भारतीय जनता पार्टी (BJP) जैसे बड़े और व्यापक राजनीतिक संगठन में जगह बनाने के लिए कई प्रतिभाशाली लोग संघर्ष कर रहे हैं। संभव है कि कई उल्लेखनीय लोगों को वह जगह नहीं मिल पाए जिनके वे हकदार हो सकते हैं। ऐसे ही लोगों में एक नाम सुशील कुमार मोदी (Sushil Kumar Modi) का भी था।
कैंसर की बीमारी की वजह से 71 वर्षीय सुशील मोदी का निधन सोमवार को हो गया जो पार्टी के राज्य सभा सदस्य थे। भाजपा ने भी राजनीति में उनके योगदान, विचारधारा और उदार मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को कम ही महत्त्व दिया।
शुरुआती दौर की बात करें तो बिहार में तीन नेता बड़ी प्रमुखता से उभरे। इनमें इंजीनियर से नेता बने नीतीश कुमार, पटना विश्वविद्यालय के छात्र संघ के छात्र नेता रहे लालू प्रसाद और तीसरे सुशील मोदी थे। इस समूह से बाद में रवि शंकर प्रसाद जुड़ गए जो इन सबसे उम्र में कुछ साल छोटे थे।
सुशील मोदी ने वर्ष 1974 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के कार्यकर्ता के तौर पर जयप्रकाश नारायण के कांग्रेस विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्हें आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मीसा) के तहत पांच बार गिरफ्तार किया गया और 24 महीने के लिए जेल भी भेजा गया। इ
ससे पहले उनके परिवार ने उनकी बेहतर शिक्षा के लिए तीन स्कूलों में भेजा था जिनमें से दो स्कूल मिशनरी द्वारा चलाए जाते थे। वह 1973 में पटना विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग की परीक्षा में दूसरे स्थान पर रहे। (हालांकि उन्होंने एक बार बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था कि उन्हें यह आशंका थी कि वह परीक्षा में फेल हो सकते हैं लेकिन परीक्षा से पहले आखिरी महीने में उन्होंने खूब जमकर पढ़ाई की।)
विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कारोबार में पहली बार हाथ आजमाते हुए 1987 में मोदी कंप्यूटर इंस्टीट्यूट खोला। इसके लिए उन्होंने बैंक से 70,000 रुपये का बैंक लोन भी लिया था। उसी दौरान उन्होंने एक रोमन कैथलिक जेस्सी जॉर्ज से शादी भी कर ली थी जो मुंबई में पली-बढ़ी थीं। दोनों की मुलाकात मुंबई तक की ट्रेन यात्रा के दौरान हुई। दोनों ने उस यात्रा के दौरान पूरी रात बात की। मोदी ने महसूस किया कि अगर उन्हें पारिवारिक रिश्ते की शुरुआत करनी है तब उन्हें आजीविका के साधन का जुगाड़ करना होगा।
मोदी ने भाजपा के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी शादी का निमंत्रण पत्र दिया था। वाजपेयी उनकी शादी में पटना भी गए और उन्होंने सुशील मोदी (Sushil Kumar Modi) से सक्रिय राजनीति में आने को कहा। मोदी को भी अहसास हो चुका था कि वह कारोबार के लिए नहीं बने हैं। इसके बाद ही उनके कारोबार का सफर खत्म हुआ और उन्होंने वाजपेयी की सलाह पर राजनीति में वापसी कर ली।
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार भले ही सहयोगी रहे हैं लेकिन वक्त के साथ उनकी राजनीतिक दिशाएं अलग होती गईं। 1990 के दशक के बिहार में सामाजिक-राजनीतिक चेतना का उभार देखा जा रहा था क्योंकि लालू प्रसाद के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य में भाजपा पर पूरा दबाव बनाने की कोशिश की जा रही थी जिसकी परिणति रथ यात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के तौर पर हुई।
इसी दौरान भाजपा में सुशील मोदी और रविशंकर प्रसाद का दबदबा भी बढ़ रहा था जो लालू के शासन-प्रशासन की आक्रामक तरीके से आलोचना कर रहे थे। लालू के खिलाफ चारा घोटाले का मामला सबसे पहले सुशील मोदी ने उठाया था और रविशंकर प्रसाद ने इसकी कानूनी लड़ाई लड़ी थी।
