वर्ष 2024 का आम चुनाव एक उम्मीदवार वाला चुनाव था। मोदी इकलौते प्रत्याशी थे जिनके नाम पर भाजपा (BJP) ने वोट मांगे और वही इकलौते ऐसे विपक्षी थे जिन्हें भाजपा के प्रतिद्वंद्वी हराना चाहते थे।
सन 1951-52 के बाद सबसे लंबी अवधि तक चलने वाला आम चुनाव के लिए मतदान ऐसे समय समाप्त हुआ है जब तापमान 50 डिग्री सेल्सियस के स्तर को छू चुका है। अब वक्त आ गया है कि हम इससे हासिल 10 सबक को याद करें।
पहला है प्रधानमंत्री द्वारा बड़ी तादाद में दिए गए मीडिया साक्षात्कार जिनके बारे में कुछ अनुयायियों का कहना है कि उन्होंने 100 से अधिक साक्षात्कार दिए। मीडिया के प्रति सतर्क बल्कि तिरस्कारपूर्ण व्यवहार रखने वाले सत्ता प्रतिष्ठान के लिए यह बहुत बड़ी तादाद है।
इनमें अहम सबक यह है कि इनसे कोई मीडिया हेडलाइन नहीं निकली। न्यूज18 की रूबिका लियाकत को दिया साक्षात्कार जरूर इसका अपवाद है जिसमें उन्होंने कहा कि अगर वह हिंदू-मुस्लिम करते तो सार्वजनिक जीवन के योग्य न रहते।
अगर पहली रेखांकित करने लायक बात यह रही कि मोदी ने मीडिया से कितनी बातचीत की तो दूसरी यह है कि राहुल ने कितनी कम चर्चा की। उन्होंने एक भी साक्षात्कार नहीं दिया। उन्होंने संवाददाता सम्मेलनों में संक्षेप में बात की लेकिन मीडिया से सीधा संवाद करने का काम बहिन प्रियंका पर छोड़ दिया। राजनीतिक नजरिये से देखें तो इस प्रकार यह पहला ऐसा चुनाव अभियान था जहां राहुल ने कोई गड़बड़ी नहीं की।
इस चुनाव में सभी सुर्खियां अनिवार्य रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों से निकलीं। इससे एक बात तो यह पता चलती है कि यह एक प्रत्याशी वाला चुनाव था। इसके अलावा उन्होंने जो कहा वही खबर बन गया। फिर चाहे बात कच्चातीवू की हो, मंगलसूत्र की, घुसपैठिये की, करतार सिंह साहब की या 1971 के युद्धबंदियों के साथ इंदिरा गांधी की बात अथवा हिंदी प्रदेशों के कामगारों की, दक्षिण के राज्यों में सनातन धर्म के अपमान की।
अगर आप चरण दर चरण इस चुनाव का एजेंडा तय करने वाली सुर्खियों पर नजर डालें तो 20 में से 18 प्रधानमंत्री के भाषणों से निकले। इनमें साक्षात्कार से निकली कोई सुर्खी नहीं है। हम जानते हैं कि मोदी के मामले में सबकुछ पहले से तय होता है इसलिए इससे कोई निष्कर्ष निकालने की आवश्यकता नहीं है।
इस तीसरी बात से यह बात निकलती है कि भाजपा का शोर हावी नहीं हुआ। वर्ष 2014 में उसके पास संप्रग-2 के ‘घोटालों’ और अच्छे दिनों के वादों का मुद्दा था। विदेश नीति में और खासतौर पर चीन के खिलाफ मजबूत कदमों का दावा भी था। उस समय तीन प्रमुख बिंदु थे व्यापक आर्थिक सुधार, भ्रष्टाचार का अंत और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में ’56 इंच की छाती’ वाला रुख। 2019 के चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा हावी था।
इस बार चुनाव प्रचार में अग्रणी को परिभाषित करने वाली कोई एक थीम नहीं थी। अर्थव्यवस्था, वृद्धि या रोजगार के मुद्दों की बात करें तो सभी चतुर राजनेता जानते हैं कि इन मसलों पर अपनी कामयाबी पर वोट मांगना जोखिम भरा होता है। वर्ष 2004 में वाजपेयी को यह सबक मिला था।
अगर 2014 और 2019 क्रमश: अच्छे दिन और राष्ट्रीय सुरक्षा के चुनाव थे तो हमें 2024 को किस प्रकार याद करना चाहिए? यह मोदी का चुनाव था। ऐसा चुनाव जहां मोदी का कोई विकल्प नहीं था। इस प्रक्रिया में पार्टी के घोषणापत्र तक को भुला दिया गया। इसकी जगह मोदी की गारंटी ने ले ली। मोदी और भाजपा ने घोषणापत्र की बात भी की तो ज्यादातर मौकों पर कांग्रेस के घोषणापत्र की।
बदलती भूराजनीति इस अभियान में भाजपा पर हावी रही। इसने राष्ट्रीय सुरक्षा की बहस को भी जब तब दिशा दी। मसलन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पूर्ववर्तियों द्वारा आतंकवादियों के मामलों पर पाकिस्तान को फाइल सौंपने की तुलना अपने ‘घुस के मारेंगे’ के रुख के साथ की। परंतु इस मुद्दे में इतना भी दम नहीं था कि चुनाव के दूसरे चरण तक भी ठहर सके।
