने आए। इसे बढ़ावा देने के लिए हार्डवेयर पर आयात शुल्क बढ़ाया गया।
• सन 1980 के दशक के मध्य में सॉफ्टवेयर विकास पर ध्यान दिया गया और इससे भी अहम निजी-सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा दिया जाने लगा।
सन 1970 के दशक में नीतिगत ध्यान सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की ओर था जो हार्डवेयर तैयार कर रही थीं। वे मुख्य रूप से रक्षा, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के लिए ऐसा कर रही थीं। ऐसा आत्मनिर्भरता की नीति और आंशिक रूप से दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीकों पर प्रतिबंध के कारण किया जा रहा था।
उस समय स्थापित सरकारी उपक्रमों में खास जरूरतों का कौशल विकसित किया जाता था। सरकारी उपयोग वाली ये जरूरतें अर्थव्यवस्था पर सीमित असर रखती थीं। हार्डवेयर आयात पर उच्च शुल्क ने सेवा उद्योग को प्रभावित किया।
इन्फोटेक सेवा उद्योग में पूरी अर्थव्यवस्था पर असर डालने वाला बदलाव 1980 के दशक के मध्य में आया जब 1984 में राजीव गांधी की सरकार ने नई नीतियां घोषित कीं। हार्डवेयर आयात पर शुल्क में कमी की गई और सॉफ्टवेयर टेक्नॉलजी पार्क स्थापित किए गए।
प्रमुख आईटी डेवलपर्स को सैटेलाइट लिंक उपलब्ध कराए गए जिससे वे भारत में किए गए काम को सीधे विदेश भेज सकते थे। परंतु उनके शुरुआती प्रतिफल का बड़ा हिस्सा अपने सॉफ्टवेयर कर्मियों को विदेश में सेवा पर भेजने से मिला।
पिछली सदी के अंत में बड़ा बदलाव आया जब दो अंकों के हिसाब से डिजाइन किए गए कंप्यूटर कार्यक्रमों को संशोधित करके उन्हें चार अंकों वाला बनाने का मुश्किल काम सामने आया। भारतीय सॉफ्टवेयर सेवा कंपनियां यह काम सस्ती दर पर कर सकती थीं क्योंकि यहां वेतन भत्तों का स्तर अमेरिका और यूरोप की तुलना में छठे हिस्से के बराबर था। सन 1998-1999 और 2000-2001 के बीच भारत से सॉफ्टवेयर निर्यात 2.5 गुना बढ़ गया। इससे भी भारतीय सॉफ्टवेयर सेवा कंपनियों के लिए नए अवसर तैयार हुए।
तब से भारत का सॉफ्टवेयर सेवा उद्योग सॉफ्टवेयर सेवा और इंटरनेट तकनीक आधारित सेवाओं के क्षेत्र में अहम वैश्विक किरदार बनकर उभरा। इसका सालाना निर्यात वित्त वर्ष 2000 के 3 अरब डॉलर से बढ़कर 2022 में 181 अरब डॉलर हो गया। इस दौरान 50 लाख लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिला।
सन 1980 के दशक के बाद इन्फोटेक उद्योग की वृद्धि भी भारतीय उद्यमिता का दिलचस्प उदाहरण है। आज की शीर्ष पांच कंपनियों में केवल दो बड़े समूह हैं जबकि अन्य तमाम उद्यमों को सॉफ्टवेयर इंजीनियर उद्यमियों ने विकसित किया।
बीते तीन दशकों के दौरान इन्फोटेक सेवा उद्योग ने जबरदस्त वृद्धि हासिल की। लेकिन आगे देखते हुए हमें यह समझना होगा कि भविष्य दो चीजों पर निर्भर करता है: इन्फोटेक विकास के क्षेत्र में अहम पहुंच और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ बेहतर एकीकरण।
यह उद्योग एक बड़ा वैश्विक हिस्सेदार है लेकिन यहां पर्याप्त नवाचार नहीं है। प्रमुख कंपनियां शोध एवं विकास पर अपने कुल टर्नओवर का बमुश्किल एक फीसदी व्यय करती है जो वैश्विक दिग्गजों से काफी कम है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम मेधा के तेज उभार के बाद कम लागत वाली सेवाओं में भारत की बढ़त कमजोर पड़ेगी।
