केंद्रीय गृह मंत्री और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने कर्नाटक में पार्टी के लिए जो चुनाव मैदान तैयार किया है उसमें कुछ गड़बड़ियां हैं। शाह अपने किसी आधिकारिक काम के सिलसिले में बेंगलूरु में थे, लेकिन बाद में एक विशाल राजनीतिक जनसभा को संबोधित करने के लिए ओल्ड मैसूरु क्षेत्र में चले गए।
इस इलाके के राजनीतिक इतिहास पर संक्षेप में नजर डालते हैं। ओल्ड मैसूरु में 11 जिले हैं और 224 सदस्यीय कर्नाटक विधानसभा में वहां से 89 सीट हैं। बेंगलूरु की 28 सीट ओल्ड मैसूरु क्षेत्र में आती हैं। वर्ष 2008 में जब राज्य में भाजपा अपने चरम पर थी तब पार्टी ने इस क्षेत्र से 28 सीट जीतीं। इनमें से 17 सीट बेंगलूरु से और 11 सीट क्षेत्र के अन्य हिस्से से मिली थीं। वर्ष 2018 में भाजपा ने ओल्ड मैसूर की 22 सीट जीत लीं जिनमें 11 सीट बेंगलूरु क्षेत्र से थीं जबकि शेष सीट क्षेत्र के अन्य हिस्से से थीं। गौर करने वाली बात यह है कि भाजपा ने कभी भी इस क्षेत्र में 11 से अधिक सीट नहीं जीती हैं जहां (बेंगलूरु को छोड़कर) 61 सीट हैं।
कपास और गन्ना के समृद्ध किसानों के प्रभुत्व वाले इस क्षेत्र की असली ताकत जनता दल सेक्युलर, जद (एस) है, जिसका नेतृत्व वोक्कालिगा नेता देवेगौड़ा का परिवार कर रहा है जो कई दशकों से राज्य की राजनीति में किंगमेकर की भूमिका में रहे हैं। एकमात्र अपवाद वह संक्षिप्त अवधि थी जब यह मान लिया गया था कि पार्टी टूट गई है।
वर्ष 2019 में मांड्या जिले के कृष्णराजपेट निर्वाचन क्षेत्र में एक उपचुनाव हुआ जहां भाजपा ने कभी भी इस क्षेत्र के आठ या उससे अधिक विधानसभा क्षेत्रों से कुल मिलाकर 10,000 से अधिक वोट हासिल नहीं किए हैं। जद (एस) के पूर्व विधायक के सी नारायण गौड़ा पूर्ववर्ती जद (एस)-कांग्रेस सत्तारूढ़ गठबंधन के उन 17 विधायकों में से एक थे जिन्होंने राज्य में भाजपा के लिए सरकार बनाने का रास्ता तैयार करने में मदद देने के साथ ही इस्तीफा दे दिया था। वह इस सीट पर चुनाव लड़े और 9,000 वोटों के अंतर से चुनाव जीत गए।
तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के बेटे बीएस विजयेंद्र ने इस चुनाव का व्यापक प्रबंधन किया था। यह क्षेत्र देश में वोक्कालिगा का प्रमुख केंद्र था। बीएस येदियुरप्पा का परिवार लिंगायत समुदाय से ताल्लुक रखता हैं। पहली बार ऐसा लग रहा था कि विजयेंद्र के नेतृत्व में चलाया गया प्रचार अभियान किसी इलाके में अपनी मजबूत पकड़ बनाने में कामयाब रहा है, जो भाजपा के पक्ष में नहीं था।
पिछले सप्ताह की बात करते हैं। अमित शाह मांड्या गए और देवेगौड़ा परिवार के खिलाफ पूरा दबाव बनाने की कोशिश की। रैली में मौजूद लोगों का कहना है कि अनुवादक ने उनके भाषण की ‘पुनर्व्याख्या’ की, जिसकी वजह से न केवल शाह के तीखे संबोधन के अनुवाद में कई गलतियां हुईं बल्कि उस अनुवादक ने अपनी ओर से भी कुछ पंक्तियां और नारे जोड़े। शाह को हस्तक्षेप करना पड़ा और कुछ मौकों पर उन्हें सार्वजनिक रूप से फटकार भी लगानी पड़ी।