जब आखिरकार लालू प्रसाद को दोषी ठहराया गया तब मोदी, नीतीश कुमार के सेनापति बन गए जो भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बने। बिहार भाजपा में कई लोगों को विशेष रूप से उच्च जाति वर्ग के लोगों को सुशील मोदी पर गहरा संदेह था, विशेष रूप से नीतीश के साथ उनके संबंधों को लेकर (मोदी ने वर्ष 2005 से 2013 तक और फिर वर्ष 2017 और 2020 के बीच बिहार के उपमुख्यमंत्री के तौर पर काम किया। भाजपा में कुछ लोगों की यह धारणा थी कि सुशील मोदी ने नीतीश के हितों को भाजपा से ऊपर रखा)।
वर्ष 2010 के विधानसभा चुनावों के दौरान, नीतीश ने भाजपा को साफतौर पर संदेश दिया कि बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) का प्रचार करने के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कोई आवश्यकता नहीं है।
नीतीश ने कहा, ‘हमारे पास एक मोदी (सुशील मोदी) हैं ही तो दूसरे मोदी (नरेंद्र मोदी) की क्या जरूरत है?’ नरेंद्र मोदी इसके बाद बिहार से दूर ही रहे। सुशील मोदी ने उस तारीफ के बदले में ‘द टेलीग्राफ’ अखबार को दिए एक साक्षात्कार में कहा, ‘नीतीश प्रधानमंत्री पद के काबिल हैं।’
उनके और पार्टी की प्रदेश इकाई के बीच बढ़ती दूरी का पहला संकेत तब मिला जब वर्ष 2020 के विधानसभा चुनावों के लिए उनके प्रत्याशियों को भाजपा प्रचार अभियान समिति से बाहर रखा गया। उन्होंने आरोप लगाया कि चिराग पासवान, नीतीश कुमार पर हमले कर खेल बिगाड़ रहे हैं। लेकिन भाजपा में कई लोगों ने जद (यू) पर हमला करने के लिए पासवान की मौन सराहना की।
हालांकि बिहार के वित्त मंत्री के तौर पर उन्हें गौरवान्वित क्षण का अनुभव करने का मौका मिला। रतन टाटा निवेश की संभावनाएं तलाशने के लिए उसी अवधि के दौरान पहली बार पटना आए थे और उन्होंने स्वीकार किया था कि लगभग 25 वर्षों में राज्य में उनकी यह पहली यात्रा थी।
वस्तु एवं सेवा कर (GST) के लिए जब राज्यों के साथ कर पर बातचीत की जा रही थी (2011-13) तब वह जीएसटी टास्क फोर्स के प्रमुख थे। वर्ष 2012 में, उन्होंने जीएसटी पर बातचीत को नए सिरे से शुरू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और उस वक्त वह तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के साथ एक बेहतर मकसद से कामकाजी संबंध स्थापित करने में सफल रहे। इसके साथ ही जीएसटी पर बातचीत आगे बढ़ने लगी। बाद में, वह राज्यों के साथ जटिल संबंधों पर बातचीत में मदद करने के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली के दाहिने हाथ साबित हुए।
पिछले बजट से जुड़ी चर्चा में सुशील मोदी को भाजपा के मुख्य वक्ता के रूप में जिम्मेदारी दी गई थी। उन्होंने जोरदार तरीके से बात की और बाद में उन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड को यह भी बताया कि वह कुछ भाषणों की गुणवत्ता से स्तंभित थे जिनमें उनकी पार्टी के कुछ सदस्यों के भाषण भी शामिल थे। उन्होंने अपना भाषण तैयार करते समय की गई तैयारी के साथ ही विस्तार से यह भी बताया कि उन्होंने क्या-क्या पढ़ा है।
सुशील मोदी का नई तकनीक के प्रति काफी आकर्षण था। वह पटना में सबसे नया आईफोन खरीदने वाले पहले लोगों में से थे और उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने दशकों पहले अपने ब्लैकबेरी क्यों छोड़ दिया था।
उन्होंने आखिरी समय तक अपना यह भरोसा कायम रखा कि सभी को अपनी इच्छानुसार धर्म का पालन करने का अधिकार है और ओडिशा में ग्राहम स्टेंस से जुड़ी घटना (1999 में इस ईसाई पादरी को जलाकर मार डाला गया था) से वह बेहद आहत थे और उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसका विरोध किया था। सुशील मोदी आखिर तक सज्जन व्यक्ति बने रहे और उन्होंने एक अलग भाजपा का प्रतिनिधित्व किया।