यह बढ़त तभी बचेगी जब भारत आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तथा अन्य उभरती तकनीकों में सफलता हासिल करेगा। इसके लिए शोध एवं विकास में न केवल सरकार बल्कि इन्फोटेक कंपनियों को भी निवेश बढ़ाना होगा। क्लाउड कंप्यूटिंग इसका उदाहरण है जिसमें भारत के अधिकांश उपभोक्ता विदेशी आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर हैं।
यह भी जरूरी है कि इन्फोटेक सेवा उद्योग घरेलू बिक्री पर ध्यान दे जो फिलहाल उन कंपनियों के कुल कारोबार के 20 फीसदी के करीब है। इसे समझा जा सकता है क्योंकि इन्फोटेक सेवा उद्योग का लागत लाभ केवल विकसित देशों के उपभोक्ताओं की स्थानीय लागत से संबद्ध होता है। बहरहाल, इन्फोटेक सेवा कंपनियां अब घरेलू उपभोक्ताओं को अधिक लाभदायक सेवाएं प्रदान कर सकती हैं।
इसकी आवश्यकता बढ़ जाएगी जब सरकार नंदन नीलेकणी जैसे निजी क्षेत्र के सॉफ्टवेयर दिग्गजों के सहयोग और उनकी मदद से खुली पहुंच वाले फ्रेमवर्क का विकास करेगी। इस डिजिटल पब्लिक नेटवर्क में आधार शामिल है जो डिजिटल संपर्क में पहचान की पुष्टि करता है।
यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस यानी यूपीआई के जरिये जनवरी 2023 में 13 लाख करोड़ रुपये का लेनदेन हुआ। इस बीच ओपन क्रेडिट इनेबलमेंट नेटवर्क (ओसेन) और ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स (ओएनडीसी) के रूप में नई पहल सामने आई हैं। इस बीच डिजिटल फ्रेमवर्क तक पहुंच तेजी से बढ़ी है क्योंकि स्मार्ट फोंस की तादाद में इजाफा हुआ है और इंटरनेट उपयोगकर्ता और बैंक जमाधारक बढ़े हैं।
भारत में एक विशिष्ट प्रकार की सरकारी और निजी भागीदारी के जरिये डिजिटल अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। इन्फोटेक सेवा कंपनियों को अब खुद को सेवाओं के प्रमुख घरेलू आपूर्तिकर्ता के रूप में देखना चाहिए न कि केवल वैश्विक प्रतिस्पर्धी निर्यातक के रूप में।
बाद वाली क्षमता हासिल करनी होगी और उसके लिए शोध एवं विकास में अहम प्रतिबद्धता हासिल करनी होगी। इसमें न केवल कंपनियों को व्यय बढ़ाना होगा बल्कि सरकार को भी आईआईटी, विश्वविद्यालयों तथा अन्य स्थानों पर इन्फोटेक शोध को बढ़ावा देना होगा।
घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार विकास का एकीकरण और तकनीकी विकास अन्य उद्योगों के लिए भी एक संदेश समेटे है। देश के घरेलू बाजार का बढ़ता आकार निर्यात वृद्धि का आधार बन सकता है। निर्यात वृद्धि उत्पाद वृद्धि में मददगार साबित होगी और लागत कम करने में मददगार साबित होगी।
जबकि घरेलू बाजार वृद्धि से कारोबार का आकार बढ़ाने में फायदा मिलेगा। यहां तक कि निर्यातोन्मुखी विदेशी कंपनियां भी भारत केवल अपने वैश्विक उत्पादों की सस्ती असेंबली के लिए नहीं आतीं उनकी नजर भारत के तेजी से बढ़ते बड़े बाजार पर भी रहती है। यही वजह है निर्यात वृद्धि और घरेलू बाजार विकास की नीतियों का एकसार और समन्वय वाला होना जरूरी है। इन्फोटेक सेवा उद्योग के लिए यह अगला अहम कदम है।