facebookmetapixel
AI की एंट्री से IT इंडस्ट्री में बड़ा बदलाव, मेगा आउटसोर्सिंग सौदों की जगह छोटे स्मार्ट कॉन्ट्रैक्ट‘2025 भारत के लिए गौरवपूर्ण उपलब्धियों का वर्ष रहा’, मन की बात में बोले प्रधानमंत्री मोदीकोल इंडिया की सभी सब्सिडियरी कंपनियां 2030 तक होंगी लिस्टेड, प्रधानमंत्री कार्यालय ने दिया निर्देशभारत में डायग्नॉस्टिक्स इंडस्ट्री के विस्तार में जबरदस्त तेजी, नई लैब और सेंटरों में हो रहा बड़ा निवेशजवाहर लाल नेहरू पोर्ट अपनी अधिकतम सीमा पर पहुंचेगा, क्षमता बढ़कर 1.2 करोड़ TEU होगीFDI लक्ष्य चूकने पर भारत बनाएगा निगरानी समिति, न्यूजीलैंड को मिल सकती है राहतपारेषण परिसंपत्तियों से फंड जुटाने को लेकर राज्यों की चिंता दूर करने में जुटी केंद्र सरकार2025 में AI में हुआ भारी निवेश, लेकिन अब तक ठोस मुनाफा नहीं; उत्साह और असर के बीच बड़ा अंतरवाहन उद्योग साल 2025 को रिकॉर्ड बिक्री के साथ करेगा विदा, कुल बिक्री 2.8 करोड़ के पारमुंबई एयरपोर्ट पर 10 महीने तक कार्गो उड़ान बंद करने का प्रस्वाव, निर्यात में आ सकता है बड़ा संकट

इस्लाम, सैन्य शक्ति और लोकतंत्र पर पुनर्विचार: वर्ष के इस आखिरी स्तंभ में गलती की स्वीकारोक्ति

इस स्तंभ में मैंने जो भी आलेख लिखे उनमें आपमें से कई को कुछ न कुछ कमी लगी होगी। मैं असहमत हो सकता हूं लेकिन कुछ लोगों के लिए अपनी गलती माननी चाहिए

Last Updated- December 28, 2025 | 9:15 PM IST
correction
प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो

कोई स्तंभकार खुद से हुई असहमतियों को कहां स्वीकार करे? या ऐसे विचार पर कहां पुनर्विचार करे जो समय की परीक्षा में विफल रहा हो, गलत साबित हुआ हो। यह इस वर्ष ‘राष्ट्र की बात’ स्तंभ का अंतिम आलेख है और ऐसा करने का अच्छा मौका है। क्या मैं हर वर्ष के आखिर में ऐसा करूंगा? उम्मीद करता हूं कि ऐसा नहीं होगा। मैं उम्मीद करता हूं कि ऐसे तर्क नहीं रखूंगा जिन्हें बाद मे बदलना पड़े या जिनसे पीछे हटना पड़े।

एक वैचारिक लेख में लेखक के विचार ही होते हैं। जरूरी नहीं कि सभी उसे स्वीकार करें। बेहतर यही होगा कि वह वैचारिक रूप से उत्तेजक हो। कुछ आलेखों से पाठक अन्य आलेखों की तुलना में अधिक असहमत होंगे। वे अपनी असहमति संपादक के नाम पत्र में लिख सकते हैं। लेकिन लेखक पाठक के यानी आपके अलावा कहां जाए? मुझे पता है आप में से कई लोग सोच सकते हैं कि शायद मैंने इस वर्ष लिखे करीब 50 आलेखों में कुछ न कुछ गलती की होगी।

मैं आपसे असहमत हो सकता हूं लेकिन बीते 25 सालों में से कम से कम पांच ऐसे आलेख चुन सकता हूं जिन्हें लेकर गलती कबूल करनी चाहिए। उनमें से सबसे ताजा का जिक्र मैं इस आलेख में करूंगा। यह सितंबर 2024 में प्रकाशित हुआ था। इसमें कहा गया था कि इस्लाम लोकतंत्र की हत्या नहीं करता ब​ल्कि सेना और इस्लाम का योग ऐसा करता है। बांग्लादेश और पाकिस्तान में सत्ता हस्तांतरण शायद ही शांतिपूर्ण ढंग से होता है जबकि इस्लामिक देशों इंडोनेशिया और मलेशिया में ऐसा बराबर होता है?

