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Opinion: किन शोधों के लिए मुहैया कराया जाए धन?

एक प्रभावी राष्ट्रीय शोध संस्थान उत्कृष्टता को तरजीह देगा और विभिन्न परियोजनाओं को समर्थन देने व लाखों व्यक्तिगत शोधकर्ताओं को धन मुहैया कराने में उपयोगी होगा।

Last Updated- August 23, 2023 | 9:37 PM IST
Funds should be provided for which researches?

इस आलेख के प्रथम भाग में कहा गया था कि राष्ट्रीय शोध संस्थान (एनआरएफ) एक महत्त्वपूर्ण पहल है। मैंने इस बात की विशेष रूप से चर्चा की थी कि हमें दो घोषित सिद्धांतों का पूर्णतः पालन करना चाहिए। पहला सिद्धांत यह कि उच्च शिक्षण संस्थानों में शोध कार्यों के लिए विशेष रूप से धन मुहैया कराया जाना चाहिए और एक शैक्षणिक शोधकर्ताओं के साथ संगत में ही स्वायत्त सरकारी प्रयोगशालाओं के शोधकर्ता इस वित्तीय प्रोत्साहन के लिए पात्र होने चाहिए। दूसरा सिद्धांत यह कि सार्वजनिक एवं निजी दोनों शिक्षण संस्थानों में शोधकर्ताओं के लिए धन का प्रबंध किया जाना चाहिए।

मैंने तर्क दिया था कि सार्वजनिक वित्त पोषण के अंतर्गत संपूर्ण 50,000 करोड़ रुपये की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए और निजी स्रोतों पर किसी तरह की निर्भरता नहीं होनी चाहिए। मैंने इस बिंदु पर भी ध्यान आकृष्ट किया था कि एनआरएफ के प्रभावी संचालन के लिए एक पेशेवर (गैर-सरकारी) बोर्ड का गठन होना चाहिए, जिसकी जवाबदेही सीधे केंद्रीय मंत्रिमंडल के प्रति हो। यह भी रेखांकित किया गया था कि एनआरएफ का किस तरह प्रभावी इस्तेमाल होना चाहिए और यह किस प्रकार उच्च शिक्षा एवं वैज्ञानिक शोध दोनों के लिए बड़े बदलाव ला सकता है। मगर किस प्रकार के शोध के लिए धन उपलब्ध कराया जाना चाहिए चाहिए? यह इस आलेख का प्रमुख विषय है।

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उत्कृष्टता पर ध्यान, प्रासंगिकता पर नहींः एनआरएफ पर जारी आधिकारिक बयान में एनआरएफ और अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान (एनएसएफ) के बीच समानता दिखाई गई है। एनएसएफ 4,50,000 शोधों से जुड़ी जानकारियां रखता है और उनकी गुणवत्ता के आधार पर समीक्षा करता है। इसका सर्व प्रमुख लक्ष्य उत्कृष्टता प्राप्त करना है। केवल समान क्षेत्र में काम करने वाले शिक्षाविद् ही इस बात का निर्णय कर सकते हैं कि कोई प्रस्ताव धन मुहैया कराने के लायक है या नहीं। पिछले साल एनएसएफ की तरफ से निर्गत रकम 8.8 अरब डॉलर थी जो 1,800 महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में आवंटित विभिन्न मदों में आवंटित की गई थी। एनएसएफ का दावा है कि इससे 3.5 लाख शोधकर्ताओं, पीएचडी धारकों, प्रशिक्षु, शिक्षकों एवं छात्रों को इससे मदद मिली थी।

