रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह विभिन्न सार्वजनिक भाषणों के माध्यम से और संवाददाता सम्मेलनों के जरिये यह संदेश प्रचारित-प्रसारित करते रहे हैं कि सशस्त्र बलों के पास धन की कमी नहीं है।
वह कहते हैं कि रक्षा आवंटन में पर्याप्त इजाफा यह सुनिश्चित करता है कि सेना के पास जवान, हथियार, उपकरण और बुनियादी ढांचा आदि पर्याप्त मात्रा में रहें और वह चीन, पाकिस्तान तथा कश्मीर और मणिपुर जैसे आंतरिक अशांति वाले क्षेत्रों में जरूरी कदम उठा सके। परंतु 2.5 से तीन लाख सेवानिवृत्त जवानों की पेंशन वाला रक्षा बजट दशकों में पहली बार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के दो फीसदी से नीचे आ गया है।
एक ऐसे देश के लिए यह उचित धनराशि हो सकती है जिसके नेताओं में इतनी कूटनीतिक पकड़ हो और उन्होंने क्षेत्रीय सहयोग और सद्भाव कायम किया हो। लेकिन भारत जैसे देश के लिए नहीं जिसके दूसरे सबसे बड़े नेता ने क्षेत्र के शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वियों को यह कहकर चुनौती दे दी हो कि वह विवादित इलाके उनसे छीन लेगा।
चीन और पाकिस्तान को धमकाने के बाद सैन्य आवंटन में कमी करना चीन और पाकिस्तान पर भरोसा जताने जैसा है जो सही नहीं है। इस बीच रक्षा आवंटन को लेकर कई ऐसे वक्तव्य आएंगे जिनकी मदद से जनता को लगभग धोखा देते हुए सुरक्षा का अहसास कराया जाएगा और जिसे हमारे शक्तिशाली शत्रु जब चाहें तब ध्वस्त कर सकते हैं।
रक्षा मंत्रालय के एक वक्तव्य में कहा गया कि 2023-24 के बजट में रक्षा क्षेत्र को 5.94 लाख करोड़ रुपये मिले जो पिछले वर्ष से 13 फीसदी अधिक हैं। यहां यह नहीं बताया गया कि यह तुलना पिछले वर्ष के बजट आवंटन से है।
बहरहाल, जब हम 2023-24 के आवंटन की तुलना इस वर्ष के संशोधित अनुमान से करते हैं तो रक्षा बजट में इजाफा केवल 1.5 फीसदी है।
इसी प्रकार रक्षा मंत्रालय ने घोषणा की, ‘आधुनिकीकरण और अधोसंरचना विकास से संबंधित आवंटन बढ़कर 1.62 लाख करोड़ रुपये हो गया जो 2019-20 से 57 फीसदी अधिक है।’ यहां इस तथ्य को छिपाया गया है कि गत वर्ष के 1.52 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत आवंटन के बजाय इस वर्ष पूंजीगत व्यय आवंटन बमुश्किल 6 फीसदी बढ़ा है।
यह इजाफा अपर्याप्त है क्योंकि इस समय मुद्रास्फीति की दर ऊंची है और रुपया कमजोर है। इन बातों का उल्लेख बजट दस्तावेज में नहीं है।
रक्षा क्षेत्र के लिए होने वाला आवंटन आम बजट के पूंजी निवेश आवंटन का एक हिस्सा भर है। 2023-24 के बजट में पूंजी निवेश आवंटन लगातार तीसरे वर्ष तेजी से बढ़ा और इसमें 33 फीसदी का इजाफा हुआ और यह 10 लाख करोड़ रुपये हो गया जो जीडीपी का 3.3 फीसदी है। रक्षा क्षेत्र का आवंटन बढ़कर 1.62 लाख करोड़ रुपये हो गया लेकिन अभी भी यह केंद्र सरकार के पूंजी आवंटन के साथ तारतम्य में नहीं है।
दूसरी दिक्कत है तीनों सेनाओं में पूंजीगत व्यय फंडिंग के वितरण पर पूरी तरह विचार नहीं करना। आवंटन इन सेनाओं की तय भूमिकाओं के आधार पर होना चाहिए।
मसलन राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति यानी एनएसएस में स्पष्ट कहा गया है कि भारत को हिंद महासागर क्षेत्र में वैश्विक स्तर के साझा मसलों की निगरानी की भूमिका निभानी चाहिए। इसमें समुद्री लूट और आतंकवाद तथा समुद्री और हवाई यातायात शामिल हैं। ऐसा करने से हम इस नतीजे पर पहुंच सकेंगे कि भारतीय नौसेना को कैसे युद्धपोत चाहिए, भारतीय वायुसेना को लक्ष्य पर निशाना लगाने के लिए किस प्रकार के हमलावर उपकरणों की आवश्यकता है और ऐसे काम के लिए कैसी क्षमता चाहिए।