इसी तरह, मैंने तर्क दिया था कि म्यांमार में एक सैन्य-शासित मिश्रित प्रणाली थी जबकि वह लगभग पूरी तरह से बौद्ध है, खासकर तब से जब उन्होंने अपने छोटे मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय रोहिंग्या को बेरहमी से बाहर निकाल दिया। यदि बौद्ध धर्म उसके लोकतंत्र के लिए चुनौती था, तो श्रीलंका में ऐसी कोई समस्या क्यों नहीं हुई? जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मुझे इस तर्क में कई खामियां दिखाई देती हैं। पहली यह कि इतने सारे इस्लामी देशों में लोकतंत्र नहीं है, जबकि उनकी सेना हस्तक्षेप नहीं करती। मेरी दूरदृष्टि पड़ोस में जो मैं देखता हूं उससे धुंधली हो गई थी।

ईरान में कोई सैन्य शासन नहीं है, और यद्यपि वहां नियमित चुनाव होते हैं, लेकिन निर्वाचित न होने वाला धर्मगुरु शासन करता है। खाड़ी की राजशाहियां अपनी सेनाओं से नहीं, बल्कि लोकतंत्र से डरती हैं। वे प्राकृतिक संसाधनों के लाभ और इस्लाम के नाम पर शासन करती हैं। तुर्की में नियमित चुनाव होते हैं, लेकिन रेचेप तैय्यप एर्दोआन ने धर्म का उपयोग करके संविधान को विकृत कर दिया और विपक्ष का बड़ा हिस्सा नष्ट कर दिया।

वर्ष 2024 के उस आलेख में मैंने 2011 के अरब उभार से निकले सबकों की अनदेखी कर दी थी। पश्चिमी दुनिया, उदारवादी फाउंडेशनों और ओबामा प्रशासन ने उसे मुस्लिम अधिनायकवादी देशों में शानदार लोकतांत्रिक उभार करार दिया था। भारत में भी उदारवादी धड़ा कुछ उत्साह में था।

लेकिन वह सब बहुत जल्दी बिखर गया। कुछ मामलों में लोगों ने पुराने तानाशाही शासन की वापसी का स्वागत किया, जैसे मिस्र में। और कुछ में तानाशाह तो बच गया लेकिन देश एक विफल राज्य बन गया (सीरिया), जहां कई विद्रोही सेनाएं लोकतंत्र या यहां तक कि राष्ट्रवाद के नाम पर नहीं, बल्कि इस्लाम के विभिन्न रूपों के नाम पर उठीं। ट्यूनीशिया और अल्जीरिया ने ‘सुधार’ किए ताकि वे एकजुट रह सकें।

यमन अब भी टूटा हुआ है और युद्ध में फंसा हुआ है और लीबिया के भयानक हालात पर बात करने की हमारे पास जगह नहीं है। यह क्रूर लग सकता है, लेकिन आपको पूछना चाहिए कि क्या देश कर्नल गद्दाफी के शासन में बेहतर नहीं था? कम से कम वह एक अरब राष्ट्रवादी था। अब देश दो सरदारों के बीच बंटा है, जो चोरी किए गए तेल के पैसे से काले बाजार में हथियार खरीद रहे हैं।

अरब उभार की नाकामी की प्रमुख वजह यह थी कि इन देशों में इकलौता संगठित समूह मुस्लिम ब्रदरहुड था। लोकतंत्र जहां इसका सत्ता में आने का वाहन बना वहीं इसका एजेंडा वैचारिक था यानी अखिल राष्ट्रीय धार्मिक रूढ़िवाद की स्थापना।

मेरी दलील खासतौर पर गलत थी क्योंकि कई इस्लामी देशों में सेना वास्तव में स्थिरता और सुरक्षा की ताकत रही है, यहां तक कि अल्पसंख्यकों के लिए भी। हम देख रहे हैं कि पड़ोसी बांग्लादेश में सेना यह  भूमिका निभा रही है, कम से कम अभी तक, जहां अस्थिरता और मार्शल लॉ का इतिहास रहा है। इसलिए यह विचार कि सेना-इस्लाम का संयोजन लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए आवश्यक था, कुछ ज्यादा ही सामान्यीकरण था।

क्या इस्लाम और लोकतंत्र के बीच कोई विरोधाभास है, यह एक जटिल बहस है। आइए इसे दो प्रश्नों के साथ और स्पष्ट करें। पहला, क्या एक मुस्लिम राज्य और लोकतंत्र के बीच विरोधाभास है? और दूसरा, ‘इस्लामिक’ और ‘इस्लामिस्ट’ में क्या अंतर है? पहले प्रश्न का उत्तर, दुर्भाग्यवश, ज्यादातर हां है, हालांकि मालदीव, इंडोनेशिया (सबसे बड़ा मुस्लिम देश) और मलेशिया जैसे अपवाद मौजूद हैं। आस्था के कट्टर पालन से एक पूर्व-निर्धारित, एकात्मक शासन प्रणाली आती है -बिल्कुल साम्यवाद की तरह। दोनों पक्षों का एक साझा दुश्मन यानी ‘दुष्ट’  पश्चिम और उसकी ‘चहेती औलाद’ यानी इजरायल है।

