अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने उस मामले में सुनवाई तेज कर दी है जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका के व्यापारिक साझेदारों पर एकतरफा शुल्क लगाने के अधिकार को चुनौती दी गई है। आमतौर पर न्यायालय लंबे समय तक सुनवाई करता है और गर्मियों में अपना निर्णय देता है। परंतु ऐसा लगता है कि इस मामले की सुनवाई जल्दी निपट जाएगी।
पिछले सप्ताह न्यायालय में बहस का जो दौर चला उसमें उन वकीलों की स्थिति मजबूत नहीं दिख रही थी जो कार्यपालिका को शुल्क तय करने का अधिकार देने वाले 1977 की एक व्यवस्था का बचाव कर रहे थे। यह कहता है कि आपातकालीन व्यापार उपायों को विधायिका के पास भेजने की आवश्यकता नहीं है।
संवैधानिक रूप से, शुल्क और सभी प्रकार के कर लगाने का अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस के पास सुरक्षित है, लेकिन ट्रंप ने इस दशकों पुराने आपातकालीन अधिकार का उपयोग करके अमेरिका की लंबे समय से चली आ रही व्यापार नीति को प्रभावी रूप से पलट दिया है।
विभिन्न वजहों से सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के 9 न्यायाधीशों में से अधिकांश इस कदम को लेकर आशंकित हैं। इनमें से कई तो स्वयं ट्रंप द्वारा नियुक्त किए गए हैं। निश्चित तौर पर राष्ट्रपति, खुद भी थोड़े असहज नजर आ रहे हैं। रविवार को उन्होंने अपने सोशल नेटवर्क ट्रुथ सोशल पर अपनी शुल्क नीति की आलोचना करने वालों को ‘मूर्ख’ घोषित किया जो यह नहीं मानते हैं कि अमेरिका अब दुनिया का ‘सबसे अमीर, सबसे सम्मानित देश है जहां न के बराबर मुद्रास्फीति है और जिसके शेयर बाजार रिकॉर्ड ऊंचाई पर हैं।’
उन्होंने यह भी कहा, ‘केवल शुल्क के कारण ही अमेरिका में खूब कारोबार आ रहे हैं’। उन्होंने प्रश्न किया कि उनके वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय को यह बताया या नहीं। अमेरिका में चल रहा यह आंतरिक विवाद जाहिर तौर पर शेष विश्व की रुचि का विषय है। खासतौर पर वे देश जहां की अर्थव्यवस्थाएं अपेक्षा से अधिक शुल्क दर से बेहाल हैं।
यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि यूरोप समेत उनमें से कुछ इस बात से खुश होंगे कि असमान व्यापारिक रिश्ते और शुल्क थोपने की शक्ति राष्ट्रपति के हाथों से छिनकर वापस कांग्रेस के पास चली जाए जिसके साथ कम से कम लॉबीइंग की जा सकेगी और दबाव बनाया जा सकेगा। बहरहाल भारत इस चर्चा में एक खास मुकाम पर है।
हमारा देश उन देशों में शामिल है जिन पर सबसे अधिक शुल्क दर थोपी गई है। इसके अलावा भारत उन देशों में से एक है जो एक ऐसे व्यापार समझौते को लेकर ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सके हैं जो उन शुल्क दरों को घटाने या उनके प्रभाव को कम करने की इजाजत दे सके। ऐसे में यह संभव होगा कि अंतिम समझौते को टाल दिया जाए। इस उम्मीद में कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद शायद ऐसा कोई समझौता करने की जरूरत ही न पड़े। यदि समझौता हो भी जाता है तो यह लालच फिर भी रहेगा कि अगर न्यायालय का फैसला राष्ट्रपति के विरुद्ध गया तो कारोबारी रिश्ते पहले जैसे किए जा सकेंगे।
परंतु ऐसी उम्मीद करना सही नहीं है। तथ्य यह है कि न्यायाधीश कहीं के भी हों, वे राजनीतिक धारा के विरुद्ध जाने में कतराते हैं। खासकर तब जबकि मतदाता सत्ता के साथ हों। अगर वे ऐसा करते हैं, खासकर इस मामले में, तो उनको ऐसी कार्यपालिका से टकराना होगा जो अदालती फैसलों को हाशिए पर डालने में सक्षम है।
अगर ट्रंप को आपात उपाय नहीं अपनाने को कहा जाता है तो भी लगता नहीं कि वे उन देशों पर पर व्यापार प्रतिबंध लगाने से पीछे हटेंगे जिनके बारे में वे मानते हैं कि उन्होंने अमेरिकी उदारता का फायदा उठाया है। भारत को वे खासतौर पर ऐसे देशों में शामिल करते हैं। उनके पास कानूनी विकल्प भी मौजूद हैं। शायद यह ऐसी लड़ाई नहीं है जिसे न्यायाधीश जीत पाएं और भारत को भी उन पर दांव नहीं लगाना चाहिए।