एनएसएस को यह भी निर्धारित करना होगा कि हिंद महासागर क्षेत्र में भारतीय सेना अकेले हमला करेगी या अन्य नौसेनाओं के साथ साझेदारी में। क्योंकि इस परिस्थिति में संचार उपग्रहों के बारे में निर्णय लेने होंगे कि हमें उन्हें कैसे स्थापित करना है, लंबी दूरी की मिसाइलों की किस प्रकार आवश्यकता होगी और किन विपरीत परिस्थितियों से निपटना पड़ सकता है।
दूसरे शब्दों में अगर भारत हिंद महासागर क्षेत्र में भूमिका बढ़ाने का निर्णय लेता है तो उसे एकदम अलग रणनीतिक और सामरिक तौर तरीके अपनाने होंगे और उनके लिए अलग तरह के उपकरण और प्रशिक्षण चाहिए होगा।
इस आकलन के आधार पर हर सेवा यह तय करेगी कि उसे किन उपकरणों की आवश्यकता है तथा जरूरत पड़ने पर वह उन्हें साझेदार देशों से लेगी या स्वदेशी विनिर्माताओं से या फिर लीज पर लेंगी। उस स्थिति में खरीदारी का कार्यक्रम बनाना होगा और यह तय करना होगा कि हर सेवा का आवंटित फंड समय पर खरीद के लिए उपयुक्त हो।
उदाहरण के लिए अगर दक्षिण हिंद महासागर में दबदबा कायम करने की क्षमता की जरूरत हुई तो 65,000 टन क्षमता वाले दो विमानवाहक पोतों तथा छह परमाणु क्षमता संपन्न पनडुब्बियों की जरूरत होगी। इनके भुगतान की समयसीमा तय करनी होगी जिसके लिए रक्षा मंत्रालय को वित्त मंत्रालय के साथ तालमेल के साथ काम करना होगा ताकि समय पर भुगतान की व्यवस्था हो सके।
सेना और वायुसेना को अगर उपकरणों की जरूरत होगी तब भी ऐसी ही स्थिति बनेगी। ऐसे तमाम भुगतानों को पूरा करने के बाद चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ के नेतृत्व वाले तीनों सेनाओं के मुख्यालय को खरीद प्राथमिकताओं का निर्धारण करना होगा। चूंकि हथियारों और उपकरणों का भुगतान अक्सर 5-10 वर्ष की अवधि में किया जाता है इसलिए भुगतान की किस्तों के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।
केंद्रीय बजट से जुड़ी जो तीसरी विशेषता दिमाग में आती है वह यह कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को बजट दस्तावेजों में सुधार का काम पूरा करना है। अनुदान मांगों की संख्या को छह से सात तक सीमित करके पहले अरुण जेटली फिर मनोहर पर्रिकर, निर्मला सीतारमण और अब सिंह ने अपठनीय बिंदुओं को तार्किक आवंटन में बदल दिया है। फिर भी काफी कुछ किया जाना है: अज्ञात कारणों से तटरक्षकों का बजट रक्षा मंत्रालय के बजट का हिस्सा है बजाय कि नौसेना राजस्व बजट या पूंजीगत बजट के।
इसी प्रकार जम्मू और कश्मीर लाइट इन्फैंट्री जो कि एक नियमित इन्फैंट्री रेजिमेंट है, उसका बजट भी मंत्रालय के बजट में शामिल है।
सीमा सड़क संगठन जो पहले सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के अधीन था, उसे उचित ही रक्षा मंत्रालय के अधीन कर दिया गया है। इसलिए क्योंकि यह संगठन सामरिक महत्त्व की तथा कठिन जगहों पर सड़क बनाता है।
बहरहाल, इसका आवंटन भी बजट में यहां-वहां बिखरा हुआ है। समझदारी यही होगी कि इसे अपनी अनुदान मांग पेश करने का अवसर दिया जाए या फिर इसके आवंटन को सुसंगत तरीके से सुदृढ़ किया जाए। इसी प्रकार रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के बजट को भी आगे और सुदृढ़ बनाना समझदारी भरा होगा।