इस्लामी बुद्धिजीवियों को वैश्विक सम्मान के लिए वामपंथ की आवश्यकता है और वामपंथ को अलग-थलग पड़े मुसलमानों की आवश्यकता है, जिन्हें संघर्ष का ईंधन बनाया जा सके। क्यों न अमेरिकी साम्राज्यवाद और नव-उदारवाद से तब तक लड़ा जाए, जब तक कि एक भी मुस्लिम नाराज है। क्या एक साम्यवादी राज्य लोकतांत्रिक हो सकता है?  और क्या एक इस्लामी राष्ट्र में लोकतंत्र हो सकता है?

यह हमें ‘इस्लामिक’ और ‘इस्लामिस्ट’ के बीच के अंतर तक ले जाता है। ‘इस्लामिक’ मात्र आस्था का पालन है। यह एक चुनाव है, जैसे हिंदू, ईसाई, यहूदी या नास्तिक होना। यह दूसरों को अपनी राह बदलने और आपके अनुरूप होने के लिए मजबूर नहीं करता। इसके विपरीत, ‘इस्लामिस्ट’ एक राजनीतिक दर्शन है जो गैर-विश्वासियों पर आस्था के नियम लागू करना चाहता है और यदि वे पालन न करें तो उन्हें दंडित करता है।

यही है आईएसआईएस यानी वह विचारधारा जिसने ऑस्ट्रेलिया में बॉन्डी बीच पर यहूदियों के नरसंहार, श्रीलंका में ईसाइयों को निशाना बनाने वाले ईस्टर बम धमाकों, और सीरिया तथा उसके पड़ोस सहित दुनिया भर में विनाश को बढ़ावा दिया।

लोकतंत्र को भूल जाइए, इस्लामिस्ट तो राष्ट्रवाद को भी स्वीकार नहीं करेंगे। वे एक खलीफा चाहते हैं जो सभी मुस्लिम देशों से परे हो। यही कारण है कि हर मुस्लिम राष्ट्र जिस ताकत से सबसे अधिक डरता है, वह है आईएसआईएस, यानी इस्लामिस्ट। दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि निष्पक्ष चुनावों ने उन्हें (मुस्लिम ब्रदरहुड के नाम पर) कई देशों में सत्ता तक पहुंचा दिया।

हम कह सकते हैं कि ‘इस्लामिस्ट’ (इस्लाम से अलग) और लोकतंत्र के बीच विरोधाभास है। पाकिस्तान एक इस्लामी गणराज्य है जिसमें मजबूत राष्ट्रवाद है। यह ‘इस्लामिस्ट’ नहीं है। यह कभी किसी अन्य इस्लामी राष्ट्र के लिए नहीं लड़ेगा, जब तक कि उसे इसके लिए भुगतान न किया जाए। यहां तक कि लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद भी भारत के प्रति अपनी घृणा को भड़काने के लिए इस्लाम का उपयोग करते हैं।

तालिबान, जो दुनिया का सबसे ज्यादा शरीयत मानने वाला राज्य चलाते हैं, वे भी आईएसआईएस से डरते हैं क्योंकि यह उनके राष्ट्रवाद को चुनौती देता है। क्या वे स्वतंत्र चुनाव का जोखिम उठाएंगे? खाड़ी देशों में भी ऐसा नहीं होगा। इराक एक अपवाद के रूप में सामने आता है, लेकिन उसकी शिया-बहुल आबादी और ईरानी प्रभाव उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं।

सितंबर 2024 के अपने स्तंभ में मैंने इन बारीकियों की अनदेखी कर दी थी। मेरी दृष्टि पड़ोस पर बहुत अधिक केंद्रित थी। खेदजनक तथ्य यह है कि जब आप लाल सागर से बंगाल की खाड़ी तक एक रेखा खींचते हैं, तो केवल दो छोरों पर यानी इजरायल और भारत में मुस्लिम नागरिकों को लगातार स्वतंत्र मतदान का अधिकार मिला है, जो तय करता है कि सीमित समय के लिए कौन शासन करेगा। इस प्रकार मैं अपनी गलती मानता हूं।

First Published - December 28, 2025 | 9:15 PM IST

संबंधित पोस्ट