facebookmetapixel
Viasat देगी सैटेलाइट कम्युनिकेशन को नया आकार! भारत में स्टार्टअप के साथ मिनी जियोसैटेलाइट बनाने के लिए कर रही बातचीतथर्ड पार्टी दवा उत्पादन को मिलेगा दम, नए बाजारों में विस्तार को बढ़ावा मिलने की उम्मीदBS Poll: रीपो रेट में बदलाव के नहीं आसार, महंगाई पर दिखेगा जीएसटी कटौती का असर!HAL: तेजस एमके-1ए और बढ़ते ऑर्डर बुक के साथ 20% रेवेन्यू ग्रोथ और मार्जिन में सुधार की उम्मीदगायतोंडे की 1970 की पेंटिंग 67.08 करोड़ रुपये में बिकी, भारतीय कला की नई कीर्तिमान कायमPM मोदी बोले: RSS की असली ताकत त्याग, सेवा और अनुशासन में निहित, 100 वर्ष की यात्रा प्रेरणादायकलगातार कमजोर प्रदर्शन का कारण बताना मुश्किल, शेयर विशेष रणनीति पर जोर: सायन मुखर्जीUNGA में बोले जयशंकर: भारत अपने विकल्प चुनने को स्वतंत्र, ग्लोबल साउथ की आवाज बनाए रखेगाKarur Stampede: 40 की मौत, 60 घायल, PM मोदी ने 2-2 लाख रुपये के मुआवजे का किया ऐलानसेंसेक्स, निफ्टी अभी पिछले साल के ऑलटाइम हाई से पीछे, भारतीय शेयर बाजार में अवसर

कांग्रेस का 1 लाख रुपये देने का वादा…साहसिक पहल या महज जुनूनी विचार?

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के तहत लगभग 6.5 करोड़ परिवारों को वर्ष 2021-22 में ‘कुछ’ काम मिला, जिस पर लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए।

Last Updated- June 11, 2024 | 9:43 PM IST
Congress releases manifesto

जब कांग्रेस (Congress) पार्टी ने भारत के सबसे गरीब परिवारों की एक महिला को बिना शर्त एक लाख रुपये सालाना देने की घोषणा की थी तब मैंने प्रयोग के तौर पर सामान्य गणना की। पिछली जनगणना 13 साल पहले की गई थी और इस बात को लेकर अब भी गर्मागर्म बहस चल रही है कि गरीबी रेखा क्या है।

इसलिए संभव है कि जो अनुमान लगाए जाएं वे हकीकत से मेल न खाते हों। मेरे आकलन के समय यह भी संभव था कि कांग्रेस सत्ता में न आए और अपने वादे पूरे करने में असमर्थ रहे।

भारत की आबादी 140 करोड़ है और ऐसे कुल परिवार करीब 30 करोड़ होंगे। उदाहरण के तौर पर देखें तो इसमें सबसे गरीब 3 करोड़ परिवार इस योजना के पात्र होते। इसका मतलब यह है कि हर साल इन पर 3 लाख करोड़ रुपये खर्च होते जो भारत के नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 1.7 प्रतिशत है। इस तरह यह अब तक की सबसे बड़ी सार्वभौमिक आधारभूत आय योजना (यूबीआई) होती।

सामाजिक कल्याण से जुड़े बजट के लिहाज से देखें तो यह विशेषतौर पर कोई बड़ी राशि नहीं लगती है। उदाहरण के तौर पर देखें तो महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के तहत लगभग 6.5 करोड़ परिवारों को वर्ष 2021-22 में ‘कुछ’ काम मिला, जिस पर लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए।

सक्रिय कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर सभी पात्र लोगों को पूरे 100 दिन का काम दिया जाता है तब मनरेगा के लिए लगभग 2.7 लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी।

भारत की प्रति व्यक्ति आय लगभग 1.5 लाख रुपये सालाना है, जो निश्चित रूप से 1.4 अरब आबादी के आधार पर की गई गणना के मुताबिक है। इसलिए, यूबीआई के जरिये 3 करोड़ लोगों को प्रति व्यक्ति आय का 67 प्रतिशत दिया जाएगा।

सबसे गरीब राज्य, बिहार में प्रति व्यक्ति आय लगभग 50,000 रुपये से थोड़ी कम है और जिन 3 करोड़ लोगों को यह राशि मिलेगी उनकी आमदनी और भी कम होगी। ऐसे में यह माना जा सकता है कि यूबीआई क्रय शक्ति को दोगुनी से भी ज्यादा कर देगा।

