Iran US Tensions: अमेरिका और ईरान के बीच तनाव का सिलसिला लंबे समय से चल रहा है। लेकिन बीते दिनों यह फिर से सुर्खियों में तब आया जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान को बड़ी धमकी दी। एक टीवी इंटरव्यू के दौरान ट्रंप ने कहा कि अगर ईरान न्यूक्लियर डील नहीं करता, तो अमेरिका उस पर बम बरसाएगा और टैरिफ भी लगाएगा। जवाब में ईरान ने अपने देश में एंटी-मिसाइल सिस्टम को मजबूत करना शुरू कर दिया। यह खबर अब दुनिया भर में चर्चा में है।
अमेरिकी न्यूज चैनल NBC न्यूज को फोन पर दिए एक इंटरव्यू में ट्रंप ने ईरान-अमेरिका न्यूक्लियर डील पर अपनी बात रखी। इंटरव्यू के दौरान ट्रंप ने कहा, “अगर वे समझौता नहीं करते, तो उनपर बमबारी होगी। उन्होंने ईरान से वाशिंगटन के साथ अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम पर एक नया समझौता करने की मांग की। इसके अलावा, ट्रंप ने सेकेंडरी टैरिफ लगाने की भी धमकी दी, जिसका मतलब है कि ईरान के साथ व्यापार करने वाले दूसरे देशों पर भी आर्थिक दबाव डाला जाएगा।
ट्रंप की इस धमकी के बाद ईरान ने चुपचाप बैठने के बजाय जवाबी कदम उठाया। ईरान ने अपने देश में एंटी-मिसाइल सिस्टम को मजबूत करना शुरू कर दिया। हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि अभी तक नहीं हुई है, लेकिन कई न्यूज रिपोर्ट्स और सोशल मीडिया पोस्ट्स से संकेत मिलता है कि ईरान अपनी सुरक्षा को लेकर गंभीर है। ईरानी सेना ने पहले से ही मिसाइल डिफेंस सिस्टम जैसे “बावर-373” को तैयार किया हुआ है, जो रूस के S-300 सिस्टम से मिलता-जुलता है। अब ट्रंप की धमकी के बाद ईरान इसे और बेहतर करने की कोशिश में जुट गया है। ईरान के सैन्य अधिकारियों ने कहा कि वे किसी भी हमले का जवाब देने के लिए तैयार हैं।
अमेरिका और ईरान के बीच तनाव की जड़ें 1979 की ईरानी क्रांति में छिपी हैं। उस समय ईरान में शाह मोहम्मद रजा पहलवी की सरकार थी। शाह अमेरिका के करीबी दोस्त थे और उनकी सरकार को वाशिंगटन का पूरा समर्थन हासिल था। लेकिन ईरान की जनता शाह के शासन से नाराज थी। लोग उनकी नीतियों को तानाशाही मानते थे और देश में गरीबी व भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा था। 1979 में जनता ने विद्रोह कर दिया और इस्लामिक नेता अयातुल्ला रुहोल्ला खोमैनी के नेतृत्व में शाह को सत्ता से हटा दिया गया। शाह को देश छोड़कर भागना पड़ा और खोमैनी ने एक इस्लामिक गणतंत्र की स्थापना की।
इस क्रांति ने अमेरिका और ईरान के रिश्तों को हमेशा के लिए बदल दिया। नवंबर 1979 में ईरानी छात्रों ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया। उन्होंने 52 अमेरिकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाए रखा। इसे “होस्टेस क्राइसिस” के नाम से जाना जाता है। ईरान का कहना था कि अमेरिका शाह को वापस सत्ता में लाने की साजिश कर रहा था। इस घटना के बाद दोनों देशों के बीच औपचारिक कूटनीतिक रिश्ते खत्म हो गए। अमेरिका ने इसे अपने अपमान के तौर पर देखा और ईरान को अपना दुश्मन मान लिया।
इसके बाद 1980 में इराक ने ईरान पर हमला कर दिया। यह युद्ध, जिसे ईरान-इराक युद्ध कहा जाता है, 1980 से 1988 तक चला। इस दौरान अमेरिका ने इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन का समर्थन किया। अमेरिका ने इराक को हथियार और पैसा दिया ताकि वह ईरान को कमजोर कर सके। 1988 में एक और बड़ी घटना हुई जब अमेरिकी नौसेना ने गलती से एक ईरानी यात्री विमान को मार गिराया। इस हादसे में 290 लोग मारे गए। अमेरिका ने इसे दुर्घटना बताया, लेकिन ईरान ने इसे जानबूझकर किया गया हमला कहा। इन सभी घटनाओं ने दोनों देशों के बीच नफरत की खाई को और चौड़ा कर दिया।
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ईरान का न्यूक्लियर प्रोग्राम 2000 के दशक में दुनिया के लिए एक बड़ा मुद्दा बन गया। ईरान ने कहा कि वह परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली बनाने और शांतिपूर्ण कामों के लिए करना चाहता है। लेकिन अमेरिका और पश्चिमी देशों को शक था कि ईरान गुपचुप तरीके से परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है। 2002 में यह खुलासा हुआ कि ईरान ने गुप्त न्यूक्लियर साइट्स बनाई थीं। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ने 2003 में पाया कि ईरान ने अपने प्रोग्राम को छिपाने की कोशिश की थी। इसके बाद अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर कई प्रतिबंध लगा दिए।
इन प्रतिबंधों का ईरान की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा। तेल निर्यात कम हो गया और ईरानी मुद्रा रियाल की कीमत गिर गई। लेकिन ईरान ने हार नहीं मानी। उसने अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को और तेज कर दिया। 2010 तक ईरान यूरेनियम संवर्धन में काफी आगे बढ़ चुका था। अमेरिका और इजरायल ने इसे रोकने के लिए कई कदम उठाए। 2010 में “Stuxnet” नाम का एक कंप्यूटर वायरस ईरान के न्यूक्लियर प्लांट्स में डाला गया, जिसे अमेरिका और इजरायल की साझा साजिश माना जाता है। इस वायरस ने ईरान के सेंट्रीफ्यूज मशीनों को नुकसान पहुंचाया, लेकिन ईरान ने फिर भी प्रोग्राम को जारी रखा।