अनुवादक ने भाषण के तीखे सुर को मद्धम करने की कोशिश शायद जानबूझकर की कि भाजपा को एचडी देवेगौड़ा परिवार की आलोचना उनके गृहनगर में करने पर उसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। लेकिन हर किसी ने शाह को यह कहते हुए सुना, ‘अगर जद (एस) सत्ता में आती है तब कर्नाटक एक परिवार का एटीएम बनकर रह जाएगा।’ परिवार ने इस विरोध को भुनाने की कोशिश के तहत देवेगौड़ा के बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने जवाब देते हुए कहा, ‘अमित शाह, एचडी देवेगौड़ा के पैर के नाखूनों के बराबर भी नहीं हैं।’
इसके बाद अमित शाह ने भाजपा नेताओं की एक बैठक बुलाई जिसे पार्टी की राज्य इकाई ने आयोजित किया। हालांकि विजयेंद्र को इसमें आमंत्रित नहीं किया गया था। इस बैठक में मौजूद लोगों के अनुसार शाह ने भाजपा नेतृत्व को जोर देते हुए कहा कि राज्य इकाइयां एक साथ मिलकर जल्द से जल्द काम करें।
कर्नाटक पहला बड़ा राज्य होगा जहां अप्रैल महीने में लगभग 100 दिनों की अवधि में चुनाव होंगे। क्या गुजरात मॉडल को वहां लागू किया जाएगा जिसमें पार्टी और सरकार में बड़े बदलाव होंगे? हालांकि इसकी संभावना नहीं दिखती है। राज्य में पार्टी प्रमुख नलिन कतील का कार्यकाल अगस्त में समाप्त हो गया था। उन्हें इस पद से हटाया नहीं गया है। इसके विपरीत, गुजरात में सीआर पाटिल को चुनाव से दो साल पहले पार्टी प्रमुख बनाया गया था। यहां सरकार को सत्ता विरोधी लहर का सामना गंभीर तरीके से करना पड़ रहा है और यह भ्रष्टाचार और अन्य घोटालों के मामले से घिरी हुई है।
बीएस येदियुरप्पा को संसदीय बोर्ड में जगह देकर राज्य से बाहर कर दिया गया था। लेकिन इस वक्त राज्य में ऐसा कोई नजर नहीं आ रहा है जो उनकी जगह लेने में सक्षम दिख रहा हो। इसके अलावा भी अन्य समस्याएं हैं। अमित शाह, गौड़ा परिवार के खिलाफ तब तक लड़ सकते हैं, जब तक कि उनका क्रोध खत्म न हो जाए। तथ्य यह है कि भाजपा के पास एक भी विश्वसनीय वोक्कालिगा नेता नहीं है जिसे वह एक विकल्प के रूप में तैयार कर सके।
अगर वोक्कालिगा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस के डीके शिव कुमार को जद (एस) के विकल्प के रूप में पेश किया जाता है तब शाह की गौड़ा परिवार की आलोचना करने से कांग्रेस को मदद मिल सकती है! चुनावों की उलटी गिनती शुरू हो गई है और जनता का मौजूदा मिजाज यह है कि चुनाव के बाद त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनेगी। यहां तक कि भाजपा में भी कोई पार्टी के लिए सामान्य बहुमत की भी बात नहीं कर रहा है।
भाजपा के पास इतिहास रचने और सत्तारूढ़ पार्टी के सत्ता से बाहर होने की परंपरा को खत्म करने का मौका है। आखिरी बार ऐसा 1978 में देवराज अर्स के साथ ऐसा हुआ था। इसके लिए पार्टी को तुरंत कार्रवाई करते हुए कठोर कदम उठाने होंगे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील कम नहीं हुई है। लेकिन इसका लाभ उठाने के लिए जमीन पर एक मजबूत नेता की आवश्यकता है।
येदियुरप्पा ऐसे नेता हो सकते थे लेकिन उन्होंने घोषणा की है कि वह वर्ष 2023 का चुनाव नहीं लड़ेंगे। पार्टी को जल्द ही राज्य में डबल इंजन वाली सरकार के लिए भी काम करना है। इसके बगैर कर्नाटक चुनाव बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं।