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‘हम तो ऐसे ही हैं’ के रवैये वाला भारत: जटिल, जिज्ञासु और मनमोहक

डिजिटल ढांचे की तरह ही बुनियादी ढांचे में लगातार सुधार करना उत्पादकता बढ़ाने का सबसे अच्छा कारगर जरिया हो सकता है। बता रही हैं रमा बीजापुरकर

Last Updated- November 11, 2025 | 11:08 PM IST
India

पिछले महीने ‘दीवाली कब है’ का भ्रम देश के कई हिस्सों में था क्योंकि पंचांग के अनुसार अमावस्या की तिथि 20 और 21 अक्टूबर दोनों दिन पड़ रही थी। इस भ्रम के बीच फ्रांसीसी दूतावास से दीवाली की शुभकामनाओं वाला एक आकर्षक वीडियो (हालांकि, इन दिनों किसी डिजिटल सामग्री के बारे में पुख्ता तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वह सबसे पहले कहां तैयार हुई थी) जारी हुआ। इस मजेदार वीडियो में सुझाव दिया गया था कि दोनों दिन उत्सव के रूप में मनाया जाए और दूतावास के प्रमुख ने कहा ‘त्योहार 20 को हो या 21 अक्टूबर को, दीवाली की रोशनी हमेशा तेज चमकती है।’

यह स्तंभकार लंबे समय से विदेशी कंपनियों को भारत का यह रुख समझाने की कोशिश करती रही हैं कि ‘हम तो ऐसे ही हैं, इसलिए आप तय करो कि क्या करना है’। हमें दुनिया को भारत के अनुरूप होते देखकर सुखद आश्चर्य हुआ और संतुष्टि मिली। दशकों पहले दौरे पर आए बच्चों की मनोरंजन सामग्री बनाने वाली एक वैश्विक कंपनी के एक मुख्य कार्याधिकारी ने पूछा था, ‘भारत में बच्चे स्कूल से घर कब आते हैं?’और जैसे ही उन्होंने ‘यह निर्भर करता है’ उत्तर सुना, उन्होंने झट से कहा, ‘निश्चित रूप से यह एक सरल सवाल है जिसका जवाब आसानी से दिया जा सकता है।‘

महिला शक्ति

ग्रामीण महाराष्ट्र में एक छोटे से किसान ने कहा कि उसे अपने बेटे के विवाह के लिए 2 लाख रुपये का ऋण लेने की आवश्यकता है। जब उनसे पूछा गया कि क्या लड़की पक्ष खर्च नहीं कर रहा है जैसा कि सामान्य भारतीय प्रथा है तो उन्होंने कहा, ‘आजकल पैसे के बिना लोग लड़की देने को तैयार नहीं है। जब दहेज लेने के बजाय दहेज देने के बारे में आगे पूछा गया तो उन्होंने पूछा, ‘आजकल लड़कियां हैं कहां?’

महाराष्ट्र में वर्ष 2001-03 में जन्म के समय लिंग अनुपात 883 और 2004-06 में 879 था, इसलिए राज्य विवाह योग्य आयु समूह में लड़कियों की कमी की स्थिति का सामना कर रहा है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु की अगुआई में भारत का पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सा ‘प्रगतिशील’ बाजार है। यह इस बात को रेखांकित कर रहा है कि उपभोग स्वास्थ्य की तुलना सामाजिक स्वास्थ्य के साथ नहीं की जा सकती।

अधिक दिलचस्प बात यह है कि यह लैंगिक समानता और सामाजिक ज्ञानोदय नहीं है जो दहेज या इसी तरह के उपहारों जैसी प्रथाओं को समाप्त करता है, बल्कि इसका उल्टा है जो भूमिकाओं में उलटफेर का कारण बनता है! इसके अलावा महिलाओं के लिए आरक्षण, नौकरियों में प्राथमिकताएं और उनके नाम पर सामाजिक लाभ उन्हें तथाकथित रूप से अधिक महत्त्वपूर्ण बना देते हैं।

बुनियादी ढांचे की ताकत

हमारा नया बुनियादी ढांचा पुरानी व्यवस्था की तुलना में निश्चित रूप से अधिक बेहतर हुआ है लेकिन ऐसा लगता है कि यह अपने साथ चुनौतियां भी साथ लाया है। मुंबई में बस से यात्रा करने वाले यात्री जितनी शिकायत उस उमस के बारे में करते हैं जो उनकी ऊर्जा को चूस लेती है उतनी ही शिकायत वे नई वातानुकूलित बसों के बारे में भी करते हैं, मसलन इनसे ‘सिग्नल पर नहीं उतर सकते हैं, दरवाजा बंद रहता है, धूप में दूर बस स्टॉप से चलना पड़ता है!’

इसमें कोई संदेह नहीं है कि बेहतर बुनियादी सुविधाएं लोगों की कार्यक्षमता बढ़ाती हैं और यह श्रम उत्पादकता तेजी से बढ़ाने का त्वरित अधिक व्यावहारिक समाधान है। अर्थशास्त्री अक्सर हमें इस बारे में बताते रहते हैं कि तेज आर्थिक विकास के लिए बेहतर बुनियादी सेवाएं बेहद जरूरी हैं। बेहतर बुनियादी सेवाएं अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक (जो बेहतर काम करने की स्थिति, बेहतर उपकरण और पूरक कौशल के व्यापक तंत्र के माध्यम से उत्पादकता को बढ़ाता है) बनाने की लंबी राह की तुलना में अधिक सधे ढंग से काम करती हैं।

डिजिटल ढांचे की तरह ही बुनियादी ढांचे में लगातार सुधार करना उत्पादकता बढ़ाने का सबसे अच्छा कारगर जरिया हो सकता है। ‘सब कुछ या कुछ भी नहीं’ मानसिकता को भूल जाना बेहतर है। इस मानसिकता का दृष्टिकोण अक्सर यह होता है कि यदि नए द्रुतमार्ग (फ्रीवे) के प्रवेश और निकास बिंदु अपरिवर्तित और अवरुद्ध रहते हैं तो फ्रीवे के पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाते हैं। बेशक, नागरिकों के लिए सड़क या राजमार्ग विभागों से अधिक समग्र और विचारशील योजना की उम्मीद करना पूरी तरह से उचित है।

हालांकि, कमियों के बावजूद अगर एक टैक्सी चालक मुंबई से नाशिक तक बिना सिग्नल और किसी व्यवधान के 80 किलोमीटर तक वाहन चलाता है तो उसे एक दिन में कुछ और घंटे करने का मौका मिल जाता है जिससे उसकी कमाई बढ़ जाती है।

बल को ‘द्रव्यमान गुना त्वरण’ के रूप में परिभाषित किया गया है और भारत में परिवर्तन की शक्ति एक बड़ी आबादी से आती है जो धीमी गति से बढ़ रही है। हर सुधार (मेट्रो, हाई-स्पीड ट्रेनें, बेहतर सड़कें, बेहतर रहने की सुविधाएं, और सार्वजनिक और निजी सुविधाएं) अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में स्व-रोजगार से जुड़े लोगों को उनके कारोबार की उत्पादकता बढ़ाने और बेहतर कमाई करने में मदद करता है।

अंतर बरकरार रहे

एक बड़े शहर में एक स्थानीय कोरियर प्लेटफॉर्म से जुड़े एक डिलिवरी मैन ने ‘हम तो ऐसे ही हैं’ मुहावरे को चरितार्थ कर दिया। उसने मध्यस्थ कोरियर प्लेटफॉर्म की जरूरत पर ही सवाल खड़ा कर दिया। उसने कहा कि विशिष्ट समय से पहले उन्हें या उनके भाई को एक व्हाट्सऐप संदेश ही काफी है (जाहिर है कि उन दोनों के पास अन्य ‘दिन की नौकरियां’ भी थीं)। वे प्लेटफॉर्म से कम शुल्क लेंगे और चूंकि, वे शहर को अच्छी तरह जानते हैं इसलिए ग्राहकों को प्लेटफॉर्म ऐप द्वारा मांगी जाने वाली कई जानकारियों के झंझट से बचा सकते हैं।

यहां तक कि सबसे प्रीमियम घरेलू सेवा प्लेटफॉर्म पर भी पुरुष कर्मी अक्सर मध्यस्थ प्लेटफॉर्म को हटाने की कोशिश करते हैं और इसका उपयोग केवल अच्छे ग्राहकों को खोजने के लिए करते हैं जिन्हें वे बाद में अपने साथ जोड़ लेते हैं। दिलचस्प बात यह है कि महिलाएं ऐसा नहीं करती हैं। वे कहती हैं कि वे उस गरिमा और सम्मान को महत्त्व देती हैं जो प्लेटफॉर्म उन्हें देते हैं। उनके अनुसार प्लेटफॉर्म से लचीलापन और मिलने वाले समर्थन उन्हें बाहरी काम और घर के काम के बीच संतुलन को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने में सक्षम बनाते हैं।


(लेखिका ग्राहक-आधारित व्यवसाय रणनीति के क्षेत्र में एक व्यवसाय सलाहकार हैं)

First Published - November 11, 2025 | 9:30 PM IST

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