भारत में ऐपल इंक उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की कामयाबी का प्रतीक बन गई है। कंपनी की उपलब्धियां प्रभावशाली हैं। वित्त वर्ष 2023 में कंपनी का निर्यात पांच गुना बढ़कर पांच अरब डॉलर हो गया, यानी भारत से होने वाले कुल स्मार्ट फोन निर्यात का करीब 80 फीसदी। शेष कंपनियों में सबसे अधिक हिस्सेदारी वाली कंपनी सैमसंग रही।
ऐपल का यह भी कहना है कि उसने ताइवानी वेंडरों की मदद से पीएलआई योजना में शामिल होने के बाद 19 महीनों में एक लाख नए प्रत्यक्ष रोजगार तैयार किए। यह आंकड़ा सरकार द्वारा पांच वर्षों में पीएलआई योजना के तहत मोबाइल फोन के क्षेत्र में तैयार होने वाले कुल रोजगार का लगभग आधा है। हालांकि देश में सबसे बड़ी फोन फैक्टरी सैमसंग ने स्थापित की है लेकिन कहा जा रहा है कि दुनिया भर में चीन के अलावा एक देश के रूप में भारत की पहचान मजबूत करने में ऐपल की अहम भूमिका है।
इन आंकड़ों की हकीकत की बात करें तो जब इन्हें देश में रोजगार की चुनौतियों के सामने रखकर देखा जाता है तो ये आंकड़े बहुत छोटे नजर आते हैं। भारत जैसे देश में अधिकांश श्रम शक्ति असंगठित क्षेत्र में काम करती है और उनकी कार्य परिस्थितियां भी बहुत अच्छी नहीं होतीं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि ऐपल जैसी बड़ी कंपनियां अधिक से अधिक संख्या में भारत में अपने कारोबार की स्थापना करें और विभिन्न प्रकार का विनिर्माण हो सके।
हमारा मकसद पीएलआई योजना की आलोचना करने का नहीं है। इसकी सफलता या विफलता का आकलन तो तब होगा जब पांच वर्ष की अवधि वाला सनसेट (एक तय अवधि के बाद प्रावधान समाप्त होना) क्लॉज लागू होगा। वास्तविक मुद्दा है वह विशिष्टता और असाधारण स्थिति जिसके साथ केंद्र सरकार औद्योगिक नीति और एफडीआई से निपटने का निश्चय करती है।
सुरजीत दास गुप्ता ने तकरीबन दो वर्ष पहले इसी समाचार पत्र में विस्तार से लिखा था कि कैसे ऐपल ने मोबाइल उपकरणों के लिए पीएलआई योजना को लेकर 10 माह से अधिक समय तक चर्चा की थी। इन विस्तृत चर्चाओं में विभिन्न सरकारी विभागों के साथ 40 से 50 बैठकें की गई थीं। इन वार्ताओं में फोन के न्यूनतम मूल्य, स्थानीय स्रोत के मानक, न्यूनतम निवेश स्तर जैसी बुनियादी चीजों को लेकर बातचीत हुई।
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ऐपल ने विनिर्माण के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी (कंपनी 2017 से ही अनुबंधित विनिर्माताओं के माध्यम से फोन की असेंबलिंग कर रही है) दर्ज कराने के लिए तथा एकल ब्रांड रिटेल स्टोर शुरू करने के क्रम में जो त्रासद मार्ग चुना वह संभावित निवेशकों के लिए चेतावनी साबित हो सकता है। ईलॉन मस्क जो अत्यंत अमीर भारतीयों को टेस्ला की बिजली से चलने वाली कार (ईवी) बेचना चाहते हैं उनका सामना इस कड़वी सच्चाई से हो रहा है। यहां भी बातचीत इन वाहनों पर उच्च आयात शुल्क, कंपनी के स्वामित्व वाले शोरूम आदि पर अटकी हुई है।
मस्क का यह उपक्रम इतना अधिक विशिष्ट है कि वह किसी भी एफडीआई केंद्रित नीति के रोजगार या निवेश उत्पन्न करने के लक्ष्यों पर कोई खास असर नहीं डालने वाली है। उदारीकरण के बाद का इतिहास बताता है कि सरकारों को अलग-अलग कंपनियों से उलझना बंद करना चाहिए और सुधार आधारित व्यावहारिक रुख अपनाना चाहिए जिससे वे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेश आकर्षित कर सकें।