2015 में एक बड़ा बदलाव आया। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस और चीन ने ईरान के साथ एक समझौता किया, जिसे “जॉइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन” (JCPOA) या न्यूक्लियर डील कहा गया। इसके तहत ईरान ने अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को सीमित करने का वादा किया। उसने यूरेनियम संवर्धन को 3.67% तक सीमित किया और अपने सेंट्रीफ्यूज की संख्या कम की। बदले में अमेरिका और यूरोपीय देशों ने ईरान पर लगे प्रतिबंध हटाने शुरू किए। उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा थे, जिन्होंने इसे अपनी सबसे बड़ी कूटनीतिक जीत बताया।
2016 में डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उन्होंने न्यूक्लियर डील को “अमेरिका के लिए सबसे खराब सौदा” करार दिया। उनका मानना था कि यह डील ईरान को परमाणु हथियार बनाने से पूरी तरह नहीं रोक सकती। 8 मई 2018 को ट्रंप ने अमेरिका को JCPOA से बाहर कर लिया। इसके बाद उन्होंने ईरान पर फिर से कड़े प्रतिबंध लगा दिए, जिसे “मैक्सिमम प्रेशर” नीति कहा गया। इन प्रतिबंधों ने ईरान की तेल बिक्री को लगभग खत्म कर दिया और उसकी अर्थव्यवस्था को गहरे संकट में डाल दिया।
ईरान ने जवाब में न्यूक्लियर डील की शर्तों को तोड़ना शुरू कर दिया। 2019 में उसने यूरेनियम संवर्धन को फिर से बढ़ाया और 2020 तक वह 20% तक संवर्धन करने लगा। यह स्तर परमाणु बम बनाने के लिए जरूरी 90% से कम था, लेकिन यह दुनिया के लिए खतरे की घंटी था। 3 जनवरी 2020 को अमेरिका ने एक और बड़ा कदम उठाया। ट्रंप के आदेश पर बगदाद (इराक) में एक ड्रोन हमले में ईरान के शीर्ष सैन्य कमांडर कासिम सुलेमानी को मार डाला गया। सुलेमानी ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स के प्रमुख थे और देश के सबसे ताकतवर नेताओं में से एक थे। ईरान ने इसे युद्ध की घोषणा माना और बदला लेने की कसम खाई। इसके बाद ईरान ने इराक में अमेरिकी ठिकानों पर मिसाइलें दागीं, जिसमें कई सैनिक घायल हुए।
2021 में जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उन्होंने न्यूक्लियर डील को फिर से शुरू करने की कोशिश की। वियना में कई दौर की बातचीत हुई, लेकिन ईरान ने शर्त रखी कि पहले अमेरिका सारे प्रतिबंध हटाए। बाइडेन प्रशासन ने कुछ राहत देने की कोशिश की, लेकिन ट्रंप के समय लगाए गए प्रतिबंधों को पूरी तरह हटाना मुश्किल था। इस बीच ईरान ने अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को और तेज कर दिया। 2022 तक उसने 60% तक यूरेनियम संवर्धन शुरू कर दिया, जो IAEA के लिए चिंता का विषय बन गया। बातचीत चलती रही, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।
2024 के चुनाव में ट्रंप फिर से अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए। सत्ता में आते ही उन्होंने ईरान पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया। 30 मार्च 2025 को NBC न्यूज को दिए इंटरव्यू में ट्रंप ने साफ कहा कि अगर ईरान न्यूक्लियर डील नहीं करता, तो अमेरिका उस पर बमबारी करेगा और टैरिफ भी लगाएगा। यह धमकी उनके पहले कार्यकाल की नीति से भी सख्त लगती है। ट्रंप का मानना है कि ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। उनकी इस धमकी के पीछे इजरायल का भी दबाव माना जा रहा है, जो ईरान को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है।
ईरान ने इस धमकी का जवाब अपने तरीके से दिया। उसने अपने एंटी-मिसाइल सिस्टम को मजबूत करना शुरू कर दिया। ईरान के पास पहले से ही “फतेह-110” और “खोरमशहर” जैसी मिसाइलें हैं, जो सैकड़ों किलोमीटर तक मार कर सकती हैं। अब वह अपने डिफेंस सिस्टम को और उन्नत करने की कोशिश कर रहा है। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामनेई ने कहा कि अमेरिका की धमकियों से वे डरने वाले नहीं हैं। ईरानी सेना ने दावा किया कि उनके पास ऐसे हथियार हैं जो किसी भी हमले का जवाब दे सकते हैं।
ट्रंप की धमकी और ईरान की तैयारी से मिडिल ईस्ट में उथल-पुथल मचने की आशंका बढ़ गई है। अमेरिका के पास पहले से ही फारस की खाड़ी में युद्धपोत और स्टील्थ बॉम्बर्स तैनात हैं। दूसरी ओर, कुछ एक्सपर्ट्स का मानना है कि ट्रंप की यह धमकी एक दबाव बनाने की रणनीति हो सकती है। वह चाहते हैं कि ईरान बातचीत की मेज पर आए और एक नई डील पर सहमत हो। अगर यह तनाव बढ़ता है, तो तेल की कीमतें आसमान छू सकती हैं और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है।