इसकी दो वजह हैं। पहली, बीते पांच सालों में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया। दूसरा, निज्जर-पन्नून मामले में अंतरराष्ट्रीय गड़बड़ी ने ऐसी किसी कामयाबी के दावे को और मुश्किल बना दिया। इसने कुछ हद तक जी20 के बाद की चमक को फीका ही किया। खासतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनकर आने से मना कर दिया और उसी समय क्वाड की शिखर बैठक कराने की योजना परवान नहीं चढ़ सकी।
बदलती भूराजनीति के कारण कुछ सीमाएं भी उत्पन्न हुई हैं। पूर्वी लद्दाख में चीन चार वर्ष से जमा हुआ है और उसने समूची वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गतिविधियां बढ़ा दी हैं। यही वजह है कि इस बार प्रचार में मजबूत विदेश नीति की प्रतिक्रिया नजर नहीं आई।
अगर भाजपा ‘मोदी नहीं तो कौन’ के सिवा कोई अन्य चुनावी थीम नहीं पेश कर सकी तो विपक्ष भी जूझता ही रहा। वह मोदी बनाम कौन की लड़ाई से अवगत था। मोदी ही निशाना थे और उनके भाषणों और साक्षात्कारों में इतनी सामग्री थी कि उससे ढेर सारे मीम बनाए गए और छोटे-छोटे वीडियो साझा किए गए जो तेजी से फैले। अगर सोशल मीडिया पर वायरल होने को पैमाना माना जाए तो इन चुनावों में विपक्ष को जीत मिली।
इसके अलावा विभिन्न दलों खासतौर पर ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों ने इस चुनाव को कई स्थानीय और क्षेत्रीय चुनावों में विभाजित करने का प्रयास किया। यह क्षेत्रीय दलों के लिए आसान था लेकिन बड़े और अधिक सीटों वाले राज्यों में इसकी सीमाएं नजर आईं।
भारतीय जनता पार्टी के ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे को विपक्ष ने बहुत जल्दी भांप लिया और इसे संविधान बदलने के खतरे से जोड़ दिया। कहा गया कि ऐसा करके कई वर्गों का आरक्षण छीनने की कोशिश है। इस बात ने भाजपा पर असर डाला और उसने यह नारा दोहराना बंद कर दिया। इसके साथ ही सन 1977 के बाद पहली बार संविधान की पवित्रता चुनाव में मुद्दा बनी।
इसके बावजूद विपक्ष संस्थानों पर काबिज होने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बाधित होने को मुद्दा नहीं बना पाया। आपातकाल का जिक्र अपने साथ तीन चुनौतियां लाता है। पहली, इसे कांग्रेस ने लागू किया था। दूसरी आज मतदाताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग 1977 के बाद पैदा हुआ है और उसे आपातकाल की कोई याद नहीं है। तीसरा, आपातकाल ने करोड़ों लोगों को प्रभावित किया।
आज व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन, एजेंसियों का इस्तेमाल आदि चुनिंदा लोगों तक सीमित है जिसमें विपक्षी नेताओं से लेकर नागरिक समाज और मीडिया तक शामिल हैं। इसे बड़ी नाराजगी में नहीं बदला जा सका।
पूरा प्रचार अभियान जहां मोदी पर केंद्रित था वहीं भाजपा में अमित शाह के रूप में एक और चुनाव प्रचारक का उभार हुआ। उन्होंने देश भर में 188 रैलियों को संबोधित किया। उन्होंने खूब सुर्खियां बटोरीं। हमने 2017 में भी एक आलेख लिखकर भाजपा में उनके उभार को रेखांकित किया था।
अब तक वह चुनाव में जिस पिछले कक्ष को संभालते रहे हैं इस चुनाव में वह उससे आगे बढ़े हैं। वह 2013 से ही भाजपा के दूसरे सबसे कद्दावर नेता रहे हैं। अब वह दूसरे सबसे अधिक नजर आने वाले नेता भी बन गए हैं।
आखिर में क्या वाकई इन चुनावों को 44 दिन तक चलना चाहिए था? सन 1996 के चुनाव 11 दिन तक चले थे। 1998 में 20 और 2000 में 21 दिनों तक चुनाव चले थे। 2004 में भी चुनाव 21 दिन तक हुए लेकिन उसके बाद इनमें लगातार इजाफा होता गया। वर्ष 2009 में 28, 2014 में 36 और 2019 में 39 और इस बार 44 दिन तक चुनाव हुए।
यह विडंबना ही है कि एक ओर संचार और संपर्क में सुधार हुआ है हम दुनिया को अपनी बेहतरीन ईवीएम के बारे में बताते हैं तथा बूथ पर कब्जों का अंत हुआ है तो दूसरी ओर चुनावों की अवधि लंबी होती जा रही है।
मुझे पता है कि कहा जाएगा कि कि चुनाव आयोग ने ऐसा इसलिए किया ताकि मोदी अपनी पार्टी के इकलौते संदेशवाहक के रूप में देश के अधिक से अधिक हिस्सों में पहुंच सकें।
जैसा कि हमारे आंकड़े बताते हैं, चुनाव प्रचार की अवधि 1996 से लगातार बढ़ रही है। मुझे अंदाजा नहीं कि चुनाव आयोग ऐसा क्यों कर रहा है, सिवाय इसके कि शायद वह 61 दिन तक पहुंच कर आईपीएल (IPL) के एक सीजन का मुकाबला करना चाहता है। इसके लिए 2029 की प्रतीक्षा करनी होगी।