उदाहरण के लिए 1990 के दशक के आरंभ में अब बंद हो चुकी बिजली कंपनी एनरॉन को बुनियादी ढांचे में निवेश का मार्गदर्शक माना जाता था। उस समय तमाम विचारधाराओं की सरकारें हर तरह का प्रोत्साहन दे रही थीं जिन पर प्रश्नचिह्न लगाया जा सकता था। उदाहरण के लिए उसे अत्यंत महंगे आयातित नेफ्था फीडस्टॉक पर आधारित बिजली शुल्क वसूलने की इजाजत देना।
भारत में एनरॉन की नाकामी की वजह यह नहीं थी कि ह्यूस्टन टैक्सस में उसकी मूल कंपनी धोखाधड़ी के दबाव में बिखर गई, बल्कि वह इसलिए नाकाम हुई क्योंकि बिजली कीमतों और पारेषण सुधार में अपेक्षित गति से प्रगति नहीं हुई। राज्य बिजली बोर्ड उसका इकलौता ग्राहक था और उसने महंगी बिजली खरीदने से इनकार कर दिया। इसके पश्चात यह दिवालिया अमेरिकी कंपनी कारोबार से बाहर हो गई और अब यह संयंत्र एक सरकार समर्थित कंपनी द्वारा चलाया जा रहा है।
सुधारों की पहली लहर में सरकार ने विदेशी निवेश की जो योजनाएं तैयार की थीं वे जल्दी ही समाप्त हो गईं। इसके विपरीत वे कंपनियां जो भारत के लिए वैश्विक मॉडल बनीं उन्होंने कारोबारी सुगमता का लाभ लेकर ऐसा किया। इसमें दूरसंचार क्रांति और सड़क संचार के साथ-साथ कारोबारी गतिविधियों और पूंजी प्रवाह का संचालन करने वाले नियमों में बदलाव जैसे कदम शामिल थे।
जेनपैक्ट ने जीई कैपिटल का बैक ऑफिस परिचालन संभालने वाली कंपनी के रूप में काम शुरू किया था। वह उन शुरुआती कंपनियों में से एक है जिसने बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (बीपीओ) में जान फूंकी थी और भारतीय स्टार्टअप मसलन इन्फोसिस, टीसीएस, एचसीएल और सत्यम (पतन के पहले) विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बदल सकीं। बीपीओ क्रांति का उच्च मूल्य वाला विस्तार जिसे एक समय ‘बॉडी शॉपिंग’ के रूप में मजाक का विषय बनाया गया था, उसे वैश्विक उत्कृष्टता केंद्रों के रूप में देखा जा सकता है जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारतीय इंजीनियरों और वैज्ञानिकों का इस्तेमाल उन्नत शोध के लिए करती हैं।
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वाहन उद्योग में सरकार द्वारा स्थानीय विक्रेताओं से सामान खरीदने की शर्त ने सीमित बाजार को एक बड़े उद्योग में बदल दिया। नब्बे के दशक के आरंभ में भारत के वाहन कलपुर्जा निर्माताओं को दुनिया भर में खारिज किया जाता था। सन 2000 के दशक तक यह उद्योग दुनिया के बेहतरीन उद्योगों में शामिल हो गया क्योंकि नए नियम के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने उसे तकनीक सौंपनी शुरू की। मोबाइल पीएलआई में ऐसा नहीं हुआ और वहां अहम कलपुर्जे अभी भी आयात होते हैं।
इसी तरह फ्लिपकार्ट (अब वॉलमार्ट का स्वामित्व) तथा जोमैटो, ओला, ओयो, पेटीएम और ढेर सारी स्वदेशी स्टार्टअप भी भारत की सॉफ्टवेयर क्षमताओं पर विकसित हुईं। उन्हें सरकार के विशेष हस्तक्षेपों से भी कोई मदद नहीं मिली। खुदरा क्षेत्र में भी घरेलू लॉबीइंग के चलते सरकार दर सरकार यह कोशिश की गई कि चीजों को धीमे रखा जाए। कई बार इसके परिणाम भी नुकसानदेह रहे।
जहां तक भारत को लेकर ऐपल की उत्सुकता की बात है तो यह बात बहुत कुछ बताती है कि उसने आईटी हार्डवेयर के लिए पीएलआई 2.0 से दूर रहने का निर्णय लिया है। खबर है कि उसने अपने संयंत्रों को वियतनाम में स्थापित करने को प्राथमिकता दी है। उसे उम्मीद है कि वह भारत से मुक्त व्यापार समझौते का लाभ उठाते हुए यहां लैपटॉप बेच सकेगी।