तकनीक की प्रगति पर नजर रखने वाले पर्यवेक्षकों ने लंबे समय से शोध में प्रासंगिकता या उपयोगिता पर जोर दिए जाने के प्रति आगाह किया था। अर्थशास्त्री कीथ पाविट ने कहा कि ‘ब्लू स्काई’ (संभवतः उपयोगहीन) और ‘रणनीतिक’ (संभावित रूप से उपयोगी) शोध के बीच अंतर पूरी सावधानी से किया जाना चाहिए और इसमें विशेष सतर्कता बरती जानी चाहिए। आर्थिक इतिहासकार नैथन रोजेनबर्ग ने अपने एक प्रपत्र में माना कि जब कोई किसी दूसरी चीज की खोज कर रहा होता है तो उस दौरान कुछ बड़े अलग परिणाम सामने आ जाते हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता के आधार पर शोध को बढ़ावा दिया जाना लक्ष्य से एक तरह भटकाव है। इसकी जगह एक प्रभावी शोध नीति संभावनाओं के कई द्वार खोलेगी और निजी क्षेत्रों को इनका लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहित करेगा। शोध के दायरे में पूरी समझदारी के साथ विविधता लाई जानी चाहिए। कई प्रमुख खोजों में भी यह बात सामने आई है। उदाहरण के लिए दो महान वैज्ञानिक खोजों पर विचार किया जा सकता है। इंजीनियर सादी कार्नो ने 1824 में उष्मागतिकी और 1865 में लुई पाश्चर ने जीवाणु विज्ञान (बैक्टीरियोलॉजी) की खोज की थी।

कार्नोट की व्यावहारिक समस्याओं में काफी रुचि थी। मसलन, वायुमंडलीय इंजन की तुलना में उच्च दबाव वाला वाष्प इंजन क्यों अधिक सक्षम था? उष्मागतिकी विज्ञान तकनीक से संबंधित उनकी व्यावहारिक खोज का नतीजा था। पाश्चर भी व्यावहारिक समस्याओं में रुचि रखते थे। उदाहरण के लिए उनके दिमाग में यह बात आई की बोतल में किण्वित (फर्मेंट) के पश्चात शराब की गुणवत्ता अधिक क्यों होती है?

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या फिर उन दो प्रसिद्ध आविष्कारों पर विचार करते हैं जिनमें विकास प्रक्रिया पूरी तरह सुनियोजित थी। अगर एलेक्जेंडर फ्लेमिंग नाम के वैज्ञानिक दो सप्ताह के लिए अवकाश पर नहीं गए होते तो दुनिया के पहले ऐंटीबायोटिक पेनिसिलिन की खोज नहीं हुई होती। अगर वैज्ञानिक स्पेंसर सिल्वर मजबूती से चिपकाने वाले पदार्थ (गोंद) की खोज नहीं करते तो कमजोर एडहेसिव से उनका वास्ता नहीं पड़ता जो बाद में पोस्ट-इट्स (किसी कागज या उसके टुकड़े को आवश्यकतानुसार चिपकाने एवं हटाने वाला गोंद) बन गया।

इन सारी घटनाओं में दो बातें समान हैं। ये सभी दर्शाती हैं कि तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति का मार्ग किस तरह अनिश्चित एवं उतार-चढ़ाव वाला होता है। ये सभी यह भी दर्शाती हैं कि शोधकर्ताओं को उनकी बौद्धिक यात्रा पूरी करने की अनुमति देना कितनी संभावनाओं को देता है। यह संभव है कि वे अपने निर्धारित लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाए मगर जहां तक वे पहुंच पाते हैं वहां दुनिया उससे भी बेहतर हो जाती है जितनी वास्वव में बेहतर बनाने के लिए प्रयास शुरू हुए थे।

धन मुहैया कराने की विधिः वैज्ञानिक शोधों से दो रूपों में प्रकृति को समझने में मदद मिलती है। बड़े स्तर पर वैज्ञानिक शोध के लिए आम तौर पर उपकरणों में भारी निवेश की आवश्यकता होती है। स्टैनफर्ड का लीनियर एक्सेलरेटर दुनिया की सबसे बड़ी इमारत में है और इसे अमेरिकी ऊर्जा विभाग से दशकों से भारी रकम मिलती रही जिनेवा के बाहर सीईआरएन इतना महंगा है कि इसे दर्जनों देश धन उपलब्ध कराते हैं। बड़े वैज्ञानिक खोज वैश्विक स्तर पर विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के लिए मायने रखते हैं।

आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ भारत भी इस प्रयास का हिस्सा बन सकता है। मैं इस चर्चा का हिस्सा नहीं बनना चाहता कि हम विज्ञान के क्षेत्र में वृहद स्तर पर शोध करने में हम सक्षम हैं या नहीं। मान भी लें कि भारत में यह क्षमता मौजूद है तब भी हमें इससे बचना चाहिए क्योंकि कोई बड़ी खोज हजारों छोटे प्रयासों को कमजोर कर देगी। इस तरह, फिलहाल हमें छोटे वैज्ञानिक शोधों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह दृष्टिकोण हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली में काम कर रहे हजारों शिक्षाविदों और सार्वजनिक एवं निजी संस्थानों में काम कर रहे लाखों स्नातक एवं डॉक्टरेट करने वाले छात्रों को मदद पहुंचाएगी। इससे एनआरएफ के तहत दी जाने वाली संपूर्ण 50,000 करोड़ रुपये का सार्थक इस्तेमाल हो सकेगा।

तकनीकी बदलाव हो सकता है विकासवादीः जिस शोध के लिए हम धन मुहैया कराते हैं उसकी प्रासंगिकता, उपयोगिता एवं उसके अनुप्रयोग पर ध्यान नहीं देने का पाविट का तर्क कैसे सही साबित हो सकती है? यह नवाचार प्रक्रिया की हमारी समझ पर निर्भर करती है। नवाचार पर काम करने वाले एक अन्य अर्थशास्त्री रिचर्ड नेल्सन ने लंबे समय से तर्क दिया है कि तकनीकी बदलावों को विकासवादी प्रक्रिया के रूप में सर्वाधिक देखा जाता है। विकासात्मक प्रक्रियाओं के दो आवश्यक तत्त्व होते हैं। बदलाव की उत्पत्ति और चयन प्रणाली ये दोनों ही तय करती हैं कि कौन सा स्वरूप अस्तित्व में रहेगा या नहीं। बदलाव जीव विज्ञान की स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया सभी दृष्टिकोण से उपयुक्त जीव के अस्तित्व में रहने के साथ पूरी होती है। बेहतर स्वरूप की पीढ़ियों के बाद जीन संरचना में कूटबद्ध हो जाते हैं।

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तकनीकी बदलाव के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक प्रयोग विकल्पों को जन्म देते हैं। बाजार सबसे उत्कृष्ट विकल्प का चयन करता है। नेल्सन ने ‘कैपिटलिज्म ऐज एन इंजन ऑफ प्रोग्रेस’ में कहा है कि पूंजीवाद अपनी शक्ति नवाचार से प्राप्त करता है। पूंजीवाद नवाचार करने की क्षमता कई विकल्पों से प्राप्त करता है। विकल्प खोजने की इस प्रक्रिया में कई निष्कर्ष या खोज उपयोगी नहीं होते हैं। मगर वास्तव में यह बात ही इस प्रक्रिया को शक्तिशाली बनाती है क्योंकि बाजार कई विकल्पों में सबसे उपयुक्त विकल्प का चयन करता है।

नेल्सन यह सब तब लिख रहे थे जब सोवियत संघ अस्तित्व में था। उनका यह तर्क 40 वर्षों बाद भी अहमियत रखता है कि सरकार द्वारा चयनित नवाचार क्षमता को तरजीह देता है इसलिए वह कमजोर साबित होती है, जबकि बाजार निर्धारित नवाचार शक्तिशाली होते हैं क्योंकि इसमें उपयुक्त एवं श्रेष्ठ विकल्प का चयन होता है। शोध में सरकार की भूमिका सहकर्मी समीक्षा के आधार पर शिक्षण संस्थानों को धन मुहैया कराने तक सीमित होनी चाहिए। सरकार को यह तय नहीं करना चाहिए कि क्या और किसे धन मुहैया कराना चाहिए और उसे केवल कुछ बड़े क्षेत्रों पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए।

कंपनियों को सार्वजनिक शोध के आए नतीजों का लाभ लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। कंपनियों को उन प्रतिभाओं का चयन करने की अनुमति होनी चाहिए जो सार्वजनिक एवं निजी संस्थानों से आती हैं जहां एनआरएफ से मिली रकम से छात्र उत्कृष्ट एवं उच्च गुणवत्ता वाले प्रशिक्षण पाते हैं। इसके बाद उद्योग को इसके अपने विशिष्ट स्वरूप पर ध्यान देने का अवसर और उन सेवाओं एवं उत्पादों के लिए प्रतिस्पर्धा करने की अनुमति दी जानी चाहिए जिन्हें लोग खरीदना चाहते हैं।

(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन हैं और भारतीय उद्योग परिसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं)

First Published - August 23, 2023 | 9:37 PM IST

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