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Editorial : सरकारी बिजली कंपनियों के बाजार में सूचीबद्ध होने के फायदे
सरकारी कंपनियों को लंबे समय से विवश किया जाता रहा है कि वे उपभोक्ताओं के कुछ खास समूहों विशेषकर किसानों आदि को नि:शुल्क या भारी रियायत पर बिजली मुहैया कराएं।
सैद्धांतिक तौर पर देखा जाए तो बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण कंपनियों को सूचीबद्ध करने का निर्णय एक अच्छा विचार है। बाजार में सूचीबद्ध होने से इस क्षेत्र में पारदर्शिता बढ़ेगी और वित्तीय अनुशासन भी आएगा। यह बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह क्षेत्र अपने कामकाज में अस्पष्ट रहा है और दर्शकों से कारोबारी या वाणिज्यिक विचारों के बजाय राजनीतिक विचारों से संचालित होता रहा है।
यह बात भी उत्साह बढ़ाने वाली है कि सरकारी बिजली कंपनियों ने इस तरीके से धन जुटाने में रुचि दिखाई है। सूचीबद्ध होने के बाद कंपनियों को तिमाही वित्तीय रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी जो इन कंपनियों में एक खास स्तर के प्रकटीकरण की व्यवस्था लागू करेगी जो इस क्षेत्र के लिए एक नई बात होगी। इस कवायद के साथ ही सरकारी क्षेत्र की बिजली कंपनियों के लिए एक असल चुनौती भी है: वाणिज्यिक रूप से व्यावहारिक बनने के लिए इन कंपनियों को कीमतों और वितरण में जबरदस्त सुधार करने होंगे।
जानकारी के मुताबिक चार कंपनियां इसकी तैयारी में जुटी हैं। इनमें से एक कंपनी गुजरात एनर्जी ट्रांसमिशन कंपनी (गेटको) ने तो रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस का मसौदा जारी करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। यह प्रॉस्पेक्टस कंपनियां सूचीबद्धता के पहले निवेशकों को जानकारी देने के लिए जारी करती हैं। छत्तीसगढ़ ने बिजली उत्पादन और वितरण कंपनी को सूचीबद्ध करने का प्रस्ताव रखा है जबकि हरियाणा ने अपनी बिजली उत्पादन कंपनी की सूचीबद्धता को मंजूरी दी है। अगर इनमें से कोई योजना आगे बढ़ती है तो यह किसी सरकारी बिजली कंपनी की ओर से सूचीबद्धता की ओर पहला बड़ा कदम होगा।
इन कंपनियों में गेटको बाकियों से अलग है और उसकी वित्तीय हालत औरों से अच्छी है। कंपनी को हाल ही में बिजली के पारेषण के अहम मानकों में सुधार के लिए सेंट्रल बोर्ड ऑफ इरीगेशन ऐंड पावर अवार्ड मिला है। मूल्यांकन की बात करें तो यह क्षेत्र समग्र रूप से राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों की राजनीतिक आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील बना हुआ है जो देश के करीब 80 फीसदी बिजली वितरण को संभालती हैं और 90 फीसदी उपभोक्ताओं को आपूर्ति करती हैं। यह संदेहास्पद है कि बाजार सूचीबद्धता की आकांक्षा रखने वाली बिजली वितरण कंपनियों में खुदरा निवेशक पर्याप्त रुचि दिखाएंगे या नहीं।
इन पूर्ण स्वामित्व वाली सरकारी कंपनियों को लंबे समय से विवश किया जाता रहा है कि वे उपभोक्ताओं के कुछ खास समूहों विशेषकर किसानों आदि को नि:शुल्क या भारी रियायत पर बिजली मुहैया कराएं। इस नीति के कारण बिजली बिजली शुल्क में घाटा होता है और भारी नुकसान के चलते बिजली उत्पादन कंपनियों को भारी घाटा सहन करना पड़ता है। बीते दो दशकों में पांच बचाव पैकेज दिए गए लेकिन इनका बिजली वितरण कंपनियों के घाटे और बकाये पर कुछ खास असर नहीं हुआ।
वर्ष 2023-24 में बिजली वितरण कंपनियों का समेकित बकाया 6.8 लाख करोड़ रुपये था। पारेषण और वितरण घाटे में भी शायद ही सुधार हुआ। 12-15 फीसदी के नुकसान लक्ष्य की जगह 16.87 फीसदी का भारी नुकसान दर्ज किया गया। लागत और राजस्व के बीच का अंतर 2023-24 में 0.21 रुपये प्रति किलोवॉट रहा जबकि बचाव योजनाओं में इसे शून्य करने का लक्ष्य तय किया गया था। यह बात दिखाती है कि राज्यों का राजनीतिक नेतृत्व बिजली की कीमतों से छेड़छाड़ करने में हिचकिचाते हैं जबकि वह इन कंपनियों की वित्तीय समस्याओं को हल कर सकती है। यह बताता है कि क्यों बिजली वितरण कंपनियों के निजीकरण के पिछले प्रयास (ऊर्जा मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने गत वर्ष इस विषय पर आशावादी ढंग से बात की थी) उस गति से मेल नहीं खा रहे हैं जिस गति से निजी निवेशक बिजली उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं, जहां संस्थागत खरीदारों के साथ बड़े सौदे और परिचालन दक्षता एक हद तक बिजली वितरण कंपनियों के बकाये की भरपाई में सक्षम बनाती है।
इसके अलावा एक तथ्य यह है कि ये सभी बिजली वितरण कंपनियां पूरी तरह सरकारी स्वामित्व वाली हैं। कारोबारी प्रशासन की दृष्टि से देखें तो यह भी दिक्कतदेह है। कई कंपनियों में स्वतंत्र निदेशक नहीं हैं या फिर वित्तीय निगरानी की गुणवत्ता ऐसी नहीं कि अंशधारकों की जांच को पूरा किया जा सके। इन दिक्कतों के बीच बाजार में सूचीबद्धता सरकारी कंपनियों के लिए चुनौती होगी। बहरहाल, यह एक पुरानी समस्या का ऐसा हल हो सकता है जिसे केंद्र सरकार का कोई बचाव पैकेज उबार नहीं सकता।