बहुपक्षीय विकास बैंक (एमडीबी) टिकाऊ विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए तैयार हो रहे हैं, ऐसे में उन्हें चार स्पष्ट उपायों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। बता रहे हैं अशोक लवासा
भारत अपनी अध्यक्षता में जी20 शिखर सम्मेलन सफलतापूर्वक आयोजित करने और दिल्ली घोषणापत्र में सभी सदस्य देशों के बीच सहमति बनाने में सफल रहा है। निश्चित रूप से भारत की इसके लिए सराहना होनी चाहिए। अब एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि इसके बाद आगे का मार्ग क्या होगा?
यह सभी जानते हैं कि कोविड महामारी और यूक्रेन संकट के बाद दुनिया के देश जलवायु परिवर्तन के परिणामों को गंभीरता से समझने लगे हैं और साथ मिलकर प्रयास करने के लिए तैयार हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का खतरा तेजी से वास्तविक एवं गंभीर संकट का रूप ले रहा है। दिल्ली घोषणापत्र में हुए 12 संकल्पों में आठ टिकाऊ विकास, जलवायु परिवर्तन और समावेशी विकास से संबंधित हैं।
जलवायु परिवर्तन के संकट का सामना करने के लिए आवश्यक धन का प्रबंध करने का दायित्व बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) के कंधों पर डाला गया है। ये बैंक अपने पास उपलब्ध वित्तीय संसाधनों एवं अन्य स्रोतों से आवश्यक धन जुटाएंगे। उदाहरण के लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) एशिया और प्रशांत क्षेत्र के अन्य ऋणदातों के साथ मिलकर आवश्यक वित्त का प्रबंध करने का लक्ष्य तैयार कर रहे हैं।
घोषणापत्र में एमडीबी में सुधार की रूपरेखा तैयार की गई है उसकी चर्चा पिछले कुछ समय से हो रही है। विकसित और विकासशील देश दोनों ही संयुक्त रूप से इनमें सुधार का मार्ग प्रशस्त करेंगे। अमेरिका के नेतृत्व में जी7 देश एमडीबी को अपने बहीखाते का आकार बड़ा करने और ऋण आवंटन बढ़ाने, खासकर जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए 200 अरब डॉलर का प्रबंध करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
विकासशील देश इस बात की शिकायत करते रहे हैं कि अनुसूची 1 (अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश) में शामिल देश जलवायु संकट के लिए अतिरिक्त 100 अरब डॉलर रकम उपलब्ध कराने में विफल रहे हैं। संभवतः विकसित देशों का यह कदम इसी आलोचना का नतीजा है। यह वादा पूरा नहीं होने से दीर्घकाल से हानिकारक गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देशों और वर्तमान समय में इसमें (उत्सर्जन) योगदान देने वाले देशों के बीच विश्वास का अभाव हो गया है।
इन बदलती परिस्थितियों के बीच बहुपक्षीय विकास बैंक चर्चा के केंद्र में आ गए हैं। इन बैंकों ने घोषणा की है कि उनकी सभी संप्रभु एवं गैर-संप्रभु उधारी क्रमशः 2023 और 2025 तक पेरिस समझौते के अनुसार हो जाएंगी। उन्होंने यह भी कहा कि जलवायु संकट से निपटने के लिए वे अधिक योगदान देंगे। उदाहरण के लिए एडीबी ने 2019 से 2030 के बीच जलवायु संकट से निपटने के लिए रकम उपलब्ध कराने का लक्ष्य 80 अरब
डॉलर से बढ़ाकर 100 अरब डॉलर कर दिया है।
टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के क्रियान्वयन का लक्ष्य भी अधूरा रह गया है। इन लक्ष्यों में विकासशील देशों के सामाजिक-आर्थिक विकास के बहु-आयामी बिंदु शामिल हैं। ये बिंदु पहले सही एमडीबी की देश आधारित रणनीति का हिस्सा थे। 2030 के मध्य तक एसडीजी के 12 प्रतिशत लक्ष्य ही पूरे होते दिख रहे हैं। दिल्ली घोषणापत्र में एमडीबी को बेहतर, व्यापक और अधिक प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक सुधार करने का भी जिक्र किया गया है ताकि वे ‘विकास की राह में आड़े आ रही वैश्विक चुनौतियों से निपट सकें’।
दिल्ली घोषणापत्र के बाद एमडीबी चार मार्गों का स्पष्ट रूप से अनुसरण कर सकते हैं। पहली बात, इन बैंकों का बहीखाता बढ़ाकर ऋण आवंटन के लिए अधिक गुंजाइश बनाने की जरूरत है। एमडीबी के पूंजी पर्याप्तता ढांचे (कैपिटल एडिक्वेसी फ्रेमवर्क्स) पर जी20 इंडिपेंडेंट रिव्यू की अनुशंसाओं को को क्रियान्वित करने के प्रस्ताव को पहले ही समर्थन मिल चुका है। इसके क्रियान्वयन की समीक्षा के बीच इन बैंकों को अपनी ‘दीर्घकालिक वित्तीय क्षमताओं, मजबूत क्रेडिट रेटिंग और तरजीही ऋणदाता के ओहदे की रक्षा जरूर करनी चाहिए’।
जोखिम लेने की क्षमता की परिभाषाओं के अनुरूप काम करने के साथ ही एमडीबी को अपनी रेटिंग सुरक्षित रखने के लिए क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के साथ बातचीत करनी चाहिए। इससे उन्हें सस्ती दर पर पूंजी जुटाने में मदद मिलेगी। एमडीबी अपने नए अवतार पर बातचीत कर रहे हैं, इसलिए यह प्रस्ताव पूंजी पर्याप्तता ढांचे के क्रियान्वयन में और तेजी ला सकता है। मोरक्को के मराक्कश में होने वाली विश्व बैंक की सालाना बैठक में यह अपने अंतिम चरण में पहुंच सकता है। तब तक एमडीबी को मजबूत करने पर गठित स्वतंत्र विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट का दूसरा हिस्सा भी आ जाएगा।
दूसरा मार्ग है निजी क्षेत्र से पूंजी जुटाना, जिसमें परोपकार कार्यों के लिए आई रकम भी शामिल होगी। एसडीजी पर दोबारा ध्यान देना जरूरी है और इनकी प्राप्ति के लिए अब अधिक रकम खर्च करने की जरूरत होगी। गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं जलवायु को सार्वजनिक हित की श्रेणी में रखे गए हैं और इनके लिए सार्वजनिक क्षेत्र से अधिक व्यय की जरूरत है मगर सरकार के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। इसे देखते हुए एमडीबी से अपेक्षा की जाती है कि वे नए वित्तीय प्रारूपों एवं नई साझेदारियों की मदद से निजी पूंजी का लाभ उठाएं।
मजबूत एमडीबी सभी स्रोतों से धन एकत्र करने में अधिक प्रभावी हो सकते हैं जिसका सकारात्मक परिणाम यह होगा कि ‘विकास के लिए कहीं अधिक रकम उपलब्ध हो पाएगी और निजी उद्यम विकास को तेजी से बढ़ावा देने और टिकाऊ आर्थिक बदलावों को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।‘ निजी क्षेत्र से पूंजी आकर्षित करने और इसके इस्तेमाल के लिए प्रभावी प्रणाली विकसित करनी होगी।
तीसरी जरूरी बात नई वित्तीय ढांचा तैयार करने से संबंधित है। एमडीबी की तरफ से मिश्रित वित्तीय योजनाएं, जोखिम साझा करने की सुविधाएं, मिश्रित पूंजी, प्रतिदेय पूंजी (कॉलेबल कैपिटल), गारंटी और ग्रीन बॉन्ड जैसे विकल्प शुरू किए जाने की जरूरत है। इन वित्तीय उपायों से राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (एनडीसी), कार्बन तटस्थता और शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन लक्ष्यों की प्राप्ति में मदद मिलेगी।
एडीबी ने ‘एनर्जी ट्रांजिशन मैकेनिज्म’ के नाम से एक नई पहल की है जिसके तहत कोयला से चलने वाले संयंत्र बंद करने की मुहिम तेज करने और उनकी जगह अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल का प्रावधान है। इस पहल का खास मकसद विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए ऊर्जा जरूरतें पूरी करना है। इंडोनेशिया, फिलिपींस और वियतनाम में इस योजना का परीक्षण भी शुरू हो गया है, जबकि कजाकिस्तान और भारत में इस बारे में चर्चा चल रही है।
विश्व बैंक भी कार्बन उत्सर्जन तार्किक रूप में कम करने के लिए ‘जस्ट ट्रांजिशन इनिशिएविट’ कार्यक्रम चला रहा है। एमडीबी ने कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के लिए वित्त देना बंद कर दिया है, वहीं कार्बन उत्सर्जन कम करने के विश्वसनीय तरीके उपलब्ध कराने की कुछ शर्तों के साथ प्राकृतिक गैस के इस्तेमाल की अनुमति दी है।
एमडीबी के लिए चौथी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे विकासशील देशों को उनके एनडीसी के क्रियान्वयन में मदद करें। जी20 ने 2024 में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ‘न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल’ (एनसीक्यूजी) का आह्वान किया है। शुरू में इसके लिए सालाना 100 अरब डॉलर रकम उपलब्ध होगी। इसकी शुरुआत इसलिए की गई है, क्योंकि 2030 से पूर्व की अवधि में विकासशील देशों को 5.8 से 5.9 लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी।
इनके अलावा, 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए उन्हें 2030 तक सालाना 4 लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। पूंजी उपलब्ध कराने के अलावा एमडीबी को विकासशील देशों को प्रभावी रणनीति एवं नीति, क्षमता निर्माण, परियोजना, निवेश योग्य परियोजनाओं की कतार तैयार करने और विश्वसनीय प्रभाव समीक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए।
दुनिया भर के नेता जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की जरूरत से लगातार जूझ रहे हैं, ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि एमबीडी इन महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव एवं लक्ष्यों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने में किस तरह अपनी भूमिका निभाते हैं।
(लेखक चुनाव आयुक्त एवं वित्त सचिव और एशियन डेवलपमेंट बैंक के उपाध्यक्ष के पद पर रह चुके हैं)