महिलाओं को यूबीआई देने का लक्ष्य बनाना राजनीतिक और व्यावहारिक दोनों वजहों से सार्थक है। राजनीतिक रूप से देखा जाए तो यह निश्चित रूप से महिला मतदाताओं को लक्षित करने का एक प्रयास होता। व्यावहारिक रूप से, कई निवेश अध्ययन बताते हैं कि महिलाएं पैसों का बेहतर प्रबंधन करती हैं, उनकी शराब पीने की आदत कम होती है, और वे बड़े जोखिम भी नहीं लेती हैं।

दक्षिण एशिया में, बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक के अनुभवों को देखा जाए या फिर भारत में सूक्ष्म वित्त संस्थानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि महिलाओं में ये विशेषताएं देखी जाती हैं। अगर महिलाओं को छोटे ऋण दिए जाते हैं तब ऐसी संभावना होती है कि वे एक ऐसा कारोबार तैयार करें जो टिकाऊ आमदनी दे।

जैसा कि ऊपर बताया गया है अब तक की सबसे बड़ी यूबीआई योजनाएं तुलनात्मक रूप से छोटी रही हैं। सबसे बड़ी योजना में केन्या के ग्रामीण इलाकों के लगभग 20,000 निवासी शामिल थे। इस देश की कुल आबादी 5.6 करोड़ है। (केन्या के कुछ लोगों को लंबी अवधि के लिए जबकि कुछ को छोटी अवधि के लिए यूबीआई मिला)। फिनलैंड और आयरलैंड ने भी यूबीआई का प्रयोग किया है। फिनलैंड (55 लाख की आबादी) ने एक प्रायोगिक यूबीआई अध्ययन के तहत करीब 2,000 लोगों को कुछ राशि दी।

वहीं आयरलैंड ने संघर्षरत कलाकारों (आबादी के एक बेहद छोटे वर्ग) को यूबीआई दिया ताकि उन्हें जीविका चलाने के लिए मजदूरी करने के बजाय कला पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। केन्या और फिनलैंड के प्रयोगों में ऐसे ही जनसांख्यिकीय समूहों के नियंत्रण समूह भी थे जिन्हें यूबीआई नहीं मिला।

उन अध्ययनों से यह अनुमान लगाना संभवतः गलत साबित हो सकता है कि यूबीआई बड़े पैमाने पर कैसे काम करेगा। हालांकि, हम जानते हैं कि इन मामलों में यूबीआई ने कुछ रोजगार के मौके दिए और जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर स्थिति में सुधार लाने की कोशिश की।

लोगों ने इन पैसे को शराब पीने में बरबाद नहीं किया और न ही किसी ऐसे लक्जरी सामान पर खर्च किए जिन्हें वे आम तौर पर नहीं खरीद पाते थे। इन अध्ययनों में यह भी लगातार पाया गया है कि रकम हासिल करने वालों ने अपनी काम करने की क्षमता में कोई कमी नहीं लाई या शराब, तंबाकू या अन्य ड्रग्स पर पैसा खर्च नहीं किया।

ऐसे कई उदाहरण देखे गए जब भोजन सुरक्षा, शैक्षणिक अर्हता, छोटे कारोबार में निवेश और दीर्घावधि की कमाई में सुधार देखा गया था। इससे दीर्घकालिक जीवन स्तर, मनोवैज्ञानिक बेहतरी के साथ ही जीवन प्रत्याशा में भी उल्लेखनीय सुधार देखा गया। हालांकि इसका पैमाना बड़ा नहीं था ऐसे में मुद्रास्फीति के प्रभाव पर गौर नहीं किया गया जो एक ऐसा क्षेत्र है, जहां सवाल हो सकते हैं खासतौर पर अगर लाभार्थियों की संख्या 3 करोड़ हो।

यह महज जोश से तैयार की गई योजना की तरह नहीं लगता है बल्कि मनरेगा जैसे कीन्सवादी उपायों का एक तार्किक विस्तार है। सहज रूप से, ग्रामीण बैंक और मनरेगा के अनुभवों से जो हम जानते हैं, उसके आधार पर भारत में सबसे कम दशमक (या पंचमक) वर्ग में बड़े पैमाने पर यूबीआई के सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। लोग छोटे कारोबारों में निवेश करेंगे और ऐसी योजना पिरामिड के नीचे मौजूद लोगों के लिए सेवाएं और उत्पाद उपलब्ध कराने वाले बाजार का विस्तार कर सकती है।

First Published - June 11, 2024 | 9:34 PM IST

संबंधित पोस्ट